30 जनवरी : गांधी शहादत दिवस

रघुराज सिंह

गांधी की शहादत के लंबे 74 सालों बाद भी हम यदा-कदा उनकी प्रासंगिकता को लेकर सवाल सुनते-उठाते रहते हैं, लेकिन गांधी हैं कि तरह-तरह से हमें अपनी मौजूदगी जता देते हैं। हाल का, दिल्ली की सीमाओं को घेरकर चला किसान आंदोलन अ-शरीरी गांधी की सक्रिय उपस्थिति की तस्दीक करता है। वहां किसानों ने जो, जैसा किया, वह गांधी के मूल्यों का प्रतिबिंब ही था।

21वीं सदी के तीसरे दशक का पहला साल कोई साधारण साल नहीं था। हर हिसाब से यह असाधारण और ऐतिहासिक था। आजादी के बाद के 74 सालों में इसने हमारे लोकतंत्र को नए सिरे से परिभाषित किया। यह साल ऐसा रहा जिसने देश और दुनिया को अहसास कराया कि ‘लोक’ अगर ठान ले तो उसे लोकतंत्र से अलहदा करना मुमकिन नहीं है। गांधी के जन्म के 152 साल बाद यह उनके फिर से अवतरण का साल है। गाँधी तो केवल एक ही थे, लेकिन इस साल लाखों गाँधी एक साथ-एक विशाल समूह में खड़े थे।

लाखों किसानों ने गाँधी को 384 दिन तक जिया। इन दिनों ने उत्सुकता से आन्दोलन की तरफ देखने वाले करोड़ों लोगों को बताया कि गाँधी केवल इतिहास की किताबों में ही नहीं हैं, बल्कि आज भी एक जीवन्त सार्वजनिक उपस्थिति हैं। और, जब तक यह उपस्थिति है, हमारा लोकतंत्र किसी भी अहंकारी को उसके हथियार डालने और माफीनामा पेश करने को मजबूर कर सकता है। इसे चाहें तो अहिंसक प्रतिरोध कहें या सिविल नाफरमानी। 2021 का साल लोकतंत्र के साथ लगे इन नए विशेषणों के लिए जाना जाएगा। यह हिन्दुस्तान के किसानों की ओर से गाँधी को एक मार्मिक, जीवन्त और गौरव से भरपूर श्रद्धांजलि है।

आजादी के बाद के सालों में गाँधी के प्रति इससे बेहतर सम्मान अन्य किसी समुदाय ने नहीं जताया। बाकी के लोगों में से कुछ तो इस दौर में गोडसे का मंदिर बनाने, उसकी पूजा करने और उसे महान राष्ट्रवादी होने का प्रमाणपत्र देने में मशगूल थे, तो कुछ लोग गाँधी को भाषणों में उतार रहे थे, उनके बताए रास्ते पर चलने का आह्वान कर रहे थे, बस चल भर नहीं रहे थे। अकेले किसान थे, जो गाँधी को किताबों और भाषणों से बाहर निकालकर दिल्ली की सीमाओं पर ले गए। विराट बहुमत के अहंकार ने किसानों के रास्तों को कीलों, सीमेन्ट की दीवारों और हथियारबंद पुलिस से रोका। यहाँ तक कि देश की सबसे बड़ी कचहरी ने कहा कि ’आपने बाहर से दिल्ली का दम घोंट दिया है।’ लेकिन सत्ता की यह हेकड़ी अहिंसा के अमूर्त हथियार के सामने टिक नहीं सकी।

किसानों का यह आन्दोलन दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, ‘जाति, वर्ग, सम्प्रदाय और धर्म’ की बागुड़ लांघकर आगे बढ़ा और गांधी की सिविल नाफरमानी की यादें ताजा कर दीं। नई पीढ़ी अगर चाहे तो ’भारत छोड़ो आन्दोलन,’ ‘असहयोग आन्दोलन,’ ‘खिलाफत आन्दोलन,’ ‘नमक सत्याग्रह’ और ‘चम्पारण सत्याग्रह’ के फोटोग्राफ्स से किसान आन्दोलन के फोटोग्राफ्स का मिलान कर ले, उन्हें गाँधी बार-बार नज़र आएंगे। फर्क केवल एक ही दिखेगा कि इस आन्दोलन में गाँधी के कद का कोई नहीं था। लेकिन, गाँधी खुद लाखों किसानों के चेहरों से उभरते महसूस किए जा सकते हैं, सब के चेहरों पर तेज भी गाँधी सा ही था और वैसा ही अदम्य साहस और हिम्मत भी। संभवतः पूरी दुनिया का यह इकलौता आन्दोलन था जिसका कोई एक नेता नहीं था। बल्कि दर्जनों किसान संगठनों के नेता मिलकर आन्दोलन को नेतृत्व दे रहे थे और सब-के-सब अहिंसक और संयमी।

