अनिल त्रिवेदी

इन्दौर लोकसभा क्षेत्र के चुनाव परिणाम में कौन विजेता होगा? इस पर किसी भी मतदाता और राजनैतिक व्याख्याकार के मन में कोई जिज्ञासा, संशय या सवाल ही नहीं है पर नोटा किस संख्या तक मतसंख्या के रूप में पहुंचेगा इस सवाल पर ही हर कोई गुत्थमगुत्था है।इस अनोखे अंदाज में नोटा एक राजनैतिक सवाल से ज्यादा राजनैतिक बवाल के रूप में खड़ा हो गया है। नोटा को लेकर कोई भी भाष्यकार आत्मविश्वास के साथ कहने की या निश्चित संख्या का अनुमान बताने की स्थिति में नहीं है।

दुनिया के बाकी हिस्सों की तरह, भारत भी कई संकटों का सामना कर रहा है : सत्तावादी राजनीतिक ताकतों का उदय, धार्मिक व जातीय दमन और संघर्ष, पारिस्थितिकी की बदहाली, बेरोजगारी आदि। इस बीच भारत सरकार अपनी नीतियों और कार्यक्रमों की आलोचना करने वाले कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और वकीलों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज करके, विपक्षी सांसदों को थोक में निलंबित करके और विपक्षी पार्टी के चुने गये मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तार करके लोकतांत्रिक आवाज़ों को दबाने की कोशिश कर रही है।

उपरोक्त संदर्भ में 85 जन-आंदोलनों और नागरिक समाज संगठनों द्वारा न्यायसंगत, समतामूलक और टिकाऊ भारत के लिए ‘जन-घोषणापत्र’ तैयार करने का एक महत्वपूर्ण प्रयास किया गया है। ये समूह एक दशक पुराने राष्ट्रीय मंच ‘विकल्प संगम’ के तहत एकत्रित हुए हैं जो जैविक खाद्य उत्पादन, विकेंद्रीकृत जल संचयन और प्रबंधन, समुदाय-आधारित ऊर्जा उत्पादन, सम्मानजनक आवास और बस्तियां, सार्थक शिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा, स्थानीय रूप से सशक्त निर्णय लेने, विनाशकारी परियोजनाओं के खिलाफ प्रतिरोध पर काम करने वाली सैकड़ों पहलों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस ‘जन-घोषणापत्र’ का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य भारत में 2024 के आम चुनाव हैं। नागरिक समाज को लगता है कि उपरोक्त मुद्दों को उठाना ‘भारतीय जनता पार्टी’ के उस विशाल किले में सेंध लगाने के लिए महत्वपूर्ण है जिसे धार्मिक और आर्थिक रूप से दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में उसने हासिल किया है। घोषणापत्र में बड़ी संख्या में सिफारिशें या मांगें राजनीतिक सत्ता में बैठे लोगों या इसकी आकांक्षा रखने वालों पर केंद्रित हैं, लेकिन कई खुद नागरिक समाज के लिए भी हैं।

अर्थव्यवस्था को बदलना

‘सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ के अनुसार बेरोजगारी के बहुत गंभीर संकट (2000 के दशक की शुरुआत में लगभग 5.5 प्रतिशत से बढ़कर 2023 के अंत में लगभग 9 प्रतिशत तक) को ध्यान में रखते हुए, घोषणापत्र छोटे विनिर्माण, शिल्प, मूल्य-वर्धित उपज पर प्राथमिकता से ध्यान देने का आग्रह करता है। कृषि, वानिकी, मत्स्यपालन, पशुपालन और विकेन्द्रीकृत सेवाएं सम्मानजनक और उत्पादक आजीविका प्रदान कर सकते हैं। इन्हें व्यवहारिक बनाने के लिए हस्तनिर्मित और छोटे विनिर्माण के माध्यम से उत्पादित की जा सकने वाली सभी वस्तुओं और सेवाओं को, बड़े उद्योगों और संस्थानों की बजाय, उनके लिए आरक्षित किया जाना चाहिए जिनमें मशीनीकरण के कारण रोजगार में कमी हुई है।

‘विकल्प संगम’ ने अपनी वेबसाइट पर ऐसे प्रयासों के सैकड़ों उदाहरण संकलित किए हैं जिनमें ग्रामीण पुनरुद्धार की कहानियां हैं, जिनके कारण पलायन में कमी आई है और कई मामलों में शहरों और बड़े उद्योगों से गांवों और छोटे विनिर्माण या शिल्प की ओर फिर से लोग आ रहे हैं। कृषि या अन्य भूमि-आधारित व्यवसायों की दर्जनों कहानियां हैं, जिन्हें कभी-कभी ‘होमस्टे-पर्यटन’ जैसे नए व्यवसायों के साथ जोड़ दिया जाता है, जो लाभकारी होते हैं।

