डॉ.किशोर पंवार

हिन्दू परम्परा में श्राद्ध-पक्ष पूर्वजों को याद करने की खातिर मनाया जाता है, लेकिन क्या हम कभी अपने आसपास की प्रकृति के पूर्वजों का भी स्मरण कर पाते हैं? रोटी, कपडा और मकान की बुनियादी जरूरतों के लिए परम्परा से जिन पेड-पौधों की सेवाएं ली जाती हैं, उनके बारे में हम कितना जानते हैं? इसी पर प्रकाश डालता डॉ.किशोर पंवार का यह लेख।

अनंत चतुर्दशी के बाद पूर्णिमा से लेकर अमावस तक हमारे यहां ‘श्राद्ध-पक्ष’ मनाया जाता है। इस दौरान पूर्वजों को याद किया जाता है और यदि किसी पूर्वज की मृत्युतिथि याद ना हो तो उनके लिए ‘सर्व पितृ अमावस्या’ को श्राद्ध कर्म किया जाता है। इस दिन पितरों के पसंद के भोजन की धूप दी जाती है, अर्थात् इन्हें अग्नि को समर्पित किया जाता है। इससे जो गंध निकलती है उसके बारे में मान्यता है कि पितृ की आत्मा उससे तृप्त होती है।

ऐसा नहीं है कि पूर्वजों को सिर्फ हमारे देश में ही याद किया जाता है। दुनिया भर में अपने पूर्वजों को याद करने और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का रिवाज है। हमारे पड़ोसी देश चीन में ‘जिंग मिंग’ नाम से अपने पूर्वजों को याद किया जाता है। इस दिन वे अपने दिवंगतों की कब्र पर जाकर उसे फूलों से सजाते हैं, पूर्वजों को ठंडा खाना खिलाते हैं और खुद भी खाते हैं। इसलिए इसे ‘ठंडे भोजन का दिन’ भी कहा जाता है।

जर्मनी में नवंबर की पहली तारीख शोक मनाने के लिए तय है। प्रोटेस्टेंट ईसाई रविवार को शोक मनाते हैं, वहीं कैथोलिक एक नवंबर को ‘सेंट्स डे’ के रूप में अपने पूर्वजों को याद करते हैं। वे उनकी कब्र पर जाकर मोमबत्तियां जलाते हैं और खाना खाने के पूर्व उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं। इसी प्रकार कई देशों में ‘घोस्ट फेस्टिवल’ मनाया जाता है जिसमें पूर्वजों को उनका पसंदीदा खाना परोसा जाता है। इस्लाम में ‘शब-ए-बारात’ जैसी परंपराएं भी अपने पूर्वजों के प्रति आदर भाव ज्ञापित करने के लिए मानी जाती है।

प्रतिवर्ष हिंदू धर्म मानने वाले लोग ‘श्राद्ध-पक्ष’ में अपने-अपने पूर्वजों को याद करते हैं और इस तरह सामाजिक,पारिवारिक तथा व्यक्तिगत पहचान देने के लिए श्राद्ध कर्म के रूप में उनका धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। यह मात्र एक कर्मकांड न होकर एक सच्ची भावनात्मक श्रद्धांजलि होती है क्योंकि आज हम जो भी हैं वह उन्हीं की देन है। अपने पितरों के माध्यम से ही आपने इस धरती पर जन्म लिया है। उन्हीं से आपको यह रंग, रूप, गुण व्यवहार आदि सब मिला है। यह जैविक विरासत है जो आपको अपने पूर्वजों से मिली है।

इस विरासत को विज्ञान की भाषा में कहें तो आपको अपने माता-पिता से जींस मिले हैं जिन्हें जीव विज्ञान में ‘डीएनए’ कहा जाता है। यह ‘डीएनए’ सबका अपना-अपना विशिष्ट होता है। इसी से आपकी पहचान है। आपके जैविक माता-पिता की पहचान करने का तरीका भी ‘डीएनए फिंगर-प्रिंटिंग’ कहलाता है। विवाद की स्थिति में इस तकनीक से ही सही माता-पिता की पहचान होती है।

पूर्वजों को धन्यवाद ज्ञापित करने के इस अवसर पर क्या हमें उन जीवों को याद नहीं करना चाहिए जिनके कारण हमारा अस्तित्व है, जिनके कारण हमें रोटी, कपड़ा और मकान मिलता है, जिनके होने से हम अपने पितरों को स्वादिष्ट पदार्थों की धूप देकर उन्हें तृप्त करते हैं? क्या हम यह नहीं जानना चाहेंगे कि किन पौधों से हमें दाल-चावल और आटा मिलता है? जिनके कारण हम अपने पूर्वजों की तस्वीरों का श्रृंगार तरह-तरह के फूलों के हार चढाकर करते हैं या फिर उनकी कब्रों को फूलों से सजाते हैं? उन जीवों के अर्थात ‘फूलधारी’ पौधों के पूर्वज कौन थे?

