अरविन्द मोहन

हाल में भारत में हुए वन-डे विश्वकप क्रिकेट के आयोजन ने एक तरफ दुनिया-जहान के खेल प्रेमियों में हलचल मचाई, तो दूसरी तरफ एक बार फिर उजागर कर दिया कि क्रिकेट असल में खेल की बजाए दिनोंदिन पूंजी काटने का वैश्विक धंधा बनता जा रहा है। कैसे बनाई जाती है, क्रिकेट में पूंजी? बता रहे हैं, अरविन्द मोहन।

विश्वकप क्रिकेट में कमेंटरी करने भारत आए पूर्व आस्ट्रेलियाई बल्लेबाज रिकी पोंटिंग की यह टिप्पणी अभी भी सोशल मीडिया पर चर्चा और विवाद का विषय बनी है कि आस्ट्रेलिया की फाइनल की जीत ‘क्रिकेट माफिया के खिलाफ न्याय की जीत है।’ उनका इशारा ही नहीं, साफ कहना है कि क्रिकेट पर माफिया काबिज है, वही अधिकांश फैसले कराने लगा है और आस्ट्रेलिया ने अपने खेल के दम पर इस क्रम को पलटा है। इस बयान से उन लोगों की बाछें खिल गई हैं जो गृहमंत्री अमित शाह और भारतीय क्रिकेट प्रशासन पर हावी जमात के आलोचक रहे हैं।

यह आलोचना अभी से नहीं डालमिया, बिन्द्रा और पवार राज के दिनों से हो रही है और इधर यह शोर बढ़ा है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट पर भारतीय क्रिकेट और क्रिकेट प्रशासन का दबदबा बढ़ा है-निश्चित रूप से बढ़ा है, भारत की मर्जी के खिलाफ ज्यादा उल्टा फैसला होना बंद हुआ है। ऐसा भारत में क्रिकेट के बढ़ने, लोकप्रिय होने और क्रिकेट में बाजार की तरफ से भारी पैसा आने की वजह से ज्यादा हुआ है, किसी माफिया के चलते उतना नहीं। स्वयं पोंटिंग से लेकर आस्ट्रेलिया के ही नहीं, दुनिया के सारे बड़े खिलाड़ियों का ‘इंडियन प्रीमियर लीग’ (आईपीएल) में खेलने को लालायित रहना इसका ही प्रमाण है।

जब से यह बदलाव हुआ है तब से भारत का माफिया प्रभावी हुआ हो या नहीं, भारतीय क्रिकेट प्रशासकों का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से जुड़े फैसलों पर दबदबा बना है या नहीं, लेकिन इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के क्रिकेट प्रशासकों का दबदबा खत्म जरूर हुआ है। भारत ही नहीं तीसरी दुनिया के कमजोर देशों के क्रिकेट प्रशासकों और खिलाड़ियों को उस दबदबे के चलते क्या-क्या भुगतना पड़ा है इसका किस्सा लिखना शुरू हो तो पूरा पुराण बन जाएगा। अपने अनुकूल पिच बनाने जैसी आलोचना तो बहुत ही हल्की है।

अब ऐसा भी नहीं है कि क्रिकेट प्रशासन बहुत लोकतान्त्रिक ढंग से चलता हो या वहां सारा कुछ पाक-साफ ही हो। इस बार ही आयोजन स्थल, मैदान, खेल के दिन से लेकर टिकट की ब्लैकमेलिंग और होटल या विमान भाड़ा तक में जो-जो हुआ उसे ‘हेल्दी हैबिट’ तो कदापि नहीं कहा जा सकता। खिलाड़ियों से ज्यादा क्रिकेट प्रशासकों की अय्याशी की भी चर्चा खेल के लिए स्वस्थ नहीं है। क्रिकेट के प्रसारण राइट्स की कहानी भी गंदली है और दर्शक बढ़ने का ज्यादा लाभ खिलाड़ी और प्रशासन की जगह बाजार उठाता जा रहा है।

इसी का प्रमाण है कि भारत के अंदर भी नेट के जरिए मैच देखने/दिखाने का कारोबार सामान्य टीवी प्रसारण से अलग किया गया है। तब भी वहां साढ़े पाँच करोड़ तक दर्शक पहुंचे ही नहीं हैं, ज्यादा समय तक क्रिकेट देखने का रिकार्ड भी दर्ज हो रहा है। दसियों भाषाओं में कमेंटरी हो रही है। दस सेकेंड के विज्ञापन का रेट तीस लाख रुपए तक पहुँचने की चर्चा है। एक फ़ोटो इस्तेमाल करने की कीमत चुकानी पड़ती है।

