प्रशांत कुमार दुबे

गहन-गंभीर, समझने में दुरूह और कई बार उबाऊ तक माना जाने वाला हमारा संविधान यदि करके देखा जाए तो कैसा होगा? भोपाल की ‘यंगशाला’ से जुडे कुछ युवाओं ने संविधान के विभिन्न आयामों को निश्चित समय के लिए अपने-अपने जीवन में उतारकर देखने का प्रयोग किया। जाहिर है, इस अनुभव ने उन्हें और समृद्ध ही किया।

‘प्रिय लूसी, जबसे तुम हमारे घर आई हो, तबसे तुम्हारी हालत खराब हो गई है। शुरू में जब तुम आई थीं तो हम सभी तुम्हें बहुत प्यार से खिलाते थे, लेकिन जैसे-जैसे तुम बड़ी होती जा रही हो, कोई तुम्हारा ध्यान नहीं रखता। हमारे पास, तुम्हारे लिए समय ही नहीं है। तुम अकेले-अकेले कैसा महसूस करती होगी। लूसी, मैं तुमसे माफ़ी मांगना चाहती हूँ। हो सके तो मुझे माफ़ कर देना, दोस्त।’

यह पत्र माही ने अपनी प्यारी-सी कुतिया, लूसी के लिए लिखा है। ज्ञात हो कि माही, भोपाल में युवाओं के साथ काम करने वाले समूह ‘यंगशाला’ से जुडी हैं और वे “संविधान लाइव” (एक खेल) खेल रही हैं। माही ने जो पत्र लिखा है वह उस ‘टास्क’ का हिस्सा है, जिसमें उन्हें अपने कर्तव्य का पालन न करने पर संबंधित से पत्र लिखकर माफी मांगना थी। पत्र लिखने के बाद माही कहती हैं कि वे बहुत हल्का महसूस कर रही हैं।  

दरअसल हम सभी एक रोचक खेल Samvidhan Live “संविधान लाइव” की शेयरिंग के लिये इकट्ठे हुए थे। यह खेल युवाओं के साथ काम करने वाले समूह ‘यंगशाला’ के युवा खेल रहे हैं। इस खेल में युवा संविधान के मूल्यों पर आधारित ऐसे ‘टास्क’ करते हैं जो दैनिक जीवन में संवैधानिक अधिकारों और कर्तव्यों से उन्हें जोड़ते हैं। जोड़ियों में खेला जाने वाला यह खेल पांच सप्ताह तक चलता है। हर सप्ताह, हर जोड़ी को एक ‘टास्क’ मिलता है और उसे पूरा करने के बाद अपने अनुभव शेयर करना होता है, ताकि दूसरे भी उस अनुभव से सीख सकें। खेल खेलने वाले हरेक व्यक्ति को ‘जागरिक’ (जागरूक+नागरिक) कहा जाता है। यह खेल दिल्ली की एक संस्था ‘कम्युनिटी कलेक्टिव’ द्वारा डिजाइन किया गया है।  

खेल के विषय में ‘यंगशाला’ की संस्थापक-सदस्य रोली शिवहरे बताती हैं कि ‘संविधान लाइव’ ने युवाओं के लिए Constitution संविधान की जमीनी वास्तविकताओं को जीने, अपने मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जागरूक होने, उनके महत्व को समझने और संविधान में निहित मूल्यों को आत्मसात करने का एक अवसर दिया है। यह ‘स्व’ से ‘समुदाय’ और ‘समुदाय’ से ‘स्व’ के बीच तालमेल का अनूठा खेल है। ‘टास्क’ को सफलतापूर्वक पूरा करने पर अंक मिलते हैं, लेकिन खेल का उद्देश्य अंक कमाना नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा की अपेक्षा ‘जागरिक’ जोड़ियों के बीच सहयोग के माध्यम से समझ बनाना है। इस तरह के प्रयोग से युवाओं में नेतृत्व क्षमता, लेखन क्षमता, विश्लेषण क्षमता आदि का भी विकास होता है।  

माही के बाद ज्योति पारधी और रोहित रजक ने भी समता के अधिकार को समझने के अपने अनुभव साझा किये। उन्हें ‘टास्क’ मिला था, जिसमें उन्हें 7 दिन तक अलग-अलग तरह के काम करने वाले लोगों के साथ दिन बिताना था। यह ‘टास्क’ दिखता बहुत सरल है, लेकिन कठिन तब हो गया जब उन्होंने पन्नी बीनने वाले बच्चों के साथ एक दिन बिताने का तय किया। सुबह 5 बजे घर से निकले और दोपहर 2 बजे तक इन बच्चों के साथ कूड़ा बीना। कूड़े को अलग-अलग किया, बेचा और फिर इनकी दिनचर्या को समझा।  

इस काम के खतरे, समाज का उन्हें देखने का नज़रिया और इन बच्चों की कठिन जीवन-शैली को बताते हुए ज्योति और रोहित थोड़े भावुक हो जाते हैं। वे कहते हैं कि हमने आज 100 रूपये कमाये हैं, लेकिन हमें क्लासरूम से बाहर जीवन टटोलने का मौका मिला है। ये दोनों युवा जब इस टास्क के अनुभव शेयर करते हैं तो धीरे-धीरे आप उनकी कहानी में रम जाते हैं और एक समुदाय विशेष के जीवन की कठोर सच्चाई से रूबरू होने लगते हैं। इसी क्रम में उन्होंने चाय वालों के साथ, रेहड़ी लगाने वालों के साथ भी एक-एक दिन बिताया और अपनी समझ बनाई।

