अशोक शरण

हथकरघा उद्योग आज भी रोजगार का एक कारगर साधन है, लेकिन हमारी सरकारें और उनकी नीतियां उसे अपेक्षित महत्व नहीं देतीं। नतीजे में यह उद्योग ठप्प होता जा रहा है। फिलहाल क्या हालत है, हथकरघा उद्योग की?

सात अगस्त, 1905 को कोलकता टाउन हॉल में आयोजित एक विराट सभा में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार हेतु एक औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया था। यह स्वदेशी आंदोलन ‘बंग भंग’ के विरोध में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ पूरे भारत में चला। उनकी नीतियों की वजह से भारतीय हथकरघा उद्योग नष्ट हो गया था।

बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में आरंभ हुए ‘स्वदेशी आंदोलन’ ने 1915 में, गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आने के बाद पुन: जोर पकड़ लिया था। गांव-गांव चरखा और हथकरघा चलने लगे थे। मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों को भारी नुकसान होने लगा था। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। गांधीजी का मानना था कि स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग से देश आत्म-निर्भर बनेगा।

आजादी के बाद, 1950 में केंद्र सरकार ने कई हथकरघा उत्पादों को इसी क्षेत्र के लिए आरक्षित कर दिया था जिसमें बॉर्डर साडी, धोती, बेडशीट आदि पारंपरिक उत्पाद शामिल थे, परंतु विकेंद्रित क्षेत्र में बिजली के करघे बढ़ने लगे थे जिससे हथकरघा के अच्छे उत्पाद की नकल होने लगी।

वर्ष 1964 में केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त ‘अशोक मेहता समिति’ ने सुझाव दिया था कि साड़ियों का उत्पादन हथकरघा क्षेत्र के लिए आरक्षित कर दिया जाए। उच्च अधिकार प्राप्त ‘शिवरामन समिति’ ने बताया कि प्रत्येक पावरलूम ने 6 हथकरघों को बेकार कर दिया है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी पैदा हुई है। हथकरघा से एक व्यक्ति पूरी उत्पादन प्रक्रिया पूर्ण नहीं कर सकता, इसलिए इसे कुटीर उद्योग का दर्जा दिया जाए। इन कमेटियों की सिफारिशों पर अंततः ‘हथकरघा आरक्षण अधिनियम 1985’ अस्तित्व में आया।

हथकरघा उद्योग का यह दुर्भाग्य रहा है कि विशेष प्रावधानों का लाभ हमेशा पावरलूम क्षेत्र द्वारा उठाया जाता रहा है। उदाहरण के लिए ‘हैंक्स यार्न अधिनियम’ (कपडा/धागा मापने की इकाई) के तहत सभी कताई मिल अपने कुल उत्पादन का 40 प्रतिशत ‘हैंक यार्न’ के रूप में उत्पादन करेंगे। इसके लिए प्रदत सरकारी सब्सिडी का उपयोग पावरलूम उद्योग द्वारा किया गया। 1985 की ‘कपड़ा नीति’ से एक बात यह गढ़ी गई कि कपड़ा उत्पादन को बढ़ाया जाए जिससे अधिक रोजगार सृजन हो।

इस नीति ने बुनकरों को सहकारी बुनकर या स्वतंत्र बुनकर से बदलकर ऐसे बुनकर में तब्दील कर दिया जो कम मजदूरी कमाने और मोटे कपड़े बनाने वाला या बढ़िया कपड़ा बुनकर अधिक मजदूरी कमाने वाला हो गया। इसका अर्थ यह हुआ कि मोटा कपड़ा बुनने वाले बुनकर या तो पावरलूम में स्थानांतरित हो जाने चाहिए या पेशे से बाहर हो जाने चहिए। इसमें बाजार का खेल स्पष्ट झलकता है जो मानता है कि बेहतर मजदूरी वाला बुनकर जीवित रहेगा, जबकि अन्य को पलायन करना होगा।

विकास आयुक्त, भारत सरकार के द्वारा प्रकाशित सर्वेक्षण से मालूम होता है कि 1970 के दशक में बुनकर परिवारों की संख्या 1.24 करोड़ से घटकर 1995 में 64 लाख हो गई। यह 2010 में और भी घटकर 44 लाख हो गई। चौथी हैंडलूम जनगणना के अनुसार ऐसे परिवारों की संख्या और कम होकर  31.5 लाख रह गयी। इसके लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के साथ-साथ ग्रामीण रोजगार प्रदान करने के उपायों के प्रति उदासीनता भी अपनाई गई। नीतिगत विषयों पर भी उचित ध्यान नहीं दिया गया, जैसे–हथकरघा उत्पादों की नकल बिजली के करघे द्वारा की जाती रही। ‘हैंडलूम  मार्क’ पावरलूम और हैंडलूम के अंतर को स्थापित नहीं कर पाया।

इसी प्रकार 2013 में भारत सरकार द्वारा बनाया गया कानून ‘खादी मार्क हैंडलूम’ और खादी में अंतर स्थापित नहीं कर पाया। पावरलूम ने जिस प्रकार हैंडलूम को नुकसान पहुंचाया उसी प्रकार हैंडलूम ने खादी को नुकसान पहुंचाया। इसी प्रकार राज्य प्रायोजित प्रदर्शनियों में हैंडलूम से ज्यादा पावरलूम उत्पादों का बाहुल्य होता है। यही हाल ‘खादी ग्रामोद्योग आयोग’ द्वारा प्रायोजित प्रदर्शनियों का है जहां खादी के साथ हैंडलूम उत्पादों और सौर ऊर्जा वस्त्र, ‘प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम’ के अंतर्गत पावरलूम/हैंडलूम से बने रेडीमेड प्रदर्शित किए जाते हैं।

भारत सरकार ने वर्ष 2021-22 से 2025-26 तक ’राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम’ निर्धारित किया है जिसके अंतर्गत विभिन्न राज्यों, जैसे-उत्तरप्रदेश, असम, बिहार, बंगाल, झारखण्ड, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश में विशाल हथकरघा क्लस्टर बनाये जायेंगे। सूत खरीदने के लिए 10 प्रतिशत सब्सिडी दी जाएगी, मिल-दर पर सूत आपूर्ति की जाएगी। ‘बुनकर मुद्रा स्कीम’ के अंतर्गत टर्म-लोन और कार्यशील पूंजी के लिए केवल 6 प्रतिशत ब्याज की दर से राशि उपलब्ध करवायी जाएगी, सुरक्षा और कल्याणकारी योजना के अंतर्गन बुनकरों का जीवन बीमा करवाया जायेगा। यदि उनके बच्चे किसी टेक्सटाइल इंस्टिट्यूट में दाखिला लेते हैं तो उन्हें दो लाख रूपये की छात्रवृति प्रदान की जाएगी।

इतना सब होने के बाद भी यह बुनकरों का दुर्भाग्य है कि उनके परिवारों की संख्या 1970 के दशक में जहां 1.24 करोड़ थी, वह 2020 आते-आते 31.5 लाख रह गई। इसके बावजूद भारत के कुल कपड़ा उत्पादन में हथकरघे का लगभग 15 प्रतिशत योगदान है जो ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार देने वाला दूसरे नंबर का सबसे बड़ा उद्योग है। पावरलूम और कपड़ा मिलों की लॉबी और पूंजीवादी व्यवस्था से दबे ये बुनकर आज शहरों की मलिन बस्तियों में पलायन करने के लिए मजबूर हैं। (सप्रेस)

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