बरखा लकडा

अभी, चार-साढ़े चार सौ साल पहले तक देश के कई इलाकों में राज करने वाले आदिवासी आज ‘अनुसूचित जनजाति’ के सरकारी खांचे में कैसे सिमट गए हैं? क्या उन्हें कोशिश करके कमजोर बनाया गया है? क्या हमारे देश के नियम-कानून आदिवासी-हितैषी नहीं हैं? प्रस्तुत है, इसी विषय की पड़ताल करता बरखा लकडा का यह लेख।–संपादक

आज पूरे भारत में हर समाज अपनी जाति-व्यवस्था को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। इनमें से एक आदिवासी समुदाय है जो खुद को हिन्दू नहीं, बल्कि आदिवासी मानता है। अगर आदिवासी खुद को हिन्दू नहीं मानते तो फिर इनका इतिहास क्या है? ये एक बड़ा सवाल है जिसका विश्लेषण तत्थ्यों के आधार पर किया जाना चाहिए।

जस्टिस पाजीटर का मानना है कि अनार्य तो आर्यो से भी प्राचीन हैं, उनके पहले के हैं जब भारत में आर्यों का जन्म भी नहीं हुआ था। ईसवी सन् से लगभग 2200 वर्ष पहले आर्य लोगों ने मध्य हिमालय के रास्ते से भारतवर्ष में प्रवेश किया था। आर्यों ने भारतवर्ष में आकर अनार्यों से संघर्ष किया और आर्य – अनार्य युद्ध को ‘देवासुर संग्राम’ की संज्ञा दी। उन्होंने अनार्यों को असुर और भारत में पहले से रह रहे लोगों को अनार्य कहा।

आर्यों -अनार्यों में मूल भेद यह था कि यूरेशिया से मध्य भारत में प्रवेश करने वाले आर्य शीत प्रधान भू-भाग के निवासी होने के कारण शरीर से गोरे, ऊंचे कद, लंबी नाक और भूरी आंख, भूरे बाल वाले थे, जबकि अनार्यों का कद छोटा, शरीर तथा बालों का रंग काला, नाक मोटी, होंठ मोटे तथा सिर गोल था। प्रथम वैदिक काल में दो ही वर्ग थे। पहला आर्य, दूसरा अनार्य। आर्यों ने अनार्यों को अपना शत्रु माना। आर्यों -अनार्यों की शारीरिक रचना, संस्कृति एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न थी।

वैदिक काल भारत का सबसे प्राचीन काल है। उससे पहले का इतिहास क्रमबद्ध रूप से उपलब्ध नहीं है। वैदिक साहित्य में असुरों का नाम मिलता है जिन्हें आर्यों ने अनार्य माना है। विद्वानों का मत है कि अनार्य और असुर एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। अनार्य जिन्हें आस्ट्रेलाइड, द्रविडियन कहते हैं और जिसे वर्त्तमान में आदिवासी कहते हैं, असुरों की ही उत्पत्ति हैं। इस प्रकार अनार्य कौन हैं? इस प्रश्न के उत्तर में इतना पर्याप्त है कि अनार्य, असुर, द्रविडियन, आस्ट्रेलाइड एक ही वंश, नस्ल के भिन्न-भिन्न नाम हैं।

पंडित रघुनंदन प्रसाद शर्मा अपनी पुस्तक ‘वैदिक सम्पति’ में लिखते है कि ‘उस समय भारत और आस्ट्रेलिया के बीच इतना बड़ा अन्तर नहीं था। लंका और मेडागास्कर की भूमि अधिक चौड़ी थी और भारत तथा आस्ट्रेलिया को जोड़ती थी तथा समस्त टापुओं में एक ही जाति निवास करती थी। आस्ट्रेलिया वालों की और भारतीय आस्ट्रेलाइड, द्रविडियन, भील, संथाल और कोल की भाषा एक सी थी। राहुल सांस्कृत्यायन ने लिखा है कि ‘मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का अन्तिम उत्कर्ष काल 2400 ईसा पूर्व माना गया है। उसके एक हजार साल बाद आर्यों का आगमन अनार्यों के भू-भाग में हुआ और कम-से-कम 300 वर्ष बाद वशिष्ठ, भारद्वाज, विश्वामित्र आदि ने अपनी रचना की।

लाला लाजपतराय अपनी पुस्तक ‘भारतवर्ष का इतिहास’ में लिखते हैं कि ‘मेरे विचार से इस बात को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि हिन्दू – आर्य भारत के मूल निवासी नहीं हैं। पंडित बाल गंगाधर तिलक अपनी पुस्तक ‘आर्यन’ में लिखते हैं कि आर्य लोग सबसे पहले उत्तरी-ध्रुव के रहने वाले थे। नेहरू ने ‘पिता के पत्र, पुत्री के नाम’ पुस्तक में लिखा है कि ‘आर्यों ने उत्तर की ओर से अनार्यों पर आक्रमण किया। इन आर्यों का मध्य एशिया में अवश्य ही बहुत बड़ा समूह रहता था।’

भारत के इतिहास में ‘गोंण्‍डवाना लैण्ड’ का जिक्र है। भूतत्वविदों और ज्योतिर्विज्ञानियों ने ‘गोण्डवाना लैण्ड’ का नामकरण किया था। उस समय यह विशाल समूह इस भूमिखण्ड के मध्यभाग में निवास करता था। भारत आदिवासियों का देश है इससे इन्कार नहीं किया जाता, पर वर्त्तमान समय में भारत में मात्र 15 प्रतिशत भू-भाग में आदिवासियों का निवास रह गया है। भारत की जनगणना 1951 के अनुसार आदिवासियों की संख्या 9,91,11,498 थी जो 2001 की जनगणना में 12,43,26,240 हो गई। यह देश की जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत है।

