आचार्य राममूर्ति

आचार्य राममूर्ति

कर्मकांडों, मूर्तियों और खोखले ‘भजनों’ के बावजूद सब जानते हैं कि एक व्यक्ति और देश की हैसियत से हम गांधी को भूल गए हैं। यदि गांधी हमारे आसपास होते तो आज हमारी ऐसी आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुर्गति नहीं हुई होती। क्या गांधी की विदाई के तत्काल बाद के सालों में भी वे हमसे इतने ही दूर थे? प्रस्तुत है, गांधी की मौजूदगी, गैर-मौजूदगी पर ‘सप्रेस’ की लाइब्रेरी से चुना गया स्व. आचार्य राममूर्ति का यह लेख।

आचार्य राममूर्ति

कुछ लोग बड़े दुख के साथ कहते हैं कि गांधी का यह देश गांधी को भी भूल गया। गांधी मेरे देश से क्या गए कि ईमान ही चला गया। दूसरी तरफ, कुछ लोगों को संतोष होता है कि अच्छा हुआ गांधी गये – शरीर से तो गये ही, देश के मन से भी चले गये। एक बोझ उतरा। अब देश आज के जमाने के साथ कदम मिलाकर तेजी से चल सकेगा।

एक दिन मेरे एक मित्र ने विनोद में कहा- ’’इस देश का बड़ा कल्याण होगा, अगर सरकार यह आदेश निकाल दे कि जो कोई गांधी का नाम लेगा, उनका चित्र रखेगा, मूर्ति बनाएगा, गांधी पर किताब लिखेगा, वह अपराधी समझा जाएगा और उसे जेल की सजा मिलेगी। मेरे यह पूछने पर कि इससे क्या भला होगा? वे बोले – ’’भला यह होगा कि इस देश के घर-घर में गांधी दुबारा जी उठेंगे। आज तो हालत यह है कि देश न गांधी को छोड़ पा रहा है, न दिल खोलकर उन्हें स्वीकार ही कर पा रहा है।’’

लोग पूछते हैं-अपने ही देश के नहीं, विदेशों से आने वाले लोग तो बहुत जोर देकर पूछते हैं कि जिस देश ने गांधी को राष्ट्रपिता माना उसके जीवन में गांधी कहां है? कोई भी बात  गांधी की बतायी हुई चल रही है क्या? अगर यहां के जीवन पर उनका थोड़ा भी प्रभाव बचा होता तो क्या देश का यह हाल होता?

इन प्रश्नों के उत्तर में अक्सर चुप हो जाना पड़ता है, लेकिन थोड़ा सोचने पर कुछ दूसरी बातें भी सामने आती हैं। सरकार के नेता देश-विदेश में जहां, जब बोलते हैं गांधी का नाम जरूर लेते हैं। सरकार कोई नया कार्यक्रम शुरू करती है तो कोशिश रहती है कि 2 अक्टूबर को शुरू हो। चुनाव में तो गांधी के नाम की धूम मच जाती है। गांधी के नाम के भरोसे वोट लेने का जादू जो है। कांग्रेस कहती है कि गांधी की विरासत उसके पास है। (समाजवादी) डॉ. राममनोहर लोहिया कहते हैं कि गांधी के सत्याग्रह को उन्होंने जितना अपनाया है, दूसरे किसी ने नहीं अपनाया। कम्युनिस्ट लोगों को भी दुख है कि मौजूदा नेतृत्व में देश गांधी के आदर्शों से गिर गया है। सरकार और राजनैतिक दलों से अलग देश के करोड़ों-करोड़ लोग दुख भरे शब्दों में समय-समय पर कह उठते हैं-’’अगर गांधीजी होते तो हम इस तरह अनाथ न होते।’’ दुखी जनता की चाह को आंदोलन बनाने की शक्ति आज किसमें है? दरिद्र को नारायण मानकर उसकी उपासना करने वाला आज कौन है? नेता बोलते हैं, बहुत बोलते हैं, लेकिन अपने दल की ही बात कहते हैं, जनता के दिल की बात कौन कहता है? सत्य भी दल का, जाति का, सम्प्रदाय का, भाषा का हो गया है। कौन है जो सत्ता का भय और सम्पति का मोह छोड़कर सत्य, कठोर सत्य, केवल सत्य और सबका सत्य कहे? जब देश में सभी अपने-अपने लिये गांधी को याद कर रहे हैं तो उन्हें भूला कौन है? बात कुछ दूसरी ही है। देश गांधी को सचमुच भूला नहीं है। वह देखता है कि एक का गांधी, दूसरे के गांधी के खिलाफ खड़ा हो गया है। गांधी की  गांधी से लड़ाई छिड़ गई है।

कांग्रेस का गांधी एक है, सोशलिस्ट का गांधी दूसरा, कम्यूनिस्ट का गांधी तीसरा और जनसंघ (भारतीय जनता पार्टी) का गांधी इन सबसे भिन्न कुछ निराला ही है। गरीब के गांधी का अमीर के गांधी से क्या मेल है? और इन सबके गांधी से भिन्न उस विनोबा का गांधी है जो गांधी का आध्यात्मिक शिष्य है और गुरू का अधूरा काम पूरा करने का दावा कर रहा है। एक गांधी सरकारी दफ्तरों की दीवालों पर टंगा हुआ है, दूसरा ’’बन्द’’ में रेल की पटरी उखाड़ रहा है, तीसरा देश का शत्रु है और चैथा गांव-गांव में जमीन की मालिकी छोड़ने की प्रेरणा दे रहा है। ’’गांधीजी की जय’’ के नारों के साथ और काम तो होते ही हैं, जाति की जाति से, धर्म की धर्म से, भाषा की भाषा से और क्षेत्र की क्षेत्र से लड़ाइयां भी हो रही हैं। सचमुच आज भारत में गांधी के कितने रूप हैं। अगर गांधीजी की आत्मा कहीं स्वर्ग से देख सकती तो इन अनेक रूपों में से किसे अपना मानती? पहचान भी सकती कि ये सचमुच उसके ही रूप हैं?

गांधी बनाम गांधी की यह कशमकश शुभ है या अशुभ? जो भी हो, कम-से-कम इतना तो है ही कि देश गांधी को भूला नहीं है, गांधी को ढूंढ रहा है। कई शक्लों में यह जानने की कोशिश कर रहा है कि असली गांधी कौन है। आखिर माना भी जाय तो किस गांधी को? दल के गांधी को, दफ्तर के गांधी को या दिल के गांधी को?

गांधी जी ने कई बार कहा था कि अगर भारत की जनता केवल ’’नहीं’’ कहना सीख जाय तो क्या नहीं हो सकता। तब अंग्रेजी राज को भगाना था। विनोबा सिखा रहे थे कि हम केवल ’’हां’’ कहना सीख जाएं तो अब भी बात काबू के बाहर नहीं है, सब कुछ हो सकता है। किसी को भगाना नहीं है, मालिक-मजदूर-महाजन सबको मुक्ति की घोषणा करनी है और मिलकर अपना-अपना गांव बनाना है, नयी बुनियादों पर एक नये समाज की रचना करनी है। गांधीजी योजना दे गये थे, विनोबाजी केवल उसकी साधना करा रहे थे। वास्तव में हम गांधी को नहीं, देश को ही भूल बैठे थे। देश के ह्दय में छिपा हुआ गांधी वैभव से दूर झोपड़ियों में प्रकट हो रहा है। (सप्रेस)

 स्व. आचार्य राममूर्ति सर्वोदय दर्शन के सुप्रसिद्ध भाष्यकार रहे।

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