डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल

खेलों की तरह हमारे यहां अब त्यौहारों को भी बाजार के हवाले किया जा रहा है। आपसी मेल-मिलाप, आनंद और स्वाद के आधार पर मनाए जाने वाले त्यौहार अब मुहूर्त निकालकर की जाने वाली खरीददारी को अहमियत देने लगे हैं। कैसे हो रहा है, यह सब? त्यौहारों के इस मौसम में बता रहे हैं,डॉ. दुर्गाप्रसाद अग्रवाल।

त्यौहारों के आनंद, हर्षोल्लास और आमोद-प्रमोद के बीच कुछ देर ठहरकर यह विचार करना रोचक हो सकता है कि आखिर हम त्यौहार मनाते क्यों हैं? इसलिए कि परम्परागत रूप से ऐसा चला आ रहा है? हमारे मां-बाप को हमने ऐसा ही करते देखा है और उन्होंने भी अपने मां-बाप को ऐसा ही करते देखा था। अगर मां-बाप को याद न भी करें तो आस-पास वाले मना रहे हैं इसलिए हम भी मना लेते हैं। अनुकरण सहज मानवीय प्रकृति है और जो अच्छा है, सुखद है, उसका अनुकरण करने में कुछ सोचने की ज़रूरत ही कहां है?

जो लोग पढ़े-लिखे हैं या जिज्ञासु वृति के विचारवान हैं, वे शास्त्रों और किताबों को खंगालते हैं और त्यौहारों के उद्गम और उनकी परम्परा तक जा पहुंचते हैं। वे इस बात की पड़ताल करते हैं कि किसी त्यौहार की शुरुआत कब और कैसे हुई तथा कालांतर में उसके स्वरूप में क्या परिवर्तन हुए। इन सब में बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो बग़ैर किसी ना-नुकर के खुश होकर त्यौहार मनाते हैं, अपनी खुशियों में औरों को शामिल करते हैं, औरों की खुशी में ख़ुद शामिल होते हैं। खुशी मनाने के मामले में ये तनिक भी कृपण नहीं होते और किसी को अलग रखने की बजाय सबको शामिल करने में और सबके साथ जुड़ जाने में विश्वास करते हैं।

ऐसे लोगों को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि यह त्यौहार इसका है और यह त्यौहार उसका है। ये लोग सही अर्थों में वसुधैव कुटुम्बकम के समर्थक होते हैं। त्यौहार हमारे जीवन की एकरसता को तोड़ते हैं और हमारे भीतर नई ऊर्जा का संचार करते हैं, लेकिन सारी दुनिया तो एक जैसी नहीं होती। बहुत सारे लोग ऐसे भी हमारे चारों तरफ़ हैं जो ‘उनकी’ खुशी और ‘हमारी’ खुशी में अंतर करते हैं। ’उनका’ त्यौहार हम क्यों मनाएं और ‘हमारे’ त्यौहार में वे क्यों शामिल हों? ऐसे लोग बहुत बारीकी से पड़ताल करते हैं और हर बात में मीन-मेख निकालते हैं।  

यह बात और भी आगे बढ़ती है। त्यौहार मनाने के तौर-तरीकों पर भी खूब विवाद  होते हैं, बहसें होती हैं। अब यह तो बहुत सामान्य बात है कि दुनिया में चीज़ें हमेशा एक जैसी नहीं रहतीं। बदलाव होते हैं। आज से सौ बरस पहले कोई त्यौहार जैसे मनाया जाता था, आज वैसे नहीं मनाया जाता। पहले दिवाली पर घी या तेल के दिये जलाए जाते थे, आज यह काम प्रतीक रूप में करके बिजली के बल्बों से रोशनी की जाती है। पहले बड़े बल्बों से रोशनी की जाती थी, अब छोटे और बहुत कम ऊर्जा खाने वाले बल्ब चलन में आ गए हैं।  

हमने सहज भाव से इन बदलावों को स्वीकार कर लिया है, लेकिन जिन्हें विवाद प्रिय हैं वे इन बातों में भी विवाद के मौके तलाश लेते हैं। अगर बल्ब का प्रयोग किया जा रहा है तो यह देखना ज़रूरी होने लगा है कि उसका उत्पादन किस देश में हुआ है। आपकी खुशी को आपकी देशभक्ति के साथ नत्थी कर दिया जाता है। वैसे यह नत्थीकरण भी बहुत सेलेक्टिव होता है। सरकारी स्तर पर और बहुत बड़े पैमाने पर भले ही इस तरह की देशभक्ति की पड़ताल न की जाती हो, छोटे लोगों को इस खुर्दबीन के नीचे रखकर परखा जाता है।  

यह सब अकारण होता हो ऐसा भी नहीं है। इस सबके पीछे बड़ी ताकतें बहुत चालाकी से अपना खेल खेलती हैं। इस बात को ऐसे समझें – त्यौहारों पर हमारे यहां मिठाई खाने और खिलाने की परम्परा है। हम सबको इसमें आनंद मिलता है। मिठाइयों के स्वरूप में बहुत बदलाव आए हैं। कल तक जो मिठाइयां चलन में थीं वे आहिस्ता-आहिस्ता लुप्त हो गई हैं और उनकी जगह नई, चमकदार और महंगी मिठाइयों से बाज़ार पट गया है। मिठाइयों को विस्थापित करने के प्रयत्न भी कम नहीं हुए हैं। आपकी सेहत की फ़िक्र को आगे करके मिठाइयों की लड़ाई मेवों से करवा कर उनके बाज़ार को मज़बूत किया गया है।  

मिठाइयों के कच्चे माल में मिलावट की बात को रेखांकित करके चॉकलेट को प्रचारित और स्थापित किया गया है। इस बात को समझने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि मिठाइयों के विस्थापन और चॉकलेट के प्रतिस्थापन में किसका और कैसा हित निहित रहा होगा। जो संगठित हैं और शक्तिशाली हैं, वे असंगठित और अपेक्षाकृत कमज़ोर को पराजित करेंगे ही। हमारे देखते-ही-देखते पारम्परिक हलवाई के पेट पर लात मारकर मेवों और चॉकलेट को उनकी जगह स्थापित कर दिया गया है।  

ऐसा ग़रीब-नवाज़ मिठाइयों को लेकर भी किया गया। एक ताज़ा उदाहरण सोन पपड़ी का है। उसे लेकर जितने लतीफ़े बने, उसका जितना उपहास किया गया, क्या वह सब आकस्मिक था?  क्या उसके पीछे कोई बड़ा खेल नहीं था? बेशक हमारे यहां मिलावट का कारोबार खूब होता है और कोई भी उसका समर्थन नहीं करेगा, लेकिन समझने की बात यह है कि यह हल्ला केवल उसी समय किया जाता है जब ऐसा करने से किसी का लाभ होता हो।  

त्यौहार मनाने के तौर-तरीकों में समय के साथ बदलाव अपने आप आते हैं और कुछ बदलाव बाकायदा, योजनाबद्ध रूप से लाए जाते हैं। पिछले कुछ बरसों में हमारे संचार माध्यम हमें यह बताने लगे हैं कि अमुक पर्व के अवसर पर ख़रीददारी का ख़ास मुहूर्त है। क्या आज से तीस-चालीस बरस पहले यह मुहूर्त नहीं आता था? अब बाज़ार की तो इसके पीछे बड़ी भूमिका है। देखने की बात यह भी है कि बाज़ार हमारे पूरे सोच और हमारी जीवन-शैली पर इतना हावी हो गया है कि कभी-कभी तो हमें लगता है कि त्यौहार के लिए बाज़ार नहीं है, बाज़ार के लिए ही त्यौहार है।

इधर जैसे-जैसे हमारी समझ और संवेदनशीलता में वृद्धि हुई है हम बहुत सारी बातों पर विचार करने लगे हैं। कोई त्यौहार मनाने का तरीका अगर अनुचित है तो उसकी तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित किया जाने लगा है। इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं है। आपको कहीं जाना है तो आप रास्ता बदलकर भी जा सकते हैं। पर्यावरण के प्रति हमारी जागरूकता बढ़ती जा रही है, हम वायु और ध्वनि प्रदूषण को कम करने के बारे में सोचने लगे हैं। अगर जलस्रोत छीजते जा रहे हैं तो हम पानी बचाने के बारे में सोचने लगे हैं। यह सब समय की मांग और हमारी विवेकशीलता का परिचायक है, लेकिन यह देखकर बहुत दुख होता है कि समाज का एक तबका परम्परा निर्वाह के नाम पर इन चिंताओं का कटु और साम्प्रदायिक विरोध करने लगता है।

इतना तो स्वीकार्य है कि कोई किसी की बात से सहमत न हो, लेकिन इससे किसी की नीयत पर ही संदेह करें और उसे धार्मिक-साम्प्रदायिक चश्मे से देखने लगें, यह बहुत पीड़ादायक है। दुर्भाग्य से हमारे समय में ऐसा बहुत हो रहा है। जब हवाओं में पहले से इतना ज़हर घुला हो कि सामान्य रूप से सांस भी लेना दूभर हो गया हो तब पटाखे चलाकर त्यौहार मनाना कहां की समझदारी है? जब लोगों को पीने के लिए पानी मिलना भी कठिन होता जा रहा हो तब अगर कोई पानी बचाने की गुहार लगाए तो उसका बुरा क्यों माना जाना चाहिए? किसी विवेक-सम्मत बात के विरोध में धर्म का झण्डा बुलंद करना और फिर बीच में किसी और धर्म को ले आना किस तरह की धार्मिकता है? 

इधर एक और प्रवृत्ति देखने में आने लगी है जो बहुत चिंताजनक है। हम अपने धर्म, अपनी परम्पराओं को छोड़कर दूसरों के धर्म, उनकी परम्पराओं पर प्रतिकूल, बल्कि कटु टिप्पणियां करने में खुशी का अनुभव करने लगे हैं। ‘वे’ ऐसा क्यों करते हैं? आप अपनी बात नहीं करेंगे, नहीं करने देंगे, लेकिन दूसरों की बात बहुत बढ़-चढ़कर करेंगे। यह प्रवृति निंदनीय और घातक है। इससे बचा जाना चाहिए। (सप्रेस)

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