वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

गांधी के नजरिए से मौजूदा लोकतंत्र की समीक्षा की जाए तो उसमें राज्य की सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई ग्रामसभाएं और ग्राम-पंचायतें प्रमुखता से उभरती हैं, लेकिन धीरे-धीरे हमारे लोकतंत्र की बुराईयां गांव और उनके प्रशासनिक ताने-बाने तक पहुंच गई हैं। ऐसे में गांधी के लिहाज से किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

शांति की स्थापना और प्रसार के संदर्भ में गांधी विचारों की अंतरराष्ट्रीय आवश्यकता तो है ही, किन्तु जहां तक भारत का संदर्भ है, दो अक्टूबर 2019 से दो अक्टूबर 2020 के बीच बापू की 150 वीं वर्षगांठ के सरकारी आयोजन खुद सरकारों के लिए भी औपचारिकता मात्र थे। आम जन तो उससे अछूता ही रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने पृथ्वी को ट्रस्ट मानते हुए बापू के ट्रस्टीशिप सिध्दांत का उल्लेख किया था, लेकिन जंगलों, नदियों, पहाड़ों व खनिज दोहन में सरकारें व माफिया राज्यों को कितनी चोट पहुंचाते हैं यह जग-जाहिर है। गांधी का अनुपालन होने में राजनेताओं के वोट बैंक क्षरित होने का जोखिम है इसलिए राजनेता व सरकारें अपना हित गांधी को अप्रासंगिक रहने देने में देख रही हैं। गांधी को अपनाना, स्वार्थवश भी, आज सरकारों को अव्यावहारिक और अप्रासंगिक लग रहा है।

गांधी पंचायतों को आदर्श गणतंत्र की स्थापना के लिए माध्यम व पध्दति दोनों मानते थे। वे पंचायतों में सत्य, अहिंसा, समरसता व व्यक्ति की आजादी, छुआछूत विहीन समाज के सिध्दांतों का अनुपालन चाहते थे। ऐसे वातावरण निर्माण के लिए, गांधी के आदर्शों के अनुसार, बिना राजनैतिक दल के उम्मीदवार बने चुनाव लड़ने की नैतिकता उम्मीदवारों में होनी थी। राजनैतिक दलों में भी दलीय आधार पर पंचायतों में हस्तक्षेप न करने की नैतिकता होनी चाहिए थी, किन्तु सबसे पहले वही तिरोहित हुई।

पिछले चुनावों में यही सिध्द हुआ है कि यथार्थ में ग्राम पंचायत चुनाव भी दलगत आाधर पर ही होते रहे हैं। ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है, जब चुनाव लड़ने वालों को चुनाव लड़ने ही न दिया गया हो, उनका अपहरण कर लिया गया हो, या उन्हें मार दिया गया हो। पंचायतों में अहिंसात्मक वातावरण के विपरीत पंच व प्रधानों को दबावों, आक्रमण, अपहरण के खतरों के बीच काम करना पड़ता है। खासकर उन ग्राम पंचायतों में जहां प्राकृतिक संसाधनों का बाहुल्य है, जहां जमीनों की बाजारी कीमतें बढ़ रही हैं, जहां गैर-कानूनी रेत, बजरी या खनिजों का उत्खनन होता है या जहां बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिए ‘जन-सुनवाई’ कर स्वीकृति लेनी होती है।

पंचायती चुनावों में शराब का इतना बोलबाला रहता है कि महिला उम्मीदवारों तक को भी चुनावों में शराब की मांग से जूझना पड़ता है। पंच-परमेश्वर शराब, हिंसा व धन के बल पर चुने जायें इसके लिए तो गांधी कभी भी हामी न भरते। महिला प्रधानों को नि:र्वस्त्र करने, दलित प्रधानों को कुर्सी पर न बैठने देने या स्वयं ही उनके व्दारा कुर्सी पर बैठने से परहेज करने के समाचार मीडिया में आ चुके हैं। ये हिंसा के प्रतीक भी हैं व छूत-छात व भेदभाव के परिचायक भी। इन सबका एक असर यह भी हुआ है कि कई राज्यों में ग्राम पंचायतें अपनी सीमा के भीतर शराब बिक्री से राजस्व बढ़ाने की अनुमति दे रही हैं।

पंचायतों में खरीद-फरोख्त के प्रलोभनों की बाढ़-सी आ जाती है। यहां तक कि पिछले पंचायती चुनावों के दौरान उत्तराखंड में ‘नैनीताल उच्च न्यायालय’ को हस्तक्षेप करना पडा था। अदालत को उस जनहित याचिका पर राज्य सरकार व ‘राज्य चुनाव आयोग’ से कहना पड़ा था, जिसमें ब्लॉक व जिला स्तर की पंचायतों के चुनाव में लाखों-करोड़ों रूपयों के व्यय पर आपत्ति उठाई गई थी। इसके बावजूद ब्लाक अध्यक्षों के चुनावों के पहले उत्तराखंड पुलिस को लापता दर्जनों पंचायत प्रतिनिधियों को ढूंढने व बरामदी करने के लिए जगह-जगह छापेमारी करनी पड़ी थी।

ग्राम सरकार चलाने वाले पंच-सरपंचों की  सुरक्षा का सवाल भी महत्वपूर्ण होता जा रहा है। भ्रष्ट तौर-तरीकों को अपनाने की मजबूरी, महिला पंचों व प्रधानों में घुटन पैदा कर रही है। कुछ का तो यह भी कहना है कि ‘स्त्रोत’ पर ही इतना पैसा काट लिया जाता है कि बचे हुए पैसों में गुणवत्ता वाला काम करवाना मुश्किल होता है। बिना लिए, दिए या लड़ाई-झगड़े के किये हुए कामों का पेमेन्ट लेना भी मुश्किल होता है। ऐसा ही अनुभव पुरूष प्रधानों व पंचों को भी होता है।