‘सर्व पितृ अमावस्या’ के दिन कुछ बात उनकी भी कर लें। यह उनके प्रति हमारी सच्ची, भावभीनी श्रद्धांजलि होगी। मोटे तौर पर इस दुनिया में दो तरह के पेड़-पौधे नजर आते हैं। ठंडे ऊंचे पहाड़ों पर चीड़, देवदार और स्प्रूस आदि के घने जंगलों में पाए जाने वाले ऐसे पेड़ हैं जिन पर कभी फूल और फल नहीं लगते। हम इन्हें ‘गैर-फूलधारी’ पौधे कहते हैं। दूसरे प्रकार के पौधे जैसे गुलाब, गेंदा, गन्ना, सूरजमुखी, गेहूं, मक्का, मूंगफली, तुअर, मूंग, चना आदि हैं। इन सब पौधों पर सुंदर रंगीन छोटे-बड़े फूल खिलते हैं और फल भी बनते हैं जो हमारे भोजन का मुख्य आधार है। यानी दाल, चावल और तरह-तरह के फल और सब्जियां। पौधों के इस समूह को ‘फूलधारी’ अर्थात फूल धारण करने वाले पौधे कहा जाता है। दुनिया भर में लगभग 3 लाख प्रकार के ‘फूलधारी’ पौधे पाए जाते हैं।  

इन ‘फूलधारी’ पौधों के पूर्वज कौन थे जिनके उपकार से हमें ये उपहार मिलते हैं। ‘फूलधारी’ पौधों के पूर्वजों की पहचान हेतु वैज्ञानिकों ने बहुत प्रयास किए हैं। इस संदर्भ में किए गए सैकडों वर्षों के अध्ययन से पता चला है कि आज के ‘शंकुधारी’ पौधे, जैसे – देवदार और चीड़ के वंशज ‘फूलधारी’ पौधों के वंशजों से लगभग 30 करोड़ 50 लाख वर्ष पूर्व ही अलग हो गए थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि ‘फूलधारी’ पौधे साढ़े 30 करोड़ लाख वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे। इसका आशय यह है कि वर्तमान ‘शंकुधारी’ एवं ‘फूलधारी’ पौधों के साझा पूर्वज उसी समय पाए जाते थे। आकार और रूप-रंग की दृष्टि से और आणविक विज्ञान से मिले प्रमाण यह सुझाते हैं कि ‘एंबोरेला ट्राइकोपोडा’ नामक एक झाड़ी और जल-कुमुदनियां वर्तमान ‘फूलधारी’ पौधों के बहुत करीबी वंशजों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

‘एंबोरेला’ काष्ठीय प्रकृति की एक झाड़ी है जिससे पता चलता है कि ‘फूलधारी’ पौधों के पूर्वज भी काष्ठीय थे। अन्य आधार ‘फूलधारियों’ में आज के पौधों में पाए जाने वाला प्रभावी जल-प्रवाह तंत्र भी नहीं पाया जाता है। ‘एंबोरेला’ जैसे पूर्वज के आधार पर कुछ शोधकर्ताओं का यह मानना है कि शुरुआती ‘फूलधारी’ पौधे झाड़ियां थे जिन पर छोटे-छोटे फूल आते थे और सरल प्रकार की जल-प्रवाही कोशिकाएं होती थीं।

‘फूलधारी’ पौधों के इस समूह में वर्तमान में तीन लाख जीवित प्रजातियां हैं। ये एक ऐसे सर्वाधिक नूतन साझा पूर्वज से विकसित हुई हैं जो आज से लगभग 22 से 14 करोड़ वर्ष पूर्व पाया जाता था। तो, आज के इस दिन हम हमारे दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता को याद करने के साथ ही ‘फूलधारी’ पौधों के इस पूर्वज को भी याद करें। इसका भी धन्यवाद ज्ञापित करें। इसी की वर्तमान संतानों के कारण हमारी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। ‘सर्व पितृाय नमः’ के साथ ही ‘सर्व पितृ वृक्षाय नमः’ का भी  स्मरण करें। (सप्रेस)

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