भारत में दिन-प्रतिदिन जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, पर उसी रफ्तार से आदिवासियों की जनसंख्या कम हो रही है। विस्थापन के अलावा इसका सबसे बड़ा कारण आदिवासियों का दूसरे धर्मो में विलय हो जाना है, जबकि आदिवासी न धार्मिक समूह है और न ही यह “वर्ण एवं जाति” व्यवस्था का हिस्सा है, बल्कि यह एक अलग नस्लीय समुदाय है। स्पष्ट है कि आदिवासी जन्मजात हिंदू नहीं है, बल्कि बड़े पैमाने पर उनका हिंदूकरण हुआ है जो अब भी जारी है। अब समय आ गया है, आदिवासी को ‘संगठन’ से ज्यादा ‘संगठित’ होने की जरूरत है।

भारत सरकार ने अपनी ‘राष्ट्रीय आदिवासी नीति 2006’ के प्रारूप में आदिवासी समूहों की संख्या 698 बतायी है। 2011 की जनगणना में आदिवासी समुदायों की संख्या 705 बतायी गई है। हर आदिवासी समुदाय में लगभग 10 से 15 संगठन हैं। यानि पूरे आदिवासी समुदाय में सात हजार से लेकर 15 हजार तक आदिवासी संगठन हैं। कई संगठनों का विचार दूसरे संगठनों के विचार से बिल्कुल अलग होता है जिससे दोनों संगठनों के बीच मनभेद और मतभेद की स्थिति बनी रहती है। अब वक्त आ गया है कि कुछ ऐसी ‘सर्व आदिवासी सामुदायिक शक्ति’ बने जिसमें आदिवासी कार्यकर्त्ता सभी आदिवासी समुदायों को इकट्ठा कर शक्ति का निर्माण करायें। इसमें समुदाय के विभिन्न क्षेत्रों एवं राज्यों में निवास करने वाले, विभिन्न आदिवासी समुदाय शामिल हों।

आज पूरे भारत में आदिवासियों की स्थिति बहुत नाजुक है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश आदि राज्यों के अनुसूचित इलाकों में आदिवासियों का लगातार पलायन और विस्थापन हो रहा है। आदिवासियों के पास पांचवीं अनुसूची 244(1), छठी अनुसूची 244(2), अनुच्छेद 371, 366(25), अनुच्छेद 275 (1) और ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा प्रदत्त ‘आदिवासी दिवस 1994’ हैं फिर भी पूरे भारत में 40 प्रतिशत आदिवासी विकास के नाम से विस्थापित हो चुके हैं।

विकास के आंकड़ों पर अगर नजर डालें तो आदिवासी शिक्षा, स्वास्थ्य, आयु, जन्म के समय मृत्युदर, सालाना आय आदि कई मापदंड़ों पर नीचे के पायदानों पर पाये जाते हैं। इसके कारण बहुत सी बातों में आदिवासी शोषण के सहज ही शिकार बन जाते हैं। बड़े उपक्रमों के अलावा जहॉं कहीं भी छोटे शहर या कस्बों का दबाव बढ़ने लगता है, वहॉं आदिवासी विभिन्न भूमाफियाओं द्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं और उन्हें लगातार अपनी जमीन से बेदखल होना पड़ता है। ऐसे कितने ही मामले कोर्ट में पड़े हैं और न्याय की प्रतीक्षा में आदिवासी परिवारों को पलायन करना पड़ता है।

चूँकि उनकी स्थिति मजबूत नहीं होती, आदिवासी महिलाएं, विशेषकर बच्चियॉं मानव व्यापार की सहज शिकार हो जाती हैं। छल-प्रपंच और प्रलोभन देकर कई संस्थाएं या दलाल सीधे-सादे आदिवासियों को मानव व्यापार के कॉरीडोर में ला खड़ा करते हैं। अपने सीधे स्वभाव के कारण आदिवासी सहज ही दलालों के झांसे में आ जाते हैं। सुनहरा सपना दिखाकर या ज्यादा पैसा कमाने का लोभ दिखाकर आदिवासी बालाओं को शहरों की कोठियों में ढकेल दिया जाता है। घरेलू कामगार महिलाओं के रूप में आदिवासी समाज को कोई ख़ास इज्जत नहीं मिली है। इन्हीं रास्तों से होकर कईयों को देह व्यापार के धंधे में ढकेल दिया जाता है।

आदिवासी भूभागों में पाये जाने वाले खनिजों के दोहन से आदिवासी समाज के सामने विकराल समस्या उभरी है। बड़े कल-कारखानों के लिये कुशल कामगारों के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिये समाज एकदम तैयार नहीं है। अगर उनके लिये कोई जगह है भी, तो वह एक अकुशल मजदूर के रूप में ही है। आज हम विकास के लिए विनाश के कांधे पर बैठकर प्रतिदिन जंगलों का विनाश कर रहे हैं, खामियाजा बीमारी के रूप में भर रहे हैं। मानव ही संसार में एक मात्र ऐसा जीव है जो अपनी मूर्खता की वजह से, अपने लिए ही विनाश के गढ्ढे खोदता है। इसी सबका नतीजा एक दिन प्राकृतिक आपदा के रूप में भुगतना होगा। उदास प्रकृति सब्र टूटने पर विनाश लाती है और यह आगे विनाश का कारण भी बन सकती है। (सप्रेस)

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