नंदिता मिश्र

अशीष कोठारी

आम चुनाव की इस बेला में कमोबेश हरेक रंगों-झंडों वाली राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी किए हैं, ताकि सभी खास-ओ-आम को पता चल जाए कि वे अगले पांच साल में क्या-क्या करने और क्या नहीं करने वाली हैं। ऐसे में ठेठ ग्रामीण, मैदानी इलाकों में सक्रिय करीब 85 संगठनों, संस्थाओं के ‘विकल्प संगम’ ने अपनी बात रखने की खातिर अपना घोषणापत्र भी जारी किया है। क्या है, इस घोषणापत्र में?

आज हम जिस दुनिया में जी रहे हैं उसमें संचार और सम्पर्क के साधनों की कोई कमी नहीं है। जितना व्यक्तिगत सम्पर्क इस समय हो रहा है, इतना पहले कभी नहीं हुआ होगा। मोबाईल ने तो हमारी दुनिया ही बदल दी है। बात करें, गप्पे लगायें, घर बैठे खरीददारी करें – मनोरंजन के सब माध्यम मोबाइल में मिल जाते हैं। कोरोना के लॉकडाउन के बाद मोबाइल और लैपटॉप और भी ज़रूरी हो गया है। अब आप अपनी नौकरी भी घर बैठे सकते हैं और पढ़ाई भी।

एक दशक से भी कुछ ज़्यादा हुआ कि हमारे बीच व्हाट्सएप आ गया। व्हाट्सएप् के चक्कर में हममें से बहुत से लोगों ने अपने साधारण मोबाईल बदलकर स्मार्ट फोन ले लिए। इसके अलावा सम्पर्क के लिये, प्रचार के लिये फेसबुक, यू ट्यूब, टिक-टॉक, इंस्टाग्राम, ट्विटर (अब इसका नाम एक्स हो गया है), स्नैपचैट जैसे जाने कितने ही प्लेटफॉर्म हैं और लगातार नए प्लेटफॉर्म भी बन रहे हैं। दिन भर में करोड़ों की संख्या में इनकी मदद से व्यक्तिगत, पारिवारिक, व्यापारिक हर तरह के संदेश और वीडिओ एक जगह से दूसरी जगह तुरंत पहुंच जाते हैं। इसी तरह उनका जवाब भी फौरन मिल जाता है। ये हमारी ज़रूरत बन गये हैं।  

कहां खो गईं, हमारी चौपालें

इन तकनीकी अस्त्रों से लैस होने के बाद हम अनजाने ही इनके आदी बन गए और हमने अपनी एक बहुत प्यारी चीज़ खो दी – वह है बातचीत, संवाद, वार्तालाप। अब ये एप ही हमारे सम्पर्क सूत्र बन गये हैं जो मोबाईल के माध्यम से हमारी मुट्ठी में हमेशा उपलब्ध रहते हैं। शुरू में ये हमारे जीवन में एक सुविधा की तरह आये और अब हमें इनकी आदत हो गयी है या यूं कहें कि लत पड़ गई है। इसका सबसे बड़ा असर हमारी सहज रूप से होने वाली बातचीत पर पड़ रहा है। हमारी अभिव्यक्ति पर पड़ रहा है। हमारा आमने-सामने होने वाला आपसी संवाद लगातार कम हो रहा है।

कोरोना काल में हमने ज़ूम और गूगल मीट के जरिए मीटिंग्स करना भी सीख लिया है और कोरोना के समाप्त होने के बाद भी लोगों को यह सुविधाजनक लगने लगा है कि ऑनलाइन मीटिंग ही हो जाए तो आने-जाने की ज़हमत नहीं उठानी पड़ेगी। हम अब इतने सुविधाभोगी हो गए हैं कि मीटिंग-स्थल पर जाने में भी हमें आलस्य होने लगता है और हम यह भूल जाते हैं कि अगर हम वहाँ चले गए तो चार लोगों से मुलाकात हो जाएगी और उनसे आमने-सामने कुछ गप्प-गोष्ठी हो जाएगी।

यूं तो आप और हम चौबीसों घंटों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं किन्तु क्या ऐसा नहीं लगता कि डिजीटली कनेक्ट होने के बावजूद हम एक दूसरे से दूर हो रहे हैं। एक-दूसरे के प्रति भावनाओं और संवेदनाओं में कमी आती जा रही है, बल्कि अब हम साथ मिलकर बैठने के सहज कायदे भी भूलते जा रहे हैं। यदि कभी साथ मिलते-बैठते भी हैं तो कुछ ज़रूरी और कुछ गैर-ज़रूरी बातों के बाद आपस में बात करने के लिये कुछ नहीं होता। एक चुप्पी सी छा जाती है। कोई अपना मोबाइल लेकर चला जाता है, तो कोई वहीं बैठकर संदेश लिखना-पढ़ना शुरू कर देता है। सभा समाप्त हो जाती है।

