अरविन्द सरदाना

पिछले दिनों ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने दुनियाभर में कोविड-19 से हुई मौतों के आंकडे जारी किए हैं। इनमें भारत के आंकडे भी शामिल हैं, लेकिन केन्द्र सरकार ने उन्हें ‘बढा-चढाकर दिए गए आंकडे’ कहकर खारिज कर दिया है। क्या है, इन आंकडों की असलियत? इसकी पडताल करता अरविन्द सरदाना का यह लेख।

हाल ही में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ ने कोविड—19 के दौरान हुई मौतों के आँकड़े प्रस्तुत किए हैं। इनमें भारत में मौतों का आंकड़ा 47 लाख बताया गया है, जबकि हमारा घोषित आकड़ा 5 लाख का है। इसी पर विवाद है कि ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ का अनुमान लगाने का तरीका गलत है और दूसरी तरफ आरोप है कि हम ‘अंडर रिपोर्टिंग’ कर रहे हैं। इस संदर्भ में हमें जुमलों में फंसने की बजाय विवाद की जड़ को समझना होगा। 

किसी भी देश में महामारी के समय सभी मौतें पंजीकृत नहीं होतीं। कई देशों में पंजीकृत करने का तंत्र मज़बूत है और वे अपने आँकड़े सुधार लेते हैं, पर हमारे देश में यह सिस्टम आधे राज्यों में कमज़ोर है। हमारे यहाँ ‘सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम’ (सीआरएस) है, जिसके अंतर्गत मौतों को पंजीकृत किया जाता है, परन्तु कुछ राज्यों में सामान्य वर्षों में तीस से चालीस प्रतिशत मौतें पंजीकृत नहीं होती हैं।

सरकार और शोधकर्ता मौतों की वास्तविक संख्या के लिए सरकार की दूसरी रपट ‘सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम’ (एसआरएस) को आधार मानते हैं। दोनों की तुलना करने पर समझ आता है कि कई राज्यों में ‘सीआरएस’ के अनुसार मौतों का पंजीकरण कितना कम है। उदाहरण के लिए  उत्तरप्रदेश में सामान्य वर्षो में केवल 63 प्रतिशत मौतें पंजीकृत हो पाती हैं। इस समय सरकार ने 2020 की ‘सीआरएस’ की रपट जारी कर दी है, परन्तु ‘एसआरएस’ की रपट नहीं आई है। 2021 की ‘सीआरएस’ रपट का भी इंतजार है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ और शोधकर्ता कुछ राज्यों के आँकड़ों को आधार मानकर अनुमान लगाते हैं और विवाद की पहली जड़ यही है।

इस बात को लेकर भी विवाद है कि हमने कोविड संबंधित मौतों, जैसे – ऑक्सीजन की कमी, कोविड के कारण पुरानी बीमारी आदि का व्यवस्थित आंकलन नहीं किया है। इस कारण हमारे आँकड़े कम नज़र आते हैं।

किसी भी महामारी के दौरान हुई मौतों का अनुमान लगाना ‘एपिडेमियोलॉजी’ या ‘महामारी विज्ञान’ का क्षेत्र है। दुनिया भर के शोधकर्ता इसमें भाग लेते हैं। इसमें दो मूल बातों की खोज की जाती है, एक – यदि महामारी नहीं हुई होती तो उस दौरान सामान्य रूप से उस जनसंख्या में कितनी मौतें होतीं? पिछले वर्षों के आँकड़े देखकर यह अंदाज़ लगाया जाता है। दूसरा – महामारी के दौरान कुल कितनी मौतें हुईं इसका अनुमान लगाना। इन दोनों आँकड़ों का अंतर हमें अतिरिक्त मौतों का अनुमान देता है।   

जहाँ प्रामाणिक स्रोत उपलब्ध नहीं होता वहाँ कितनी मौतें हुईं इसका अनुमान अलग-अलग स्रोतों पर आधारित होता है। यह सब ‘सांख्यिकीय विज्ञान’ का उपयोग करके करते हैं और स्रोत की गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं। इनके अनुमान लगाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, इसलिए शोधकर्ता अपने तथ्‍य और तरीके ‘मेडिकल जरनल’ में प्रकाशित करते हैं। वैज्ञानिक बहसों के लिए यह पारदर्शी तरीके से उपलब्ध रहते हैं। इसमें एक दूसरे की आलोचना भी होती है।

इस संबंध में ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की रपट को कई अन्य लेखों के साथ देखना चाहिए। उदाहरण के लिए प्रभात झा एवं साथियों का शोधपत्र ‘साइंस जरनल’ में छपा है, जहाँ उन्होंने कहा है कि कोविड के दौरान भारत में 32 लाख अतिरिक्त मौतें हुई हैं। इसी प्रकार एक अन्य लेख, जो ‘लांसेट जरनल’ में छपा है, में कहा गया है कि भारत में अतिरिक्त मौतें 40 लाख के करीब हैं। मुराद बानाजी एवं आशीष गुप्ता का अध्ययन इसे 38 लाख बताता है। ऐसे कई लेख हैं जिनका अनुमान 27 लाख से लेकर 50 लाख तक का है।

इनके डेटा का आधार एवं अनुमान लगाने के तरीकों में भिन्‍नता है, परंतु ये सभी पारदर्शी तरीके से अपना डेटा एवं शोध का तरीका प्रकाशित करते हैं। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ का अध्ययन इन में से एक है, जिसका अनुमान 47 लाख का है। यदि सबसे कम को भी मानें तो यह हमारे घोषित आँकड़ों से पाँच-छह गुना अधिक है। क्या ये सभी गलत हैं या एकतरफा हैं?

भारत में इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोविड महामारी का फैलाव पहले हो गया था और टीकाकरण का मुख्य अभियान बाद में आया। शोधकर्ता तुलनात्मक रूप से डेटा का उपयोग करते हैं और उन्हें अलग-अलग देशों में महामारी से हो रही मौतों का ट्रेंड नज़र आता है। ऐसा नहीं है कि भारत के लोगों की कोई विशेष प्रतिरोधक क्षमता हो।

बहस के लिए उचित कदम यह होगा कि विशेषज्ञ इन लेखों का जवाब दें और यह स्‍पष्‍ट करें कि इन शोधकर्ताओं के तरीके कहाँ अनुचित हैं एवं विज्ञान की पत्रिकाओं में प्रकाशित करें। अख़बार में ऐसे कई लेख छपे हैं जो ‘महामारी विज्ञान’ को ही खारिज कर रहे हैं। उनका कहना है कि उचित डेटा के अभाव में यह गणना करना संभव ही नहीं है। अखबार के ये लेखक ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की नीतियों से ज़्यादा नाराज़ हैं और उसकी रपट की वैज्ञानिक आलोचना प्रस्‍तुत नहीं कर रहे हैं। वे विभिन्न शोधकर्ताओं का जवाब भी नहीं दे रहे हैं।

यदि सरकार ‘एसआरएस’ का डेटा जल्द घोषित करती है तो यह एक आधार बन सकता है जिसे देखते हुए शोधकर्ता अपने तरीकों पर विचार कर सकते हैं। सरकारी समिति अपनी एक स्वतंत्र वैज्ञानिक रपट प्रस्तुत कर सकती है, जो इस शोध को आगे बढा सकता है। यदि डेटा का अभाव है तो ‘एसआरएस’ के आधार पर कोविड मौतों की विशेष रपट बन सकती है।

यह बात भी ध्यान रखना होगी कि सभी शोधपत्र एक अनुमान प्रस्तुत करते हैं और सभी में एक ‘रेंज ऑफ़ एरर’ या ‘त्रुटि की सीमा’ होती है। यह विज्ञान का तरीका है। हम इन्हें विनम्रता से देखें और सच को परखने, ढूँढ़ने की शक्ति बनाएँ। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की अन्य नीतियों, जैसे – चीन के साथ नरमी का व्यवहार आदि से हमारा मतभेद हो सकता है, पर यहाँ बहस का मुद्दा यह नहीं है।(सप्रेस)

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