ऐसे उदाहरण युवाओं तक नहीं पहुंच पाते। इसका एक कारण है, ऐसी आर्थिक नीतियों का निरंतर वर्चस्व, जिसमें बड़े उद्योग को भारी सब्सिडी देना और छोटे या हस्तनिर्मित उत्पादन के लिए कुछ कम प्रयास करना शामिल है। पिछले कुछ दशकों में भारत में आर्थिक असमानता काफी बढ़ी है। ‘विश्व असमानता रिपोर्ट –2022’ के अनुसार सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की संपत्ति का 57 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि ’निचले’ 50 प्रतिशत के पास सिर्फ 13 प्रतिशत। 1991 के तथाकथित ’आर्थिक सुधारों’ से पहले, इनका हिस्सा 40 प्रतिशत से कुछ कम था।

लोकतंत्र को मजबूत करना

‘विकल्प संगम’ के घटकों को एहसास है कि आर्थिक स्थानीयकरण, आत्मनिर्भरता, सम्मानजनक आजीविका और सामूहिक उत्पादन के लिये जरूरी हैं, कुछ मूलभूत राजनीतिक परिवर्तन। भारतीय राज्य की बढ़ती अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए घोषणापत्र वास्तविक स्वराज की ओर बढ़ने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने के सुझाव देता है। ध्यान रखें, तीन दशक पहले राजनीतिक विकेंद्रीकरण की दिशा में कुछ प्रगतिशील संवैधानिक और कानूनी बदलाव किये गये थे, लेकिन उन्हें अधूरा छोड़ दिया गया था।  

इस संदर्भ में विशेष महत्व 73वें और 74वें संविधान संशोधनों का पूर्ण कार्यान्वयन का है, जिन्होंने ग्रामीण और शहरी समाज को कुछ शक्तियां प्रदान कीं, लेकिन इससे भी आगे बढ़कर, लोकतंत्र के अधिक मौलिक या प्रत्यक्ष रूपों को प्राप्त करने में मदद करने के लिए वित्तीय और कानूनी शक्तियों का हस्तांतरण भी किया। सामूहिक संसाधनों पर सामुदायिक प्रशासन और जमीन, प्रकृति, ज्ञान, प्रौद्योगिकी का प्रबंधन भी इसके लिए महत्वपूर्ण हैं।

चुनाव आयोग, जांच एजेंसियों और मीडिया जैसी स्वतंत्र मानी जाने वाली संस्थाओं के कामकाज में खुलेआम घुसपैठ और हस्तक्षेप को देखते हुए उन्हें राज्य से दूर करने के लिए कदम उठाने की मांग की गई है। पिछले कुछ वर्षों में शांतिपूर्ण असहमति पर नाजायज कार्रवाई पर टिप्पणी करते हुए घोषणापत्र में ‘गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम’ जैसे बार-बार दुरुपयोग किए जा रहे कानूनों को निरस्त करने की मांग की गई है।

सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन

भारत विभिन्न प्रकार की अल्पसंख्यक आबादी (विशेष रूप से मुसलमानों, ईसाइयों, आदिवासियों या जनजातीय लोगों) की पारंपरिक और नई कमजोरियों के आधार पर अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय संघर्ष,  घृणास्पद भाषण और धार्मिक असहिष्णुता से ग्रस्त है। घोषणापत्र में संवाद के मंच स्थापित करने और सह-अस्तित्व को बहाल करने, लंबे समय से चली आ रही समन्वयवादी परंपराओं को पुनर्जीवित करने का आग्रह किया गया है।

घोषणापत्र सभी रूपों में सांस्कृतिक विविधता की मान्यता, निरंतरता और पुनरुद्धार का आग्रह करता है। इसके लिए यह शैक्षिक प्रणाली में बदलाव का भी सुझाव देता है, जो दुर्भाग्य से एकरूपता के लिए एक मजबूत शक्ति बन गई है। उदाहरण के लिए शिक्षण में भारत की 780 जीवित भाषाओं को सक्षम बनाने की बजाय 20-25 राज्य-मान्यता प्राप्त भाषाओं का वर्चस्व है। घोषणापत्र मातृभाषा आधारित, गतिविधि-केंद्रित, सांस्कृतिक और पारिस्थितिकी की जडों से जुडी शिक्षा की सिफारिश करता है और शिक्षा के लिए ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का 6 प्रतिशत आरक्षित करने का सुझाव देता है।

