सचिन श्रीवास्तव

दुनियाभर के युवाओं में आज भी खासे लोकप्रिय चे ग्वेवारा को अमेरिका की ‘टाइम’ पत्रिका ने बीसवीं सदी के सौ ‘सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों’ में से एक माना है। आखिर कैसे बनते हैं, चे सरीखे युवा क्रांतिकारी? उनके आसपास की राजनैतिक, सामाजिक परिस्थितियां कैसी होती हैं? चे ग्वेवारा के 94 वें जन्मदिन (14 जून) पर सचिन श्रीवास्तव का यह लेख।

94 वां जन्मदिन : 14 जून

चे ग्वेवरा। अर्जेंटीना मूल के इस क्यूबाई क्रांतिकारी का नाम जुबान पर आते ही जो छवि जेहन में आती है, वह एक गुस्सैल युवा की छवि है। हालांकि चे का पूरा जीवन एक रोमांटिक कविता की तरह रहा है। इसमें जीवन का महसूस किया जा सकने वाला उजास है, तो दुखांत त्रासदियों का अंतहीन सिलसिला भी। संघर्ष के बीच करीबियों के साथ सुकून के पल भी इसमें शामिल हैं। इस विविधतापूर्ण जीवन को कई तरह से चित्रित किया जा सकता है, लेकिन सबसे मानीखेज होगी, चे के विरोधियों की राय। किसी व्यक्ति को जानने, समझने का एक जरिया विपक्ष की उसके बारे में राय भी है। चे के बारे में यह राय अनूठी है।

क्यूबा में सफल क्रांति के बाद चे ग्वेवारा ‘क्यूबाई राष्ट्रीय बैंक’ के अध्यक्ष बने थे। उस मौके पर जुलाई 1960 में अमेरिकी ‘न्यूज एंड वर्ल्ड रिपोर्ट’ में कहा गया -“अर्नेस्टो चे ग्वेवारा ही कास्त्रो सरकार का मस्तिष्क है। ग्वेवारा क्यूबाई नहीं, बल्कि अर्जेंटीनी है। वह स्वभाव से कोई भावुक लातिन-अमेरिकी नहीं है, बल्कि ठंडे दिमाग से सोच-विचार करने वाला कम्युनिस्ट है। यह ग्वेवारा है, फिदेल या राउल कास्त्रो नहीं। ग्वेवारा और उसके कम्युनिस्ट सहायकों के लिये क्यूबा उनके मिशन की एक घटना मात्र है और वह मिशन है लातिन-अमेरिका के अधिकांश हिस्से में कम्युनिस्ट सत्ता स्थापित करने के लिये क्यूबा को एक अड्डे की तरह विकसित करना।”

साम्राज्यवाद के जिस प्रवक्ता ने ये पंक्तियां लिखी हैं, उन्हें फेलिक्स ग्रीन ने अपनी एक किताब में “दुश्मन” कहा है। इसका दूसरा पक्ष यह है कि चे के घनघोर विचारधारात्मक शत्रु भी उनसे प्रभावित थे। चे में दुश्मनों को अपनी प्रशंसा के लिये बाध्य करने का गुण था। चे का जीवन इसी बात का उदाहारण है कि एक व्यक्ति जो समूची दुनिया की शोषित, पीड़ित जनता की मुक्ति के क्रांतिकारी संघर्षों से जूझ रहा हो, कैसे जनता के शत्रुओं से भी मान्यता और आदर हासिल कर सकता है।

यह आदर हमेशा के लिए बना रहता है और इसीलिए चे की स्मृति क्रांतिकारी जेहनों में चिरस्थायी है। जिक्र आया है, तो बताना जरूरी है कि 8 अक्तूबर 1967 को 17 छापामारों और बोलिविया की सैन्य टुकड़ी के बीच घमासान लड़ाई हुई। चे गंभीर रूप से घायल हो गए। बंदी बना लिए गए। कमांडर पराडो सालमन ने चे को फौरन पहचाना। उसने संदेश भेजा ‘500 कैन्साडो’ इसका अर्थ था— ‘चे को पकड़ लिया है।’ उन्हें कड़ी सुरक्षा और निगरानी में हिग्वेरा भेजा गया। सुबह होते ही बोलिविया की बड़ी सैन्य हस्तियां और सीआईए एजेंट हिग्वेरा पहुंच चुके थे। 

एजेंट डॉक्टर गोन्जालेज ने चे से पूछा-‘तुम क्या सोच रहे हो?’ चे ने कहा, ‘मैं क्रांति के अमरत्व के बारे में सोच रहा हूं।’ ये चे के अंतिम शब्द थे। चे के इन आखिरी शब्दों के साथ क्यूबा आज एक मिसाल है। दुनिया के हर क्रांतिकारी के लिए। वहां क्रांति का जो रास्ता अख्तियार किया गया वह दुनिया के दूसरे मुल्कों के लिए सही है या गलत? भौगोलिक रूप से बड़े देशों में क्रांति की अवधारणा क्यूबा जैसे छोटे देश से मिसाल नहीं पा सकती? और क्यूबा की क्रांति जिन परिस्थितियों में घटित हुई, उन्हें पूरी दुनिया आधी सदी पीछे छोड़ आई है?