इसी चर्चा में ‘जागरिक’ वैशाली रघुवंशी के टास्क ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। उन्हें समानता के अधिकार को समझने का ‘टास्क’ मिला था जिसमें वे 32 रूपये में एक दिन (24 घंटे) व्यतीत करें। हमारे देश में ‘गरीबी की रेखा’ के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों को चुने जाने का यही मापदंड है। वैशाली ने बताया कि यह बहुत ही मुश्किल ‘टास्क’ था, क्योंकि मुझे चुनना पड़ा कि मैं खाना खाऊं या पढूं! बेहतर भोजन, परिवहन, स्वास्थ्य और रोजमर्रा के खर्च ही इतने ज्यादा थे कि समझ नहीं आ रहा था कि वे कैसे मैनेज करेंगी। वे कहती हैं कि इस ‘टास्क’ को करते समय मुझे समझ में आया कि यह मापदंड व्यवहारिक नहीं है और यह बदला जाना चाहिये। इस टास्क के अनुभवों को सुनते हुए लगा कि यदि युवा साथी ऐसे राजनीतिक प्रसंगों को भी सहज भाव से समझ सकेंगे और उन पर प्रश्न करने की क्षमता विकसित कर सकेंगे तो यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि होगी।

‘जागरिक’ सोनाली शुक्ला और तान्या को ‘टास्क’ मिला था, अपने मूलभूत कर्त्तव्य को समझने का, जिसमें उन्हें अपने प्राकृतिक वातावरण की रक्षा और संवर्धन करने हेतु प्रयास करना था। सोनाली ने अपने आसपास को स्वच्छ करने का बीड़ा उठाया और अपनी माँ को साथ लेकर परिसर की सफाई कर डाली। यही नहीं, कचरा एकत्र किया और तान्या के साथ जाकर उसका सुरक्षित निपटान भी किया। गौरी ने एक दिन मौन रहकर ऐसे जनों की पीड़ा समझी, जो बोल/सुन नहीं सकते। श्रद्धा राठौर ने बच्चों को उनके साथ होने वाले लैंगिक शोषण के प्रति जागरूक किया। संजय ने अपने होस्टल का संविधान ही बना दिया। पूजा ने प्राणियों के प्रति आमजन को जागरूक करने हेतु कार्ड बनाये। अदिति ठाकुर ने दूसरे धर्म के रीति-रिवाजों को जानने के लिए 7 दिन तक गुरुद्वारा जाकर कारसेवा की।

एक और प्रसंग था, अपने से विपरीत लिंग के व्यक्ति के प्रति सम्मान और समानता का भाव लाते हुए उनके योगदान/अस्तित्व को समझना। खेल, खेल रहे चार ‘जागरिक’ – सुमित बरोड़े, आनंद शुक्ला, संजय और संतोष बारेला ने महिलाओं की भूमिका निभाई। अपना पहनावा बदला और दिन भर वे सभी काम किए जिन्हें आमतौर पर महिलाओं का माना जाता है। इसमें खाना बनाना, झाड़ू लगाना जैसे काम भी शामिल हैं। इसे करते हुए उन्होंने महसूस किया कि महिलाओं का योगदान कितना ज्यादा है और हम उसे कैसे कम करके आंकते हैं? उन्होंने कहा कि यह ‘टास्क’ करते समय हमने उपहास सहा, क्योंकि लोग हमें बहुत ही अलग नज़र से देख रहे थे, लेकिन इस ‘टास्क’ से हमारे मन में महिलाओं के प्रति सम्मान और ज्यादा बढ़ गया।   

‘जागरिक’ प्रीति बिरहा और काशिफा मंसूरी ने एक ऐसा ‘टास्क’ किया जो सोचने पर मजबूर करता  है। उन्हें गरीबी में गुजर-बसर कर रहे एक व्यक्ति से उसके सपने, जीवन से अपेक्षा और आकांक्षा के बारे में जानना था। उन्होंने नेहरु नगर में मंदिर के सामने भीख मांगने वाली एक बुजुर्ग महिला से बात की। उनका दर्शन, उनके सपने, जीवन के प्रति उनका नज़रिया और उनके अनुभव सुनकर वे चमत्कृत हो गईं। वे कहती हैं कि हमने कभी यह सोचा भी नहीं था कि वे इन विचारों से ओतप्रोत होंगी। आमतौर पर हम एक समाज के रूप में अपने से कथित कमतर व्यक्तियों से बातचीत करना तो दूर, उनकी ओर देखना भी पसंद नहीं करते ! शायद हम यह मान बैठे हैं कि इनके सपने क्या होंगे?? ऐसे में इन युवाओं का यह कदम साहसिक ही माना जाएगा।  

हम सभी जब युवाओं के ये अनुभव सुन रहे थे तो समझ पा रहे थे कि किताबों से निकलकर जब Constitution संविधान को रोजमर्रा के साथ जुड़ते/जोड़ते देखते हैं, तो इसे अपने बहुत ही करीब पाते हैं। आमतौर पर जो युवा पीढ़ी Constitution संविधान को उबाऊ विषय के रूप में देखती है या केवल रटकर इसके बारे में लिखती/समझती है, वह ऐसे रोचक ‘टास्क’ के माध्यम से इसके मूलभूत गुणों को समझ पा रही है। इस दौरान पूछने पर कि आप संविधान को कितना समझ पाये? और आपके द्वारा किये गए ‘टास्क’ किन मूल्यों से जुड़ते हैं? इसे ये युवा साथी बहुत स्पष्टता से बता नहीं पाते, लेकिन इस तरह की कवायद उन्हें एक सजग, सचेत और संवेदनशील नागरिक बनने की दिशा में कारगर साबित होगी। यदि वे अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बीच संतुलन भी बना सकेंगे तो यह एक सार्थक कदम होगा। (सप्रेस)

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