घोषणापत्र में कहा गया है कि लोग निजी चिकित्सा देखभाल का सहारा लेने के लिए मजबूर हो रहे हैं और यह घरेलू खर्च पर एक बड़ा दबाव है। इसमें आग्रह किया गया है कि ‘जीडीपी’ का कम-से-कम 3 प्रतिशत स्वास्थ्य के लिए रखा जाए, जिसमें एक मजबूत सार्वजनिक क्षेत्र को वापस लाना, सामुदायिक क्षमताओं को बढ़ावा देना और भारत की कई पारंपरिक और नई स्वास्थ्य प्रणालियों को बढ़ावा देना शामिल हो। यह पर्याप्त पोषण, सुरक्षित पानी और स्वस्थ जीवन के अन्य निर्धारकों के माध्यम से खराब स्वास्थ्य को रोकने को प्राथमिकता देने के लिए भी कहता है।

पारिस्थितिकी सुरक्षा की ओर

भारत में सैकड़ों प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं, 65 प्रतिशत से अधिक भूमि ख़राब हो गई है, अधिकांश जलस्रोत बुरी तरह प्रदूषित हैं, दुनिया के कई सबसे अधिक वायु-प्रदूषित शहर यहां हैं। कचरे की एक बड़ी समस्या, भोजन में कीटनाशकों जैसे विषाक्त पदार्थ और पानी सुरक्षित स्तर से काफी नीचे है और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव पहले से ही लाखों लोगों को प्रभावित कर रहे हैं। लोगों के संघर्षों और सरकार के भीतर कुछ प्रगतिशील तत्वों द्वारा 1970 के दशक में लाए गए कई कानूनों और नीतियों को अब व्यवस्थित रूप से कमजोर किया जा रहा है, ताकि कॉर्पोरेट्स को भूमि, जंगल, पानी और अन्य संसाधनों को हड़पने में सक्षम बनाया जा सके।

इसके मद्देनजर घोषणापत्र पारिस्थितिकी क्षरण को उलटने और प्रकृति की रक्षा के लिए कार्रवाई का आग्रह करता है। इसमें एक ‘राष्ट्रीय भूमि और जलनीति’ शामिल है, जो महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी मूल्यों (जैसे पानी और मिट्टी) की रक्षा करती हो। ‘वन अधिकार अधिनियम’ की तरह यह पारिस्थितिकी तंत्र पर सामूहिक अधिकारों के माध्यम से वन्य-जीवन और जैव-विविधता के प्रभावी और समुदायिक नेतृत्व वाले संरक्षण की मांग करता है।

घोषणापत्र 2040 तक भारत की खेती को जैव-विविधता पर आधारित तरीकों की तरफ पूर्ण रूप से परिवर्तित करने, खतरनाक विषाक्त उत्पादों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने और उत्पादन में भारी कटौती का आग्रह करता है। घोषणापत्र में प्लास्टिक और अन्य गैर-जैविक सामग्रियों पर प्रतिबंध, उन्हें पर्यावरण-संवेदी सामग्रियों से प्रतिस्थापित करने, समुदायों द्वारा प्रबंधित विकेंद्रीकृत जल-संचयन और प्रबंधन का सुझाव दिया गया है। विकेन्द्रीकृत नवीकरणीय ऊर्जा, 2030 तक जीवाश्म ईंधन और परमाणु ऊर्जा को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना और उर्जा की फिजूलखर्ची पर अंकुश लगाना प्राथमिक मांगे हैं।

घोषणापत्र ‘पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन’ और वन मंजूरी प्रक्रियाओं को कमजोर करने के कदम वापस लेने और परियोजनाओं के प्रभाव मूल्यांकन को शुरू करने के लिए कहता है। एक ‘राष्ट्रीय पर्यावरण आयुक्त’ की सिफारिश की गई है जिसे उसी स्वतंत्र, संवैधानिक हैसियत का होना चाहिए जैसे ‘चुनाव आयुक्त,’ ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग’ या ‘नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक’ हैं।

क्या कोई सुन रहा है?

‘विकल्प संगम’ का घोषणापत्र एक विस्तृत 25 पेज का दस्तावेज़ है। भारत के सभी क्षेत्रों में इसे पढा जा सके, इसलिये इसका कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी किया गया है। घोषणापत्र जमीनी स्तर पर चल रहे संघर्षों से उभरे प्रत्यक्ष और जवाबदेह लोकतंत्र, आर्थिक आत्मनिर्भरता, पारिस्थितिक जिम्मेदारी और सामाजिक-सांस्कृतिक समानता की धारणाओं से युक्त है, लेकिन क्या इसे कोई सुनेगा? विशेष रूप से, क्या वे लोग जिनके हाथों में फिलवक्त अत्यधिक, केंद्रीकृत शक्ति है, सुनने और समझने के इच्छुक और सक्षम होंगे? क्या घोषणापत्र वर्तमान निराशाजनक प्रतीत होने वाली राजनीतिक और आर्थिक तस्वीर में कुछ बदलाव ला पाएगा? (सप्रेस) (बाबा मायाराम द्वारा अनुवादित) 

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें