मेधा पाटकर

नर्मदा पर बने ‘सरदार सरोवर’ बांध के विस्थापितों को बरसों बाद अपने हक में कुछ सकारात्मक होता दिखाई दिया है। पिछली केन्द्र और राज्य सरकारों के ‘शून्य’ विस्थापन-पुनर्वास मानने के बरक्स मध्यप्रदेश की नई सरकार ने विस्थापितों की उनके गांवों में मौजूदगी के साथ ही उनके वैध हकों को स्वीकार किया है।

 

यदि महाकाय ‘सरदार सरोवर’ से विस्थापित आदिवासी, किसानों का पूर्ण पुनर्वास नहीं होगा तो उसमें पानी कैसे भर सकेगी सरकार? क्या यह कारनामा गुजरात के किसानों, सूखाग्रस्त लोगों के लिए आवंटित पानी को बड़ी कंपनियों और पर्यटन को समर्पित करने के लिए किया जा रहा है?

मध्यप्रदेश और गुजरात के बीच उठा ‘सरदार सरोवर’ संबंधी विवाद अब सुर्खियों में जरुर है, लेकिन उस पर की गई गुजरात के मुख्यमंत्री तथा उप-मुख्यमंत्री की टिप्पणियां न तो कानून के अनुसार सही हैं और न ही इंसानी लिहाज से इनमें कोई संवेदना है। देश की एक बड़ी और खास नदी नर्मदा पर निर्मित महाकाय बांध और नदी घाटी परियोजना के तहत बने या बन रहे अन्य बांधों पर गुजरात के जिम्मेदार नेताओं के कानूनी नतीजों को नजरअंदाज करते हुए दिए जा रहे सतही बयान साबित करते हैं कि ‘राजनीति’ मध्यप्रदेश से नहीं, गुजरात से ही बढ़ाई जा रही है। वर्ष 1979 में घोषित ‘नर्मदा जल-विवाद न्यायाधिकरण’ (एनडब्ल्यूडीटी) के फैसले में, नर्मदा में जलप्रवाह संबंधी 40 सालों की जानकारी उपलब्ध न होने के कारण, उपलब्ध पानी की तत्कालीन मात्रा को 28 मिलियन एकड फीट (एमएएफ, 2 करोड़ 80 लाख एकड फुट) मानकर चार राज्यों में बंटवारा किया गया था। इस 28 एमएएफ पानी में से मध्यप्रदेश को 18.25 एमएएफ, गुजरात को 9 एमएएफ, राजस्थान को 0.5 एमएएफ और महाराष्ट्र को 0.25 एमएएफ पानी आवंटित किया गया था। ‘सरदार सरोवर’ जलाशय चूंकि मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के भूभागों से नीचे है इसलिए इन राज्यों को अपने हिस्से का पानी जलाशय की बजाए नर्मदा के कछार से लेना तय हुआ था। ‘सरदार सरोवर’ से निर्मित बिजली का भी 56 प्रतिशत हिस्सा मध्यप्रदेश को, 27 प्रतिशत हिस्सा महाराष्ट्र को और 16 प्रतिशत हिस्सा गुजरात को देना तय हुआ था। जलाशय के पानी में भी 91 फीसदी गुजरात और 9 फीसदी राजस्थान को दिया जाना था।        

अंतरराज्यीय ‘सरदार सरोवर’ के पहले के ऊपरवास क्षेत्र में नर्मदा के जलग्रहण क्षेत्र का 83 फीसदी विस्तार मध्यप्रदेश में ही है। इस इलाके में 29 बड़े और 135 मझौले बांध बनाकर उनकी नहरों से किसानों को लाभ देना भी ‘एनडब्ल्यूडीटी’ के फैसले में स्पष्ट लिखा गया है। इसी फैसले के मुताबिक मध्यप्रदेश सिंचाई, बिजली की अपनी जरुरतें पूरी करने के बाद, हर साल की बारिश का पानी गुजरात के लिए छोड़ेगा। जिस साल बरसात के मौसम में 28 एमएएफ से अधिक पानी गिरेगा उस साल इस अतिरिक्त पानी में से भी मध्यप्रदेश को 73 फीसदी, गुजरात को 36 फीसदी, महाराष्ट्र को एक फीसदी और राजस्थान को दो फीसदी पानी आवंटित किया जाएगा। एनडब्ल्यूडीटी हर साल उपलब्ध पानी की मात्रा, एक जुलाई को ऊपरी जलाशयों का जल-स्तर और वहां से कितना पानी छोडा जा सकता है, इसका एक ‘समय-पत्रक’ तैयार करेगा। जाहिर है, इन व्यवस्थाओं के होते हुए मध्यप्रदेश का हक अनदेखा नहीं किया जा सकता।

गुजरात मध्यप्रदेश के लिए निर्धारित बिजली का अधिकार भी न केवल नकार रहा है बल्कि नदी-तल में स्थापित मुख्य बिजली घर का कार्य पहले वर्ष 2016 में और फिर पिछले साल से आज तक अधिकतर समय बंद रखा गया है। वजह है, मध्यप्रदेश से छोड़े गए पानी को पूरी तरह नहरों में मोड़कर गैर-कानूनी ढंग से बिजली निर्माण को ठप्प करने की साजिश करना। ‘सरदार सरोवर’ की 1450 मेगावाट की कुल क्षमता में से 1200 मेगावाट इसी बिजली-घर में बनना थे, लेकिन उसे बंद रखकर मात्र 250 मेगावाट की क्षमता वाले ‘नहर-बिजली-घर’ को ही चलाया जा रहा है। गुजरात सरकार की इन हरकतों पर मध्यप्रदेश सरकार का आपत्ति लेना जायज और स्वाभाविक है। आखिर 192 गांव, एक नगर, हजारों हेक्टेयर्स अति उपजाऊ जमीन, हरे-भरे जंगल और 6,400 करोड़ रूपए के निवेश के बाद कोई लाभ नहीं पाने की स्थिति को कोई भी राज्य शासन कैसे मंजूर कर सकता है?

