9 अगस्त , विश्व आदिवासी दिवस

बाबा मायाराम

9 अगस्त का दिन पूरी दुनिया के सभी आदिवासी समाज के लोगों को अपनी भाषा – संस्कृति, खान-पान, जीवन शैली व स्वशासन – परम्परा के संरक्षण और विकास के साथ-साथ जल – जंगल – जमीन व खनिज के पारंपरिक अधिकार के लिए संकल्पबद्ध होने का दिवस हैI आदिवासियों के रिवाज, प्रकृति के साथ रिश्‍ते, कुपोषण से निपटने के तरीके आदि हमें नई सीख देते है। कुपोषण और भुखमरी में दुनियाभर में नाम कमाते राज्यों, उनकी सरकारों और वहां सक्रिय एनजीओ को अपने आसपास के आदिवासियों के अलावा सब कुछ दिखाई देता है। ऐसे व्यवहार के बरक्स ‘विशेष पिछडी जनजाति’ उर्फ ‘पीटीजी’ माने जाने वाले भारिया आदिवासी कैसे जीते हैं?

मध्यप्रदेश में पचमढी के पडौसी पातालकोट में भारिया आदिवासियों के बीच बीजों की रिश्तेदारी का अनूठा कार्यक्रम चल रहा है। इसके तहत जो पुराने, पारंपरिक बीज लुप्त हो चुके हैं, उन्हें खोजने, बोने और उनके आदान-प्रदान का काम किया जाता है। पातालकोट छिंदवाड़ा से करीब 75 किलोमीटर दूर जिले की तामिया तहसील में है। पातालकोट का शाब्दिक अर्थ है, पाताल की तरह गहरी जगह और कोट यानि किला। सतपुड़ा पर्वत की ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से घिरा यह इलाका कटोरे जैसा लगता है। यहां पहाडों के नीचे, बहुत गहराई में 12 गांव (कारेआम रातेड़, चिमटीपुर, पलानी गैलडुब्बा, घोंघरी गुज्जाडोंगरी, घटलिंगा, गुढ़ीछतरी, घाना कोड़िया, मालनी डोमनी, जड़मांदल हर्राकछार, सेहरा पचगोल, झिरन और सूखा भण्ड हारमऊ) और उनके ढाने (मोहल्ले) बसे हैं। कहा जाता है कि जमीन से नीचे होने और सतपुड़ा की आड़ी-तिरछी पहाड़ियों के कारण यहां सूरज की रोशनी देर से पहुंचती हैं। इन गांवों तक पहुंचने के लिए पहले सड़कें नहीं थीं। अब भी कुछ गांवों तक पहुंचमार्ग नहीं है। तब पेड़ों की लताओं व जड़ों को पकड़-पकड़कर उतरना पड़ता था। भारिया और थोडे-बहुत गोंड आदिवासी ही यहां के मुख्य बाशिंदे हैं।

भारिया आदिवासी जंगली कंदों के साथ

बैगा और सहरिया की तरह भारिया को भी राज्य में ‘विशेष पिछड़ी जनजाति’ का दर्जा दिया गया है। इनके विकास के लिए ‘भारिया विकास अभिकरण’ भी बना है। इनकी मातृभाषा तो ‘पारसी’ है, लेकिन वे हिन्दी में भी संवाद करते हैं। पातालकोट के भारियाओं को अजूबा व नुमाइश की तरह पेश किया जाता है। कभी उन्हें नरभक्षी कहा जाता है, कभी कहा जाता है कि वे नग्न अवस्था में रहते हैं। कभी उन्हें लंगोटी वाला कहकर एक अलग नजर से देखा जाता है। लेकिन इन बातों में कोई सच्चाई नहीं है। यहां मैं ‘बीजों की रिश्तेदारी’ कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुंचा था जिसे एनजीओ ‘निर्माण’ और ‘यूजिंग डायवर्सिटी’ (यूडी) ने आयोजित किया था। भारिया आदिवासियों के साथ सूखाभंड गांव में हम बालकिशन के घर ही रुके और सुबह का नाश्ता बड़े कांदा का किया, जो रात में ही जंगल से लाया गया था। 

