अशीष कोठारी

आम चुनाव की इस बेला में कमोबेश हरेक रंगों-झंडों वाली राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए हैं, ताकि सभी खास-ओ-आम को पता चल जाए कि वे अगले पांच साल में क्या-क्या करने और क्या नहीं करने वाली हैं। ऐसे में ठेठ ग्रामीण, मैदानी इलाकों में सक्रिय करीब 85 संगठनों, संस्थाओं के ‘विकल्प संगम’ ने अपनी बात रखने की खातिर अपना घोषणापत्र भी जारी किया है। क्या है, इस घोषणापत्र में?

आम चुनाव में लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने घोषणा-पत्र तैयार किये हैं, लेकिन अपेक्षाओं के विपरीत भारत की 42 प्रतिशत जनसंख्या, यानी युवाओं और बच्चों के मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं है। कुछ दलों के घोषणा-पत्रों में टोटकों की तरह बच्चों के मुद्दे रखे तो गये हैं, लेकिन उन पर कोई सार्वजनिक बहस नहीं की जा रही।  

देश का संविधान कहता है कि लोकतंत्र सबका है और राज्य को सभी के लिए समान विचार अपनाना चाहिए, लेकिन हमारे राजनीतिक दलों और राजनेताओं ने इसे ऐसे समझा है कि जो मतदान करेगा या मतदान को प्रभावित करेगा, उसके बारे में उसी अनुपात में बात की जायेगी। इसलिये आम चुनाव हो या कोई अन्य चुनाव, बच्चों और युवाओं के मुद्दे गौण हो जाते हैं।

होना तो यह चाहिये कि जो वर्ग अपना मत नहीं दे सकता वह सरकारों की प्राथमिकता में हो। जब यही राजनेता और राजनीतिक दल बच्चों को कल का नागरिक बताते नहीं थकते और उनके विकास की दलीलें देते हैं तो यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों पर, उनके मुद्दों पर बात करें। बच्चे, जितने कल के नागरिक हैं उतने ही आज के भी हैं।  

दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति स्व. नेल्सन मंडेला कहते थे कि किसी भी देश की प्रगति का अंदाज़ा इस बात से लगता है कि वहां बच्चों की हालत क्या है। हमारे देश में बच्चों की हालत नाज़ुक है। 30 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं और ‘इंटरनेशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च इंस्टीटयूट’ (इफ्प्री) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या बहुत अधिक है।

अफ़सोस कि कुपोषण को समूल नष्ट करना राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं है, जबकि कुपोषण को खत्म करना उनकी पहली प्राथमिकता में होना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि कुपोषण एक सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक कुचक्र से शुरू होता है, जिसे पांच साल में खत्म नहीं किया जा सकता, उसके लिए सतत प्रयासों की जरुरत है, लेकिन कम-से-कम इसे समाप्त करने की इच्छाशक्ति तो जताई ही जा सकती है।  

हाल ही में भोपाल में युवाओं और बच्चों ने “सुरक्षित शहर परियोजना” के तहत बनाये गये “उड़ान यूथ फेडरेशन” के माध्यम से अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को राजनीतिक दलों के सामने रखा। युवाओं ने उनके रोज़मर्रा से जुड़े ऐसे प्रश्नों को सामने रखा जो आमतौर पर राजनीतिक दलों की चिंता में शामिल नहीं होते। युवाओं ने कहा कि हम प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन जब परीक्षा देकर आते हैं तो पेपर लीक हो जाता है !!

नर्सिंग की एक छात्रा अलका कुशवाह ने कहा कि पिछले चार सालों से हमारी परीक्षा ही नहीं हुई तो हम कैसे आगे बढें? अधिकाँश लोग अवसाद में हैं। साक्षी वर्मा ने कहा कि मध्यप्रदेश में ‘सीखो-कमाओ-योजना’ आई, हमने बहुत उत्साह से उसके लिये आवेदन किया, हमारा चयन भी हो गया, लेकिन लाभ ही नहीं मिला। उन्होंने सवाल उठाया कि फिर ऐसी योजनाओं का क्या औचित्य?

तरुण ने कहा कि अभी तक छह से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निजी शिक्षण संस्थानों में निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है, लेकिन जैसे ही ये बच्चे आठवीं कक्षा पढ़ चुके होते हैं, उसके बाद उन्हें शुल्क देना होता है, जिसके चलते वे बड़े पैमाने पर ड्रापआउट हो जाते हैं। जीनत ने कहा कि सरकार को ध्यान रखना चाहिये कि आवास योजनाओं के तहत बनने वाले आवास दिव्यांगों और बच्चों के अनुकूल हों।

हर्ष कुशवाहा ने बच्चों और युवाओं को नशा बेचे जाने संबंधी प्रश्न उठाया। उन्होंने कहा कि एक ओर तो हमारे देश में ‘किशोर न्याय अधिनियम-2015’ के तहत बच्चों और युवाओं को नशा न बेचने का प्रावधान है, दूसरी ओर यह बदस्तूर बेचा जा रहा है। इस पर राजनीतिक दलों को पहल करना चाहिये। नमन शर्मा ने कहा कि वर्तमान में जो ‘नशा मुक्ति केंद्र’ हैं वे निजी हैं, जबकि शासकीय होना चाहिये, ताकि बच्चों को नशे से निकाला जा सके।  

