अंकित

हमारे यहां समाज, संस्‍कृति और श्रम की एक धुरी हस्‍तशिल्‍प भी रही है। इसीलिए आजादी के पहले और बाद में भी हथकरघा उत्‍पादन स्‍थानीय संसाधनों के उपयोग, निजी श्रम और आपसी लेन-देन की खातिर अहमियत पाते रहे हैं। अब हस्‍तशिल्‍प का महत्‍व खारिज होता दिखाई दे रहा है और उसकी पहली चोट ‘हथकरघा बोर्ड’ को समाप्‍त करके की जा रही है।

सात अगस्त 1905 के ‘स्वदेशी आंदोलन’ की याद को बनाए रखने के लिए हमने 2015 में इसी दिन ‘हथकरघा दिवस’ मनाने का निश्चय किया था, लेकिन उसकी छठी वर्षगांठ के पहले ही, इसको मजबूत करने वाले,  सरकार के साथ मिलकर नीति बनाने वाले ‘हथकरघा बोर्ड’ को तिलांजलि दे दी गई। ‘हथकरघा दिवस’ का सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि जबसे इसकी शुरुआत हुई तभी से इसको कुचलने के कार्य भी बडे पैमाने पर शुरु हो गए थे। पहले नोटबंदी ने मारा, जीएसटी ने कुचला, करोना ने शटडाउन किया और ग्रामीण अर्थव्यवस्था तबाह हो गई।

यह निचले तबके पर काम करने वाले कामगारों की आवाज का माध्यम है जहां कामगार सरकार के साथ मिलकर कला को उन्नत करते हैं। करोना काल में जब सारे उद्योग-धंधे बंद हैं, हमारे स्वदेशी उत्पादों ने ही हमें जीवित रखा है। हमने इसके महत्व को समझकर आत्मनिर्भरता का संकल्प भी लिया, लेकिन उसी समय आत्मनिर्भरता के पर्याय ‘हथकरघा बोर्ड’ का बंद हो जाना कहां तक उचित है?  

प्राचीन काल से ही भारत आदिवासी प्रधान देश होने के कारण इंडो-चीन प्रायद्वीप का नाम गोंडवाना लैंड रखा गया था। जनजाति आधारित समुदाय होने के कारण भारत के पारंपरिक कला-कौशल कितने समृद्ध हैं इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारा स्वयं का कौशल ही हमें आत्मनिर्भर व समृद्ध बना सकता, अपनेपन का अहसास कराकर हमें उसके प्रति मर-मिटने को भी तैयार करता है। इसी का परिणाम था, स्वदेशी आंदोलन और उसकी सफलता। स्वदेशी आंदोलन के बाद भारत में अपनी मिट्टी के प्रति एक अलग तरह का लगाव पैदा हुआ था और देश को 42 साल बाद आजादी मिली। महात्मा गांधी ने कहा था “स्वदेशी वह भावना है जो हमें दूरदराज के इलाकों को छोड़कर समीपस्थ क्षेत्रों का उपयोग करने, उसकी सेवा करने तक सीमित करती है। धर्म, अर्थ, राजनीति सभी क्षेत्रों में स्वदेशी की भावना का उपयोग होना चाहिए। विशुद्ध हृदय से स्वदेशी धर्म का पालन चरम कोटि की विश्व सेवा है।” उन्होंने इसे ‘स्वराज्य की आत्मा’ बताया था। महात्मा गांधी की सेवाग्राम की कुटिया इसका एक अनुपम उदाहरण है।

हस्तकला के सामने आधुनिक मशीनरी फेल है। देश का एकमात्र मानव संग्रहालय  (इंदिरा गांधी राष्‍ट्रीय मानव संग्रहालय) भोपाल में है जो मानव सभ्यता के आदि से लेकर आज तक, कला की समृद्धि का गुणगान करता है। आज भी वह कमतर नहीं है, लेकिन हमने इसका आधुनिकीकरण करके पहले इसे लोगों की पहुंच से दूर किया और आज यह पूंजीवाद के दौर में बहुत दूर जा रहा है, हालांकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में यह अब भी बहुत प्रासंगिक है। भारत के पारंपरिक ज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह एक व्यवहारिक ज्ञान है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्व:स्फूर्त प्रसारित होता रहता है। इसके लिए हमें ना तो ज्यादा संसाधनों की जरूरत होती है और ना ही कि ऊंचे शैक्षिक मापदंडों की। यह बड़े स्तर पर रोजगार देने के साथ-साथ ग्रामीण भारत का उन्नयन भी करता है।

भारत एक कृषि-प्रधान देश है और भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण योगदान कपड़ा उद्योग का है जो रोजगार प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण भागीदारी करता है। तीसरी ‘राष्ट्रीय हथकरघा जनगणना’ के अनुसार 28 लाख परिवार हैंडलूम से जुड़े हैं, जिनमें से केवल 17 लाख उत्तर-पूर्व भारत से हैं। इसमें तीन-चौथाई महिलाएं हैं जो इस कला की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। करोना काल में जब हस्तशिल्पकार आजीविका कमाने से जूझ रहे हैं और रोजगार का संकट बढ़ता जा रहा है, ऐसे समय में घर बैठे रोजगार मुहैया कराने वाली इस कला के लिए नीति बनाने वाले बोर्ड को बंद कर देना कहां तक उचित है?

वैसे भी विकास के मायने अब कुछ और हो गए हैं। इसमें हमने विकसित अर्थव्यवस्था बनने के लिए तृतीयक क्षेत्र (सेवा क्षेत्र) को महत्वपूर्ण माना है, लेकिन वास्तव में प्राथमिक और द्वितीयक क्षेत्र ऐसे क्षेत्र हैं जिसमें मानव संसाधन का उचित प्रबंधन होता है। भारत विश्व की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला कृषि प्रधान देश है जिसमें इसका एक उचित स्थान है। भारत का पारंपरिक ज्ञान बहुत ऊंचे दर्जे का है और इसके लिए हमें ज्यादा संसाधनों व व्यावसायिक मापदंडों की जरूरत नहीं होती। ऐसे में ‘हाथकरघा बोर्ड’ महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारी निभा सकता था, लेकिन पता नहीं क्‍यों सरकार को उसकी मौजूदगी नागवार गुजरी। (सप्रेस)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें