नीलेश दुबे

नीलेश दुबे

 ऊर्जा की खपत से विकास को मापने के इस दौर में ऊर्जा उत्पादन के तरीकों पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। क्या हम व्यापक विस्थापन, भारी पर्यावरण विनाश और असीमित आर्थिक बदहाली की कीमत पर पारम्परिक ताप, जल और परमाणु ऊर्जा को तरजीह देंगे या फिर लगभग शून्य विस्थापन, पर्यावरण-मित्र और अपेक्षाकृत सस्ती गैर-पारम्परिक ऊर्जा से अपनी जरूरतें पूरी करेंगे?

हफ्ता-डेढ़ हफ्ता पहले हम पर्यावरणीय असंतुलन का दुष्प्रभाव भीषण गर्मी के रूप में देख-भुगत रहे थे और ठीक इन्हीं दिनों में बस्तर के बैलाडीला में आदिवासियों ने ‘नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन’ (एनएमडीसी) को आवंटित एक लौह अयस्क खदान के खिलाफ विरोध फांद रखा था। इसके पहले ओडिशा के नियामगिरी आंदोलन में आदिवासियों ने एक खनन परियोजना का विरोध किया था जिसे बाद में सरकार ने रद्द कर दिया था। हाल में मध्यप्रदेश के मंडला जिले के चुटका गांव में परमाणु बिजली संयंत्र की स्थापना के लिए भू-अधिग्रहण सरकार और आदिवासियों के बीच संघर्ष की वजह बना है। प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए देशभर में आदिवासियों और सरकार के बीच इसी तरह के तीखे संघर्ष होते रहते हैं, लेकिन इनको अनदेखा कर, पर्यावरणीय असंतुलन का दुष्प्रभाव सामने आने के बावजूद हम लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। ऐसे में इन संघर्षों के कारण और इसके विकल्पों को समझना जरूरी है।

सरकार और आदिवासियों के बीच संघर्षों की प्रमुख वजह राजस्व में वृद्धि के अलावा ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करना है। प्रमुख रूप से बिजली और ईंधन के रूप में उपभोग की जाती ऊर्जा की मांग घरेलू, कृषि और उद्योगिक क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। इसका एक प्रमुख कारण देश की बढती जनसंख्या भी है। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ (यूएनओ) द्वारा तैयार नवीनतम अनुमान बताते हैं कि भारत की जनसंख्या वर्ष 2030 तक 1.5 अरब का आंकड़ा पार कर जाएगी। वर्ष 2018 में भारत सरकार के ‘सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय’ द्वारा प्रकाशित 20-वीं ‘ऊर्जा सांख्यिकी रिपोर्ट’ के अनुसार वर्ष 2011-12 से 2016-17 के बीच प्रति व्यक्ति ऊर्जा की खपत भी 3.54 प्रतिशत बढ़ गई है।

ऊर्जा के उपभोग का प्रमुख क्षेत्र औद्योगिक रहा है जहाँ उर्जा के सभी स्रोतों, खासकर पेट्रोलियम और बिजली का 58 प्रतिशत उपभोग किया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र में चाहे वह विनिर्माण क्षेत्र हो या सेवा क्षेत्र, बिजली मुख्य जरूरत होती है। बिजली की मांग न केवल औद्योगिक क्षेत्र में, बल्कि घरेलू और कृषि क्षेत्र में भी है। बिजली के उत्पादन में मुख्य रूप से परंपरागत और गैर-परम्परागत स्रोत हैं। परंपरागत स्रोतों से बिजली के उत्पादन की प्रमुख कठिनाइयाँ पर्यावरणीय हैं जिनमें पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव और विस्थापन प्रमुख हैं।

हमारे घरों, गलियों, मोहल्ले-बाजारों, गांवों, शहरों आदि को रोशन करने वाली ‘बिजली’ हम किस कीमत पर, किन स्त्रोतों से हासिल करते हैं यह समझना जरूरी है। भारत सरकार के ‘केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण’ की अप्रैल-2019 की रिपोर्ट के अनुसार देश में प्रतिवर्ष, प्रतिव्यक्ति 1,181 किलोवाट बिजली का उपभोग किया जाता है। वर्ष 2005-06 से 2018-19 के दौरान प्रति व्यक्ति उपभोग में लगभग दो गुना वृद्धि दर्ज की गई है। बिजली उत्पादन के आंकड़े प्रतिदिन बदलते रहते हैं और उसका बाजार भी अर्थशास्त्र के ‘मांग और आपूर्ती के नियम’ पर आधारित हो गया है। भारत सरकार के ‘राष्ट्रीय पावर पोर्टल’ के अनुसार वर्तमान स्थिति में देश में 3,56,817.60 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा रहा है जो कुल मांग से 2.41 प्रतिशत कम है। देश में परम्परागत स्रोतों, जिसमें 63.41 प्रतिशत ताप-विद्युत (थर्मल-पॉवर), 12.70 प्रतिशत पन-विद्युत (हाइड्रो-पॉवर) उत्पादित की जा रही है।

ताप-विद्युत संयंत्रों की पर्यावरणीय चुनैतियां हैं। देश के केवल सार्वजनिक क्षेत्र के 128 ताप-विद्युत स्टेशनों में रोज करीब 18.17 लाख टन कोयले की खपत हो रही है। कोयले से बिजली उत्पादन पर्यावरण के लिए कितना घातक है, इसे अमेरिका के ‘वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्îूट,’ के सुब्रत चक्रवर्ती द्वारा वर्ष 2018 में प्रकाशित शोधपत्र से समझा जा सकता है। उनके मुताबिक वर्ष 2005 से 2013 के बीच भारत में 25.54 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड (बव2)उत्सर्जित हुई और इसी दौरान उसमें प्रतिवर्ष 5.5 प्रतिशत की वृद्धि होती रही है। देश में प्रति व्यक्ति उर्जा उत्सर्जन 4 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। रिपोर्ट यह तथ्य भी उजागर करती है कि भारत में 2005-2013 के बीच कुल कार्बन उत्सर्जन में 68 प्रतिशत उत्सर्जन का कारण ऊर्जा क्षेत्र था और उर्जा क्षेत्र में भी 77 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन बिजली उत्पादन से होता है।