सोनिया प्रजापति ने माहवारी का प्रश्न रखते हुए कहा कि लड़कियों के लिए कॉलेज और स्कूल में तो माहवारी पैड की मशीनें लगी हैं, जहाँ सस्ते दाम में पैड मिल जाते हैं, लेकिन शहरी बस्तियों और ग्रामीण क्षेत्रों में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह सभी जगह होना चाहिये। पल्लवी ने कहा कि शासकीय स्कूल और कॉलेज में शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं जिससे बच्चों को ट्यूशन लगवानी होती है और नतीजे में अनावश्यक खर्च बढ़ जाता है।  

युवाओं ने उपरोक्त मुद्दों के अलावा एक ‘आकांक्षा पत्र’ भी तैयार किया जिसकी मार्फत समावेशी-शिक्षा, बाल-संरक्षण, बाल-सहभागिता एवं स्वास्थ्य व पोषण से जुडी मांगों को राजनीतिक दलों के समक्ष रखा। मध्यप्रदेश के 30 जिलों के लगभग 3000 युवाओं ने मिलकर यह ‘आकांक्षा-पत्र’ बनाया है जिसे 18 राज्यों में भेजा गया है। इस पत्र के माध्यम से शिक्षा पर ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का छह फीसदी और बाल-संरक्षण पर तीन फीसदी खर्च करने पर जोर दिया गया है।  

बाल लैंगिक शोषण के बढ़ते प्रकरणों के संदर्भ में ‘पाक्सो कोर्ट’ बढाने और ट्रायल को त्वरित करने के साथ ही बच्चों को सहायक उपलब्ध कराने की मांग सामने रखी गई। बाल-श्रम, जो कि ‘संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौता-1989’ लागू होने के बाद से ही देश में एक प्रमुख मुद्दा रहा है, पर एक सार्थक पहल की दरकार है। भारत में अभी सालाना एक लाख बच्चे गुम हो रहे हैं, इन्हें ढूँढने और मानव दुर्व्यापार पर रोक लगाने के लिए भी युवाओं ने चिंता जाहिर की।

युवाओं ने अपनी आकांक्षाओं को एक चर्चा के माध्यम से सामने रखा। इस चर्चा में मौजूद लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के (भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, आप और सीपीआई) प्रतिनिधियों ने कहा कि बच्चों की शिक्षा और सुरक्षा राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिये। बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण के मुद्दे पर सभी दल एकमत नज़र आये। यदि राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में युवाओं के मुद्दे शामिल हों तो यह निश्चित ही एक सार्थक पहल मानी जायेगी।  

हालाँकि भारत द्वारा 1992 में अंगीकृत किये गये ‘अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते’ (यूएनसीआरसी) के 35 बरस बाद भी किसी राजनीतिक दल ने अपने घोषणापत्र में “बाल अधिकार” शब्द का उपयोग नहीं किया है। आश्चर्यजनक है कि किसी दल ने अभी तक “सतत विकास लक्ष्यों” (एसडीजी) का जिक्र भी अपने घोषणा-पत्रों में नहीं किया है। यही नहीं भारत की ‘राष्ट्रीय बाल नीति-2013’ और बच्चों के लिए ‘राष्ट्रीय कार्ययोजना-2016’ जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों का उल्लेख भी नहीं किया है, जो कि बच्चों और युवाओं के मुद्दों पर राजनीतिक दलों की उदासीनता प्रदर्शित करते हैं।    

चुनाव प्रचार के दौरान बच्चों की बात करते समय राजनीतिक दल और राजनेता यह क्यों भूल जाते हैं कि जिस विकास की चिड़िया को वे अपने भाषणों में दिन भर उड़ाते हैं, उसे मापने का सबसे बड़ा पैमाना बच्चे ही हैं। बच्चों की दशा और दिशा ही किसी भी प्रगति का सही मापदंड है और देश इस मामले में चूकता नजर आ रहा है। चुनावी वायदा पत्रों में बच्चों के प्रमुख मुद्दों को तरजीह न मिलना एक खतरनाक संकेत है। ‘नोबल पुरस्कार’ विजेता ग्रेबिल मिस्ट्राल ने कहा था कि “हम अनेक भूलों और गलतियों के दोषी हैं, लेकिन हमारा सबसे गंभीर अपराध है, बच्चों को उपेक्षित छोड़ देना, जो कि जीवन का आधार होते हैं।” आम चुनावों में बच्चों के मुद्दों को छोड़कर, उन पर यथोचित प्रतिक्रिया न देकर ऐसा लगता है कि राजनीतिक दल एक एतिहासिक अपराध दोहराने जा रहे हैं। (सप्रेस)

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