क्रिकेटरों के बल्ले से लेकर वर्दी तक पर कितनी कंपनियों के विज्ञापन का बोझ होता है इसकी गिनती मुश्किल हो गई है। कैमरा कहां फोकस करे इसको लेकर झगड़ा होता है। क्रिकेट दिखाने का सामान्य शिष्टाचार पीछे चला गया है। बाजार और ब्रांड के अलावा पर्सनल खुराक और ट्रेनर भी ब्रांड बनाते जा रहे हैं। कमेंटेटरों तक को मिलने वाले पैसे आँख फाड़ने वाले हैं, उपहार और अन्य सुविधाओं का तो हिसाब ही अलग है।

अलबत्ता, क्रिकेट प्रसारकों को भारत के फाइनल में हारने से ही नहीं, धमाकेदार ढंग से लगातार दस मैच जीतकर फाइनल पहुँचने से भी शिकायत रही है। भारतीय गेंदबाज इस बार फाइनल के अलावा लगभग सभी मैचों में सफल रहे और पूरे पचास ओवर की जगह छब्बीस, सत्ताईस ओवर में ही विपक्षी दल को समेट देते थे। विपक्ष के कम स्कोर को धमाकेदार भारतीय बल्लेबाज पचीस-तीस ओवर में ही पूरा कर लेते थे। ऐसा प्रतियोगिता के ज्यादातर मैचों में हुआ और नजदीकी मुकाबले देखने के लिए दर्शक भी तरसे। ऐसे मुकाबलों में बाजार के लोगों को विज्ञापन के लिए कम समय मिलता है। अगर पचास ओवर की पारी चालीस ओवर से पहले निपट जाए तो 7000 से लेकर 7500 सेकेंड के विज्ञापन समय का नुकसान होता है। यह समय ‘कीमती’ है और यह नुकसान बड़ा।

जब विश्वकप और उससे पहले हुए एशिया कप के मुकाबलों (वैसे यह टूर्नामेंट बारिश के चलते बहुत बाधित हुआ) ने श्राद्ध-पक्ष में भी टीवी की रिकार्ड बिक्री से धमाकेदार शुरूआत करा दी थी तो बाजार की उम्मीद काफी होना स्वाभाविक है। उसने बेमौसम कोल्ड ड्रिंक की बिक्री बढ़ाने का अनुभव किया तो कोल्ड ड्रिंक के नए विज्ञापन ही नहीं बढ़े, दो-तीन ब्रांड भी बहुत धूम-धड़ाके से लांच कर दिए गए। इस बार स्टेडियम ही नहीं सड़कों पर भी भारतीय जर्सी का रंग छाया रहा, पर उससे ज्यादा सड़क के किनारे सस्ते ब्रांड और आनलाइन बिक्री में ब्रांडेड माल की धूम रही। देश में सौ करोड की एक ब्रांड की जर्सी बिकने का अंदाजा है। आनलाइन बुकिंग में आठ नौ गुना तक ज्यादा मांग आई है, पर कहना होगा कि फाइनल की हार ने इस धूम-धड़ाके पर रोक ही नहीं लगाई, इसकी चर्चा भी बंद करा दी है।

इन ब्रांडों से ज्यादा नुकसान क्रिकेट को यहां तक पहुंचाने वाले खिलाड़ियों की कमाई में हो गया लगता है। जिस विराट कोहली और रोहित शर्मा ने बल्ले से धूम मचाई, उनका ब्रांड मूल्य या विज्ञापनों की संख्या में ज्यादा वृद्धि का अनुमान नहीं है। यह तब है जब विराट ने अपनी पुरानी मार्केटिंग कंपनी से करार तोड़कर नई कंपनी से करार किया था जिससे नए रेट पाने में आसानी होगी। वैसे अकेले उनकी ही कमाई डेढ़ हजार करोड़ के करीब है।

बाकी तो इस प्रतियोगिता में सबसे ज्यादा धूम मचाने वाले मोहम्मद समी को अभी तक कोई बड़ा ब्रांड नहीं मिला है और बाजार के जानकार मानते हैं कि उनको ज्यादा ब्रांड ही नहीं, ज्यादा रेट मिलने की भी उम्मीद नहीं है। उनको पहले 40 से 50 लाख रुपए प्रति ब्रांड मिलता था जो अब एक करोड़ तक पहुँच सकता है, जबकि बड़े खिलाड़ी और सिनेस्टार दस करोड़ तक पाते हैं। अब पोंटिंग को भारतीय क्रिकेट प्रशासकों पर टिप्पणी करने की सूझी, लेकिन उनको बाजार का यह खेल, यह दादागीरी, यह माफियागिरी समझ आती भी है या नहीं यह कहना कठिन है। वे इससे कहां अलग हैं, यह समझना तो और भी मुश्किल है। (सप्रेस)

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1 टिप्पणी

  1. क्रिकेट खेल का तमाशा देखने उस दिन बाजार की सभी कठपुतलियां मैदान में मौजूद थीं। आश्चर्य तो यह भी की रवीश कुमार ने भी इस फाइनल तमाशे पर एक विडियो बना डाला! बाजार ने सबके सामने टुकड़े डाल रखे हैं।

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