सूखाभंड से हम पैदल गैलडुब्बा पहुंचे जहां ‘बीजों की रिश्तेदारी’ कार्यक्रम के तहत देसी बीजों की प्रदर्शनी, अनाजों के व्यंजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन था। अलग-अलग गांवों से पैदल तो कुछ वाहनों से बड़ी संख्या में स्त्री-पुरुष पहुंचे थे। पंडाल में देसी बीजों की प्रदर्शनी लगी थी। ये रंग-बिरंगे बीज न केवल रंग-रूप में अलग थे, बल्कि स्वाद में भी बेजोड़ थे। बेउरी कुटकी, भदेल कुटकी, कंगना, कंगनी, मड़िया, बाजरा, कुसमुसी, बेड़ाबाल, तुअर, काला कांग,  धान, सांवा, जगनी, मक्का जैसे कई प्रकार के बीज थे। इनमें बल्लर (सेमी), बरबटी, नेवा, लाल सेमा भी था। देसी अनाजों में महुआ का भुरका था जिसे जगनी और महुआ दोनों को कूटकर बनाया गया था। इसे लोगों ने बहुत पसंद किया। बेड़ा बाल की घूंघरी (उबालकर) बनाई जाती है। कुसमुसी की दाल व बड़े बनाए जाते हैं। कुटकी का भात और बल्लर की दाल प्रमुख भोजन है। कुटकी का पेज ( एक तरह का सूप) बनाकर पीते हैं। मक्के की रोटी भी खाते हैं और भात (चावल की तरह) भी खाया जाता है।

देसी बीजों की प्रदर्शनी में कई प्रकार के कांदा भी थे। बड़ा कांदा, माहली कांदा, सेत कांदा, डूनची कांदा, केऊ कांदा, कडु कांदा, मोड़ो कांदा, मूसल कंद, रातेड़ कांदा। इसके अलावा यहां कई प्रकार की जड़ी-बूटियां भी थीं। सफेद मूसली, सतावर, रामदातौन, गुडवेल, चिरायता, हर्रा, बहेड़ा, आंवला, अंतमूल (चाय की तरह पीते हैं), भिलवां इत्यादि। सूखाभंड हारमऊ के मुन्नालाल ने बताया कि मोड़ो कांदा बहुत पाचक होता है। बड़ा कांदा की तासीर गरम है। इससे भूख भी नहीं लगती। सेत कांदा को चुड़ाकर (उबालकर) खाते हैं। यह भी गरम होता है। भारिया अपनी बीमारियों का अधिकांश इलाज जड़ी-बूटी से ही कर लेते हैं। जड़ी-बूटियों के जानकार कुछ लोग उन्हें बेचकर आजीविका भी चलाते हैं।  

गैलडुब्बा के भगलू चालथिया ने बताया कि भारिया बरसों से आम की रोटी ( आम की गोही को पीसकर रोटी बनाई जाती है) और बल्लर की साग खाते थे। महुआ खाते थे। बांस की करील की सब्जी और दोवे भाजी की साग पकाते थे। कोयलार भाजी की हरी पत्तियों की सब्जी बनती है। वे बताते हैं कि पहले हम दहिया खेती करते थे। खूब बेउर कुटकी पकती थी। मड़िया, कांग, कांगनी, जगनी, सिक्का और डंगरा बोते थे। अब दहिया पर रोक लगाई जा रही है। फिर हम कैसे जिएंगे? दहिया खेती के बारे में बताते हुए भगलू ने कहा कि इस पद्धति में बारिश के पहले ललताना व छोटी झाड़ियां काटकर उसमें आग लगा देते थे। जब झाड़ियां जलकर राख हो जाती थीं तो कांगनी के बीज फेंक देते थे। पानी गिरता था तो वह उग जाती थी। बाद में दो-तीन बार निंदाई-गुड़ाई करनी पड़ती थी और फसल पक जाती थी। इस खेती में एक-दो साल में जगह बदलनी पड़ती थी और हल चलाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। हिन्दी में इस पद्धति को ‘झूम खेती’ और अंग्रेजी में ‘शिफ्टिंग कल्टीवेशन’ कहते हैं। बहुत दिनों से भारियाओं ने इसे करना छोड़ दिया है।   