हमारी उर्जा जरूरतों के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग और उसके दुष्परिणाम पर्यावरणीय असंतुलन और संयंत्रों के तीखे विरोध के रूप में सामने हैं। ऐसे में बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारे सामने क्या विकल्प हैं, इसे समझना जरूरी है। क्या गैर-परम्परागत ऊर्जा परियोजनाएं बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए बेहतर विकल्प हो सकती हैं? दुनियाभर में बायोमास, बायोगैस, दीप्तिमान ऊर्जा, ज्वारीय ऊर्जा, वायु ऊर्जा, भूतापीय ऊर्जा आदि गैर-परम्परागत स्रोतों से बिजली पैदा की जाती है। देश में 21.96 प्रतिशत बिजली गैर-परम्परागत स्रोतों के माध्यम से पैदा की भी जा रही है जिसमें प्रमुख रूप से विंड (50.53 प्रतिशत), सोलर (35.74 प्रतिशत) और बायोमास (13.73 प्रतिशत) हैं। भारत सरकार की ‘राष्ट्रीय पवन-सौर स्वच्छता नीति-2018’ के अनुसार पवन-सौर उर्जा के मौजूदा लगभग 80 गीगावॉट उत्पादन को वर्ष 2022 तक 175 गीगावॉट तक ले जाना है, अर्थात वर्तमान उत्पादन में दो गुनी से ज्यादा वृद्धि करना होगी। केन्द्र सरकार की मार्च 2019 की एक केबिनेट बैठक में 15 वें वित्त आयोग के अंतर्गत वर्ष 2020-21 से 2024-25 के दौरान गैर-परम्परागत ऊर्जा के लिए 1,48,302 करोड़ रूपये के बजट प्रावधान का प्रस्ताव रखा गया था। अक्षय ऊर्जा हमारे देश की जरूरतों का प्रमुख विकल्प है, जो पर्यावरण के अनुकूल होने के अलावा टिकाऊ भी है।

अक्षय ऊर्जा की भी अपनी कुछ चुनौतियां हैं जिन्हें समझना जरूरी है। अक्षय उर्जा के स्रोत विंड, सोलर और बायोमास हैं, परन्तु इनके उपकरणों का निर्माण नगण्य है। अधिकांश उपकरण आयात करने पड़ते हैं। नतीजे में इससे उत्पादित बिजली महँगी तो पड़ती ही है, साथ ही इसका भार अर्थव्यवस्था पर भी पडता है। ‘डायरेक्टोरेट जनरल ऑफ ट्रेड रेमेडीज’ (डीजीटीआर) की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार पिछले तीन वर्षों में अकेले सौर ऊर्जा के लिए 90 प्रतिशत उपकरण आयात करने पड़े। सोलर प्लांटों की चुनौती तकनीक से संबंधित भी है जिसके परिणाम स्वरुप पेनल पर पड़ने वाली सूर्य किरणों के बिखर (स्प्लिट) जाने से जितनी बिजली बननी चाहिए, उतनी नहीं बन पाती। देश में अक्षय उर्जा उत्पादन की छोटी-छोटी इकाइयाँ हैं, जिन्हें एक ग्रिड में लाना चुनौतीपूर्ण कार्य है। इससे बिजली की गुणवत्ता प्रभावित होती है।

विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा और विकसित तकनीक के परिणाम स्वरुप वर्ष 2010 से अब तक विंड ऊर्जा में 20 प्रतिशत और सोलर उर्जा में लगभग 75 प्रतिशत केपिटल-कास्ट कम हो गई है। अक्षय उर्जा के क्षेत्र में अनुभव रहा है कि प्लांटों को लगाते समय पर्यावरणीय हितों से समझौता कर लिया जाता है। महाराष्ट्र और कर्नाटक में चार हजार हेक्टेयर से अधिक ऐसे जंगलों में विंड इकाईयां लगाई गईं जो पश्चिमी घाट से जुड़े थे। इनका नकारात्मक प्रभाव पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ सकता है। हाल ही में मध्यप्रदेश के रीवा में स्थापित सौर उर्जा का एशिया का सबसे बड़ा प्लांट बाढ़ से प्रभावित हुआ था।

देश और दुनिया के सामने ऊर्जा, खासकर बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए सीमित प्राकृतिक संसाधन, पर्यावरण असंतुलन और विस्थापन जैसी चुनौतियां हैं। इनसे निपटने के लिए अक्षय उर्जा एक बेहतर विकल्प है, परन्तु इसके लिए निवेश के साथ निर्माण के कदम उठाने होंगे। बिजली उत्पादन के गैर-परंपरागत स्रोतों को कुछ इस तरह स्थापित करना होगा जिससे पर्यावरणीय और मानवीय पक्षों की अनदेखी होने की लापरवाहियां न होने पाएं। इन लापरवाहियों के परिणाम स्वरुप मानव सभ्यता और धरती के अस्तित्व पर बन आयी है। सरकार को इनके महत्व और पर्यावरण पर प्रभाव को समझना होगा। (सप्रेस)

श्री नीलेश दुबे सामाजिक कार्यकर्ता हैं। संप्रति ’बिंदास बोल’ संस्था के निदेशक हैं।

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