ये सारे सवाल अपनी जगह सही हो सकते हैं और यह भी सच्चाई का एक पहलू हो सकता है कि हिंसा-रहित क्रांतियां भी अपने आप में अनूठी मिसाल हैं। लेकिन आज जिस शख्स के बारे में हम बात कर रहे हैं, वह ऐसे सवालों से अपने पूरे जीवन जूझता रहा और लगातार उनका जवाब भी देता रहा। उसने हिंसा का रास्ता चुना था, लेकिन यह चयन अनायास नहीं था। अर्नेस्टो चे ग्वेवारा लिंच के जीवन का शुरुआती हिस्सा इसका गवाह है।

जी हां, अर्नेस्टो चे ग्वेवारा लिंच। यह पूरा नाम ही अपने आप में वह मिसाल है, जो उसे वैश्विक ही नहीं इंसानी पहचान देती है। अर्नेस्टो मूल नाम है, यह उसके दादा के सम्मान में रखा था, डॉन अर्नेस्टो यानी चे के पिता ने। चे नाम क्यूबाई क्रांति के दौरान मिला, जिसका अर्थ होता है, प्रिय। हालांकि क्यूबाई जनता ‘चे’ शब्द का इस्तेमाल हर प्रिय अहसास के लिए करती है। ग्वेवारा टाइटल चे को उनके पिता की ओर से मिला और इस परिवार में मां के उपनाम को भी नाम के साथ जोड़ने का चलन है। चे के नाना लिंच समुदाय के थे। इस तरह पूरा नाम बना अर्नेस्टो चे ग्वेवारा लिंच।

ऐसे व्यक्ति के दिल में अपनी जनता के प्रति जीवंत अहसास और उसकी मुक्ति की सफल कामना होना कोई बड़ी बात नहीं। चे के दिल में यह आकांक्षा युवावस्था से ही थी। हालांकि चे ने खुद अपनी पूर्व प्रेमिका को लिखे एक खत में स्वीकार किया है कि वह शुरुआत में महज एक जोखिम उठाने वाला व्यक्तिवादी ही था। फिदेल ने चे को बदला। उसे वह महान उद्देश्य दिया, जिसने अर्नेस्टो को चे में बदल दिया। चे का पूरा जीवन रहस्यमयी रहा और उसके बारे में कई किस्म की अफवाहें लगातार उड़ती और उड़ाई जाती रहीं। खासकर अमेरिकी पूंजीवाद के पिछलग्गुओं द्वारा।

चे के बारे में यह झूठ लगातार कहा जाता रहा कि वह भावुक नहीं है। चे ने यह बात कई बार कहकर नहीं, करके झुठलाई। वह अपने मित्रों, परिचितों, परिवार और खासकर बच्चों के प्रति गहरी संवेदना रखता था। 1960 में चे अपने अर्जेंटीनी दोस्त अल्बर्टो, जिनके साथ चे ने पूरे लैटिन-अमेरिका की मोटरसाइकिल से यात्रा की थी, से कहा था, ‘मैं यहां आराम से बैठा हूं और मेरे दोस्त बोलीविया समेत दूसरी जगहों पर मेरे गुरिल्ला प्रयोगों को भोंड़े ढंग से लागू करते हुए मर रहे हैं।’ जाहिर है चे गुरिल्ला युद्ध की योजना को न्यूनतम हिंसा के रूप में देखते थे।

साम्राज्यवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में चल रहे आंदोलनों की एकजुटता के लिए सघन यात्राएं करने के बाद चे 14 मार्च 1965 को हवाना लौटे। उसके बाद सार्वजनिक रूप से दिखाई नहीं दिये। तकरीबन एक माह बाद इस बारे में फिदेल ने महज इतना कहा- “वह हमेशा वहीं रहेगा जहां क्रांति के लिए वह सबसे लाभदायक हो।’’ इससे यह तथ्य तो सामने आ गया कि चे क्यूबा में नहीं है। लेकिन कहां है? इस सवाल का जवाब पूंजीवादी अखबार अलग-अलग तरह से दे रहे थे।

चे ने क्यूबा इसलिये छोड़ा क्योंकि वे हथियारबंद होकर साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष करना चाहते थे। इसे वे अपना सर्वोच्च कर्तव्य मानते थे। 1956 में चे एक अनजान अर्जेंटीनी डाक्टर थे, जो परिस्थितिवश मैक्सिको आ गया। फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व में सक्रिय क्रांतिकारियों से उनकी मुलाकात हो गई थी। 1965 में चे विजयी क्यूबा के एक प्रमुख नेता और क्रांतिकारी सरकार की महत्वपूर्ण हस्ती थे। वही चे अब नये क्रांतिकारी क्रिया-कलापों की तलाश में क्यूबा छोड़कर अचानक बाहर चले गये थे। बेहतर और सुंदर दुनिया का स्वप्न देखने वाला यह यायावर नवंबर 1966 के पहले सप्ताह में छद्म नाम से बोलिविया पहुंचा और वहां एक जगह पर छापामार आंदोलन का अड्डा स्थापित किया।

चे आज होते तो शायद फिर यही बात दोहराते। उम्मीद करनी चाहिए कि सर्वहारा जनता के पक्ष में खड़े प्रगतिशील, जनवादी समुदाय को यह बात याद होगी और वह सच्चे सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद की ओर अपने कदम और मजबूती से बढ़ाएगा। यही चे के लिए सच्चे अर्थों में इंकलाबी सलाम हो सकता है।(सप्रेस)

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