बापू गांवों की राजनैतिक सत्ता चाहते थे। गांधी आत्म-निर्भर व आत्म-निर्णय कर सकने वाले गांवों में आर्थिक प्रजातंत्र की इच्छा रखते थे, किन्तु आज ग्राम पंचायत स्तर के नियोजन की स्वतंत्रता की बात तो छोड़ दें, जिला पंचायत स्तर पर योजना प्रस्तावों में कांट-छांट की जाती है। कारण यह भी है कि गावों और ग्राम पंचायतों की आर्थिक संभावनाओं व आय को दयनीय बना दिया गया है। उनके पास पूर्व निश्चित योजनाओं के लिए ही राज्य या केन्द्र से धन आता है। ऐसे में अपनी प्राथमिकताओं व ग्राम पंचायतों में स्वीकृत योजनाओं पर काम करने की बात धरी रह जाती है। कुछ राज्यों में तो ऐसी निर्लज्जता रही है कि वित्त आयोगों व्दारा स्वीकृत ग्राम पंचायतों के हक के पैसे को भी उन्हें समय से नहीं दिया जाता। वित्तीय कमजोरी के अलावा अधिकारी-कर्मचारियों, खासकर तकनीकी इंजीनियरों आदि का अभाव भी एक समस्या है।

गांधी ग्राम स्वराज्य में व्यक्ति और ग्रामसभा दोनों को महत्वपूर्ण मानते थे। उनकी अपेक्षा थी कि गांव सभाओं में गांव का आमजन सक्रियता से भाग लेगा तथा वहीं गांव की प्राथमिकतायें व जरूरतें पहचानी जायेंगी। इसके विपरीत आज ग्रामीण जन सहभागिता का स्तर यह है कि गांव सभाओं व पंचायत समितियों में वैधानिक संख्या कम-से-कम रखने पर भी कोरम पूरा नहीं होता। ऐसे में उन प्रावधानों का सहारा लेना पड़ता है जिनसे निश्चित कोरम पूरा ना होने पर अपर्याप्त कोरम में ही प्रस्तावों पर कार्यवाहियों का अधिकार मिलता है।

राज्य सरकारें पंचों व पंचायतों को वे सभी अधिकार, विभाग, वित्तीय अधिकार व कर्मचारी देने से कतराती हैं जिनकी वे संवैधानिक हकदार हैं, जबकि गांधी ग्राम पंचायतों में विधायिका, न्यायपालिका व प्रशासकीय इकाई का समवेत रूप देखना चाहते थे। गांवों की स्वायत्तता की बात तो यह है कि गांव सभाओं, ग्राम पंचायतों के न चाहने पर भी,  झूठी-सच्ची खानापूर्ति कर उन्हें नगरों व महानगरों में मिलाया जा रहा है। गांवों की स्वायत्ता के लिए यह आवश्यक है कि ग्राम पंचायतों के पास अपने संसाधनों के साथ विकास का खाका व अधिकार हो व मानवीय अस्मिता के साथ हर ग्रामवासी अपने विकास के लिए, बिना भेद-भाव, भय के पारदर्शी सुराज व स्वराज के लिए गांवों के विकास कार्यक्रमों व सभाओं में सहभागिता कर सके।

निस्संदेह बापू अपने समय में किसी गलतफहमी में नहीं थे। वे मानते थे कि आदर्श ग्राम पंचायतें बनाना या उनके लिए अभियान चलाना आसान नहीं होगा। एक गांव को ही आदर्श ग्राम पंचायत बनाने में पूरा जीवन खप सकता है। गांधी इस कार्य को दुष्कर इसलिए भी मान रहे होंगे कि उस समय समाज में निर्बलों को आज से ज्यादा डर सताता था। व्यक्ति के लिए गांवों के दबंगों या साहूकारों के बीच अपना विचार रखना आसान न था। खुली ग्रामसभाओं में तो ऐसा करना और ही मुश्किल होता होगा। आज भी ऐसे समाचार आ ही जाते हैं कि दलित प्रधान अथवा पंच अपने चाय आदि के बर्तन अलग रखे हुए हैं। चुने गये दलित व महिला पंचों, सरपंचों को उनके पूरे हक से काम करने का वातावरण बनाना ग्राम सुराज के लिए आवश्यक है।  

सारी दुरूहताओं व दुविधाओं के बावजूद भविष्य में जब-जब और जहां-जहां देश में पंचायती राज प्रणाली के चुनाव हों तो कर्मों से बापू के प्रति आस्था प्रगट करने के मौके न सरकारें चूंकें न आम जन। इन संदर्भों में भी आजादी के ‘अमृत महोत्सव’ के दौरान बापू के प्रति सम्मान दर्शाने को सरकारें व राजनेता खुद को परखें-जानें कि उनके निर्णयों से गांवों पर क्या असर पड़ रहा है। हो सके तो उन्हें गाधी के ग्राम सुराज और ग्राम स्वराज की कसौटी पर भी परखें। वर्तमान और भविष्य में राजनैतिक दल व जनता पंचायती चुनावों व ग्राम गणतंत्र को जमीन पर उतारने में जिस तरह का प्रयास करेगी वह ही तय करेगा कि हम गांधी जी को मानते हैं या भुनाते हैं।(सप्रेस)

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