सूखाभंड के गुरवा उइके ने बताया कि कातुल के फल भी चुड़ाकर (उबालकर) खाते हैं। चुड़ाने के बाद बीज निकालकर पानी भी फेंक देते हैं, क्योंकि इसमें खट्टापन होता है। अनाज नहीं होने और भुखमरी के दिनों में इसे खाते थे। ऊमर के पत्तों की सब्जी भी खाते हैं। वह भी गरम होती है। सेमरा के फलों की सब्जी भी बनाते हैं। रेटु भाजी और मक्का व ज्वार के आटे के साथ लड्डू भी बनाते हैं। गुरूवा ने आगे बताया कि यहां कई भमौड़ी (मशरूम) होते हैं, जिनकी सब्जी बनती है। जैसे धतरौती भगोड़ा, बांस गाजरे, बमीठा भोंडली, पुक्का बिराद, कुम्भा इत्यादि।

नरेश  विश्वास देसी बीजों के बारे में चर्चा करते हुए

देसी बीजों के बारे में चर्चा करते हुए ‘निर्माण संस्था’ के नरेश विश्वास बताते हैं कि पातालकोट की जमीन समतल नहीं है। ऊंची-नीची और पथरीली जमीन में दहिया खेती ही हो सकती है, जो भारिया आदिवासी पीढ़ियों से करते आ रहे हैं। उनका देसी खेती व बीजों का ज्ञान पारंपरिक है। दहिया में ही देसी पौष्टिक बीजों की खेती हो सकती है। नरेश विश्वास मंडला-डिंडौरी के बैगाचक के बैगा आदिवासियों, छत्तीसगढ़ के रायगढ़ के पहाड़ी कोरवाओं में दहिया खेती के जरिए पुराने देसी बीजों की खेती को बढ़ावा देते रहे हैं। जो देसी बीज लुप्त हो चुके थे उन्हें खोजकर आदिवासियों को उपलब्ध कराते हैं। सिकिया ऐसा ही अनाज था, जिसे लोग भूल चुके थे। मंडला में फिर से लोग इसे बोने लगे हैं। इसी प्रकार, बाजरा जिसे चिड़िया बहुत खाती हैं, लेकिन उनके पास ऐसी देसी किस्म है जिसमें रोएं होते हैं, जिससे चिड़िया नहीं खा पाती। जिससे फसल का नुकसान नहीं होता है। इस कार्यक्रम में बीज प्रदर्शनी के साथ भारियाओं ने डंडा नृत्य, गेड़ी नृत्य व शैताम जैसे पारंपरिक लोकगीत भी गाए।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारियाओं का जीवन प्रकृति से जुड़ा है। उनकी जंगल आधारित खाद्य व भोजन व्यवस्था थी जिसमें अब कमी आ रही है। एक तो जलवायु बदलाव व मौसम बदलाव हो रहा है, जंगल कम हो रहे हैं, बारिश कम हो रही है और पानी के परंपरागत स्रोत भी सूख रहे हैं। उनकी जीवनशैली व खेती भी बदल रही है, लेकिन दहिया खेती के साथ देसी बीजों की खेती से उम्मीद भी बनी है। इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में भारियाओं के सभी तबकों का होना इसका प्रमाण है। दहिया खेती पौष्टिक अनाज के साथ खाद्य सुरक्षा भी करेगी और स्वास्थ्य सुरक्षा के साथ जैव-विविधता भी बचाएगी। पारिस्थितिकी तंत्र और पर्यावरण की सुरक्षा करने वाली यह पद्धति टिकाऊ होगी। जाहिर है, इसी से प्रकृति के साथ सहअस्तित्व वाली जीवनशैली व देसी संस्कृति भी बचेगी, जो भारियाओं की जीवनशैली भी है।(सप्रेस) http://www.spsmedia.in

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