चंद्रशेखर धर्माधिकारी

किसी भी हाइवे से शराब की दुकानें कम-से-कम 500 मीटर की दूरी पर हों-सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को लेकर शराब ठेकेदारों, शराब उत्पादकों और स्वयं लोक कल्याणकारी सरकारों में बवाल मचा है। स्थानीय निकायों से लेकर राज्य सरकारें तक अब शराब दुकानों के आसपास से गुजरने वाले स्टेट या नेशनल हाइवे को ’डी-नोटिफाई’ करने में लग गई है। ताकि ’न बांस रहे, न बांसुरी।’ राजस्थान सरकार ने ही कई स्टेट हाइवे ’डी-नोटिफाई’ किए हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र तथा प्रदेश सरकारों को आदेश दिया है कि नेशनल या स्टेट हाइवे पर 500 मीटर के अन्दर, जो शराब की दुकानें हैं, होटल या रेस्टॉरेन्ट है, उन्हें 1 अप्रैल से बन्द किया जाए, और उनके लायसेन्स का नवीनीकरण न हो। इस आदेश के अनुसार यह दुकानें बन्द की गई। इस बाबद की कारण-मीमांसा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि शराब पीकर मोटर चलाने वाले ड्रायवरों से ही अधिकतर दुर्घटनाएं होती है, और उसमें मरने वालों की संख्या सबसे अधिक है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ सिर्फ शराब की दुकान, होटल या ’पब’ के मालिकों ने ही नहीं प्रतिष्ठित अखबार और उच्च भ्रू तथा अमीर लोगों ने इस न्यायालयीन फैसले पर टीका-टिप्पणी की और कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने उपदेश देने से बाज आना चाहिए। न्यायालयों को अपनी सीमित भूमिका निभानी चाहिए एवं सीमा की मर्यादा भंग नहीं करना चाहिए तथा नैतिकता की बात नहीं करनी चाहिए। भारत के प्रमुख अखबारों की यह भाषा कष्टपूर्ण तो है ही, परन्तु मन को विचलित करने वाली भी है। इसमें संविधान तथा कानून के मूलतत्वों के प्रति अज्ञान भी झलकता है तथा यह कानून तथा नीति मूल्यों के विरोधी भी है। सबसे पहले यह समझ लेना चाहिए कि शराब का उत्पादन करना, व्यापार करना किसी का भी संवैधानिक मूलभूत अधिकार नहीं है। कई वर्षों पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया था कि संविधान की धारा 19 के अन्तर्गत जो वृत्ति, आजीविका,व्यापार या कारोबार करने का अधिकार है, उसमें व्यसनों एवं शराब आदि के अधिकार निहित नहीं है।

जब भारत का संविधान बन रहा था, तब जो चर्चा चल रही थी, उस दरम्यान कहा गया कि धारा 21 में निहित जीवित रहने के अधिकार से सह सम्बन्धित आत्महत्या का भी मूल अधिकार होना चाहिए। तब जवाहरलाल नेहरू ने कहा था ’क्या वाहियात बात कर रहे हैं।’ इसलिए जो यह कहते हैं कि शराब का व्यापार करने का अधिकार मूल अधिकार है, उन्हें यही जवाब देना होगा। व्यसन या शराब पीने का परिणाम व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहता। यह केवल सामाजिक या नैतिक प्रश्‍न भी नहीं है, बल्कि उसका गरीब आदमी से सीधा सम्बन्ध है, जिसकी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा इस शराबखोरी में खर्च हो जाता है। गरीब की गरीबी कभी भी समाप्त न हो, इसलिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का व्यसनों का व्यापार उस गरीब के खिलाफ एक षड़यंत्र है।

इसके कारण शराब का अवैध व्यापार बढ़ेगा और शराब बेचने के व्यापार में जुड़े कई लोगों की नौकरी समाप्त होगी और बेरोजगारी बढ़ेगी, ऐसी दलीलें भी दी जा रही हैं। इस संदर्भ में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जिनका नाम हर राजनीति पक्ष रोज लेता है, या जिस महात्मा को प्रातः स्मरणीय माना जाता है,उनके वचन या कथन यहां उद्धृत करना मुनासिब होगा। गांधीजी ने कहा था कि ’अगर उन्हें एक घंटे के लिए हुकुमशहा नियुक्त किया गया, तो वे सर्वप्रथम कोई मुआवजा न देते हुए शराब की दुकानें बंद करेंगे। उन्होंने आगे यह भी कहा कि ’’अवैध शराब कुछ प्रमाण में शुरू रह सकती है, लेकिन उसका प्रमाण सरकार की कार्यक्षमता या अकार्यक्षमता पर अवलंबित होगा। चोरी, यह शायद दुनिया के अन्त तक चलती रहेगी, इसलिए क्या उसे कानूनी करार देना चाहिए?’’ यह प्रश्‍न भी उन्होंने उठाया था। यह स्पष्ट कर दिया था कि ’’शराब से मिलने वाले पैसों पर निःसंकोच और अविलंब पानी छोड़ देना चाहिए।’’कुछ लोग बेरोजगार होंगे इसलिए निश्‍पाप लोगों को एक्सीडेन्ट में मरने देना चाहिए? यह अर्थषास्त्र सिर्फ अनर्थ शास्त्र ही नहीं वह तो विपत्तिशास्त्र है।

 कानून में से चोर रास्ते निकालने वाले व्यक्ति हमने देखे है। लेकिन आज तो शासन ही ऐसे चोर रास्ते ढूंढ रहा है, इसका अनोखा दर्शन सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद हो रहा है। शासन ही ऐसे जो रास्ते खोज रही है, उसमें से एक है, कि स्टेट हाइवे को म्युसिपल रास्ते में परिवर्तित कर देना। अवैध को वैध बनाने के तरीके शासन ही खोज रहा है। कुछ नगर परिषदें भी इसमें शामिल है। महाराष्ट्र में जालना और लातूर नगर परिषदों ने तो प्रस्ताव पास कर जो हाइवे उनके नगर परिषद के आहते में से जाते है, उसे ’डी-नोटिफाय’ करने का निर्णय ले लिया है, तो टाइम्स ऑफ इंडिया के वृत के अनुसार भारतीय जनता पार्टी का शासन जहां है, वह महाराष्ट्र शासन भी मुंबई और पुणे जैसे महानगर में से गुजरने वाले हाइवेज को उस दर्जे से हटाने का प्रयास कर रहा है। अब तो जहां शासन ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद चोर रास्ते निकालना चाहती है, वहां फिर कानून का राज कैसे पनप सकता है? यह सारी स्थिति दयनीय और निंदनीय है, इतना ही नहीं तो अनैतिक भी है। जो बार, रेस्टॉरन्टस् होटल पांच सौ मीटर से अधिक अन्तर पर अपने प्रस्थापनाओं को पुनःस्थापित करना चाहते है, उनसे शासन कोई शुल्क लिए बिना ऐसी पुनः स्थापना की खुले आम इजाजत देगी, ऐसा मंत्री महोदय ने ही घोषित किया है। जिससे कि शराब पीकर मोटर चलाने वाले मोटर चलाते रहेंगे, एक्सीडेन्ट होते रहेंगे, और निश्‍पाप लोगों की जाने जाती रहेगी। आखिरकार मरने वाले हमारे रिश्‍तेदार थोड़े ही है? ऐसे रास्ते ढूंढकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की अनदेखी की जायेगी यही ’कानून के राज’ की सबसे बड़ी शोकांतिका है।

 यह भी दलील दी जा रही है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णयानुसार शराब बेचने वाली दुकानें, बंद होने से शराबखोरी बंद होने वाली नहीं है और नहीं शराब पीने वाले कम होंगे। यह दलील भी खोखली है। क्या इसलिए मोटर वाहन चलाने वाले ड्रायवर को खुलेआम उसके हाथ में शराब का गिलास पहुंचाने की व्यवस्था करना शासन का कर्तव्य है? ’प्रिव्हेन्‍नशन न इज् बेटर देन क्युअर’ कहने वाले सुरक्षा के कदम भी नहीं उठाना चाहते? पहली बार जब श्मशान में इलेक्ट्रिक से दहन करने की योजना अस्तित्व में आई, तब कहा गया था कि श्मशान में लकड़ी बेचने वाले बेरोजगार होंगे? क्या उन इंसानों के मौत के व्यापारियों का धंधा चले, इसलिए उनके लिए रोज मरने वालों का ’कोटा’ निश्‍चत करना चाहिए? यह सारी आदम खोरी के लिए दी जाने वाली दलीलें अमानवीय है। लेकिन आज सज्जन निष्क्रिय हो रहे हैं और दुर्जन सक्रिय हो रहे हैं, यही असली लोकतंत्र तथा न्यायतंत्र की शोकांतिका है। (सप्रेस)                          

न्या. चंद्रशेखर धर्माधिकारी गांधीवादी विचारक एवं प्रखर वक्ता हैं। मुंबई उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश हैं।

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