धीरे-धीरे हमें ये बात समझ में आ रही है कि ये वो जीवन नहीं है जो हम जीना चाहते थे। अपना भविष्य संवारने का जो सपना हमने अपने माता-पिता के साथ देखा था, उसे पूरा करना हमारा ध्येय था, पर वो इस कीमत पर? अपनों से दूर होकर? महीनों बीत जाते हैं परिवार के साथ आराम से समय बिताये हुए। बच्चों की छुट्टियां कब आईं और कब चली गयीं पता ही नहीं चलता। इसमें सबसे ज़्यादा नुकसान बुजुर्गों और बच्चों का हो रहा है। आज हर उम्र के व्यक्ति को डिप्रेशन हो रहा है। अकेलापन बढ़ रहा है।

रोज़ सुनने में आ रहा है कि लोगों में अकेलापन और अवसाद बढ़ रहा है। राजस्थान के कोटा शहर में युवावस्था की दहलीज़ पर खड़े जाने कितने ही किशोर अपनी जान गंवा चुके हैं और यह सिलसिला जल्दी रुकता भी नहीं दिख रहा। यह सब बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव में तो हैं ही, लेकिन उससे भी बड़ी बात ये है कि तरह-तरह के सोशल मीडिया उपलब्ध होते हुए भी ये अकेलेपन का शिकार हैं।

संवाद तो है, लेकिन सतही है

ऐसा नहीं है कि हम आपस में बोलते नहीं हैं, लेकिन सच बात ये है कि वो बोलना संवाद नहीं है। बातचीत सहज होती है। वो आपस में आत्मीय संबंध बनाये रखने का माध्यम होती है। याद करें कुछ साल पहले आप अपना जन्मदिन या शादी की सालगिरह कैसे मनाते थे। आज व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर दिन भर बहुत सारे संदेश तो आ जाते हैं, लेकिन उन संदेशों में कितने ऐसे लोग होते हैं जिन्हें बिना सोशल मीडिया की घोषणा के आपके इस शुभ दिन की तारीख याद थी‌?

आप याद करें, कुछ साल पहले की अपनी बस यात्रा और ट्रेन का सफर! कितना मज़ा आता था। सफ़र शुरू होने से पहले ही आसपास बैठे लोगों से परिचय हो जाता। ‌बच्चे, बच्चों में मिल जाते थे बड़े भी आपस में मस्त हो जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं होता। बातचीत का पैमाना बदल गया है। सहज बातचीत दूर की बात हो गयी है। सब अपने-अपने मोबाईल फोन में व्यस्त नज़र आते हैं। कोई भला आदमी अगर संवाद स्थापित करने की सोचे भी तो उसे सामने वाला एक-दो शब्दों में उत्तर देकर टालने का प्रयास करता है।

गुल-गपाड़ा बढ़ रहा है, लेकिन अकेलापन है कि मिटता नहीं

हमारे समाज में गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। नये-नये तीज-त्यौहार मनाये जाने लगे हैं। पूजा स्थलों पर हर आयोजन में बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं। एक ओर जहां हमारी उत्सव-प्रियता बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर हम अकेले भी पड़ रहे हैं। संवादहीनता हर जगह हावी है। अखबारों में हर दस-बारह दिन में बिगड़ते आपसी रिश्तों, बच्चों की परवरिश, बुजुर्गों की देखभाल, पति-पत्नी के आपसी संबंधों को लेकर खबरें छपती हैं। विशेषज्ञों की राय प्रकाशित होती है।

इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि बच्चों और बुजुर्गो को अकेले न रहने  दें। उनके साथ बैठें। उनसे बात करें। उन्हें अकेलापन महसूस न होने दें। विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि ये आधुनिकता का अभिशाप है जो हम पर हावी है। हमें एक-दूसरे को समझना होगा। एक-दूसरे के लिये समय निकालना होगा। आपसी तालमेल बनाना होगा। इससे अकेलेपन की भावना दूर होगी।

हमें खुद आगे बढ़कर ये वातावरण बदलना होगा। घर की व्यवस्था कुछ ऐसी करनी होगी कि हफ्ते में दो चार बार सब साथ बैठें। खाना-नाश्ता जो भी सम्भव हो, पूरे सदस्य साथ हों। हो सके तो मोबाइल लैपटॉप के उपयोग पर कुछ नियम बनाएं। ‘नो मोबाइल ज़ोन’ भी बनाये जा सकते हैं। ये सब कहना आसान है, फिर भी हमें आपस में बढ़ती दूरियों को कम करना होगा। एक-दूसरे के साथ समय बिताने का हर सम्भव प्रयास करना पड़ेगा। हम अकेले बोल सकते हैं, पर बातचीत नहीं कर सकते। खुश रह सकते हैं, पर उल्लास का वातावरण नहीं बना सकते। मतभेद से न डरें, बस मनभेद नहीं होना चाहिए। बातचीत का मज़ा लें, फिर देखें जीवन कैसे बदलता है। सामान्य शिष्टाचार और आपसी व्यवहार हर रिश्ते का आधार होता है। उसे अपनायें। आत्मीयता का महत्व समझें और असली वार्तालाप का प्रतिशत बढ़ाकर देखें, आनन्द-ही-आनन्द बरसेगा। (सप्रेस)

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