गुजरात सरकार की यह जिद कि बांध के दरवाजों की क्षमता की जांच-परख के लिए ‘सरदार सरोवर’ में पूरा 139 मीटर तक पानी भरा जाए, पूर्णतः बेबुनियाद है। पिछले साल की तुलना में मध्यप्रदेश के 13 जिलों में इस साल भी आज तक कम ही पानी बरसा है और आने वाले महीनों में क्या स्थिति बनेगी, यह तय नहीं है। पिछले साल मध्यप्रदेश में सत्ता पर भाजपा के होते हुए गुजरात ने बांध में पानी भरने की मांग नहीं की थी, जबकि बांध तो जून 2017 से पूरी ऊंचाई तक बनकर, गेट-दरवाजे बंद होकर खड़ा है। पिछले दो सालों से यह मांग शिवराजसिंह शासन के समक्ष कभी नहीं की गयी। तो क्या इस साल का गुजरात का यह हठाग्रह विस्थापितों की कीमत पर की जाने वाली राजनीति नहीं है?

गुजरात द्वारा बांध के दरवाजों को खोलने-बंद करने या जाँच की जो बात हो रही है, उससे बांध की क्षमता पर कितना भरोसा रखा जा सकता है, यह स्पष्ट है। यह बात कुछ साल पहले ही उजागर हो चुकी है कि गुजरात ने सालों पहले बनाये हुए गेट्स ही जल्दबाजी में लगाकर बांध का कार्य पूरा किया था। ऐसे में 2013 जैसी बाढ आई तो क्या इस बांध से हाहाकार नहीं मचेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में पानी पर नियंत्रण संभव होगा?

मध्यप्रदेश के सामने एक बड़ा सवाल बांध विस्थापितों के पुनर्वास का भी है। आज भी सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में करीब 30,000 से अधिक ऐसे परिवार बसे हैं, जिनके घर-खेत, संपत्ति अर्जित की जा चुकी है या कुछ पात्रता पर निर्णय की राह देख रहे हैं। इनमें से किसी का कानून-सम्मत संपूर्ण पुनर्वास नहीं हुआ है। पुनर्वास स्थल पर स्थलांतरित हुए हजारों परिवारों को भी अब तक कानून के मुताबिक कोई सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हुई हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2000, 2005 एवं 2017 के फैसलों, मध्यप्रदेश सरकार की नीति और अनेक आदेशों के तहत निर्धारित प्रावधानों के आधार पर पुनर्वास के लाभ मिलना बाकी हैं। ऐसे में उनके घर-खेत, गांव एवं गाँव के सभी सांस्कृतिक-धार्मिक स्थल, उद्योग, व्यापार और हजारों पेड़ सब पानी में डुबोना बिलकुल ही असंभव, गैर-कानूनी और अन्यायपूर्ण है।

मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव ने नर्मदा पर बने और बनने वाले बांधों के लिए जिम्मेदार केन्द्रीय संस्था ‘नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण’ को पत्र लिखकर बिजली का हिस्सा न देने के लिए गुजरात से 229 करोड़ रु. की मांग की है। करीब 6000 घोषित विस्थापित मूल गाँव में बसे हैं एवं 8500 परिवारों की पात्रता के लिए अर्जियां लंबित हैं। लगभग 2982 विस्थापित परिवारों के लिए, प्रति परिवार दो हेक्टेयर जमीन खरीदने के हिसाब से 60 लाख रुपए देने के दावे भी लंबित होने की बात इस पत्र में है। इन दोनों बातों के निराकरण तक 139 मीटर की पूरी ऊंचाई तक पानी भरना संभव नहीं होगा। मध्यप्रदेश की यह भूमिका सच्चाई तथा कानूनी आधार पर ली गई है। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ इसका स्वागत करते हुए चाहता है कि मध्यप्रदेश शासन अपने दावों में दिए गए आकड़ों की एक बार फिर से जाँच करे। ये आंकड़े बढ़ सकते हैं, कम नहीं हो सकते।

मध्यप्रदेश की नई सरकार ने ‘सरदार सरोवर’ के विस्थापितों से अब तक होती रही राजनीति को उजागर किया है। मध्यप्रदेश, गुजरात की पूर्व सरकारों और केन्द्र ने मिलकर कई सालों से बांध विस्थापितों को छला है। मध्यप्रदेश शासन ही नहीं, जनता को भी राज्यहित और जनहित का सोचकर सत्य समझना और अपनी भूमिका तय करना चाहिए। (सप्रेस)   

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