औरतें मर्दो से कहीं भी पीछे नहीं थीं, वे बराबरी की भागीदारी कायम करने में अपनी भूमिका निभा रहीं थीं। गाँधी के जेहन में ऐसी ही नारी तो थी। महिला सशक्तिकरण के खोखले नारों और कार्यक्रमों से परे सशक्त महिला कैसी हो यह इस आन्दोलन में जाहिर हुआ। आन्दोलन में उनकी सहभागिता स्व:स्फूर्त थी, इसका प्रबन्धन नहीं किया जा सकता। 384 दिनों तक लगातार चला यह आन्दोलन इन लाखों औरतों और मर्दो पर भार नहीं था, उन्होंने इसे आनन्द के साथ जिया। ‘अन्नपूर्णा’  कैसी होती है इसके विराट स्वरूप का साक्षात प्रकटीकरण यहाँ देखा गया। औरतें केवल आन्दोलन स्थल पर ही नहीं थीं। वे बड़ी संख्या में पुरूषों की गैरहाजिरी में मैदानों में खेती की देखभाल कर रहीं थीं। उन्होंने रसद आपूर्ति की जंजीर कभी टूटने नहीं दी।

ऐसा नहीं था कि इस आन्दोलन को तोड़ने, बाँटने, बहलाने, लड़ाने और हिंसा उकसाने की कोशिशें नहीं की गईं। ऐसी कोशिशें बहुत हुईं। अफवाह तंत्र, इलेक्ट्रानिक मीडिया और तथाकथित सोशल मीडिया ने यह भ्रम फैलाने में कोई यत्न न छोड़ा कि आन्दोलन बिखर गया है। एक समय ऐसा भी आया जब मीडिया ने आन्दोलन को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया। इसे हिंसक रूप देने की भी कोशिशें हुई, लेकिन किसानों ने संयम से काम लिया और आन्दोलन में अपनी संलग्नता और परिपक्वता भी कम न होने दी।

किसानों के सात सौ ज्यादा साथी शहीद हुए, लेकिन इसका कोई रोना-धोना नहीं था। खेती-किसानी पिछड़ गई थी, इसका अहसान किसानों ने नहीं जताया। किसानों में यह विश्वास जरूर गहरा था कि देश के दूर-दराज के किसानों का समर्थन उनके साथ है। उन्होंने माना कि जो किसान जहाँ हैं, वे वहाँ आन्दोलन के नुमाइन्दे हैं।

गाँधी ने बार-बार कहा है कि मैंने न कुछ नया किया और न दिया, जो समाज और परम्परा में गहरे बसा था, वक्त आने पर उसी की याद दिला दी। इस आन्दोलन में ठीक ऐसा ही हुआ। किसानों ने तीनों कृषि कानूनों को एक क्षण भी स्वीकार नहीं किया। उन्हें ये कानून सरकार और कारपोरेट घरानों का याराना लगते थे। तीन कृषि कानून वापस लेने और खेती से जुडे मसलों के अलावा अन्त तक उनकी अन्य कोई माँग न थी। उन्होंने सिर्फ अपने अधिकार चाहे थे, कोई खैरात नहीं।

गाँधी ने सन् 1909 यानी कोई 113 साल पहले ‘हिन्द स्वराज’ में राजा, किसान, सत्याग्रह और स्वराज की बात करते हुए लिखा है कि ‘आप हिन्दुस्तान का अर्थ मुठ्ठी भर राजा करते हैं। मेरे मन में तो हिन्दुस्तान का अर्थ वे करोड़ों किसान हैं, जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं। राजा तो हथियार काम में लाएंगे ही। उनका यह रिवाज ही हो गया है। उन्हें हुक्म चलाना है। लेकिन हुक्म मानने वाले को तोप बल की जरूरत नहीं है। दुनिया के ज्यादातर लोग हुक्म मानने वाले हैं। उन्हें सत्याग्रह का बल सिखाना चाहिए। जहाँ हुक्म मानने वालों ने सत्याग्रह करना सीखा है वहाँ राजा का जुल्म उसकी तीन गज की तलवार से आगे नहीं जा सकता और हुक्म मानने वालों ने अन्यायी हुक्म की परवाह भी नहीं की है।’  

‘किसान किसी के तलवार-बल के बस न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते, न किसी की तलवार से डरते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मौत का डर छोड़ दिया है, इसलिए सबका डर छोड़ दिया है। बात यह है कि किसानों ने अपने और राज्य के कारोबार में सत्याग्रह को काम में लिया है। जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है। मुझे याद है कि एक रियासत में रैयत को अमुक हुक्म पसन्द नहीं आया, इसलिए रैयत ने गाँव खाली करना शुरू कर दिया। राजा घबड़ाया। उसने रैयत से माफी माँगी और हुक्म वापस ले लिया। ऐसी मिसालें तो बहुत मिल सकती हैं। ऐसी रैयत जहाँ हैं वहीं स्वराज है। इसके बिना स्वराज कु-राज्य है।’

यह तो हुई गाँधी और किसानों के अन्तरसंबंधों की बात। गाँधी ने तो एक बात राजा के लिए भी कही है, जिसे हमारे कई राजाओं ने बार-बार दोहराया है, लेकिन इस बार राजा चूक गया। बात कुछ यूँ है – ’तुम्हें एक जन्तर देता हूँ। जब भी तुम्हें यह सन्देह हो या तुम्हारा अह्म तुम पर हावी होने लगे तो यह कसौटी आजमाओ : जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम तुम उठाने का विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुँचेगा। क्या उससे वह अपने जीवन और भाग्य पर कुछ काबू रख सकेगा? यानि क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा सन्देह मिट रहा है और अहम समाप्त होता जा रहा है।  

अहंकारी सरकार लम्बे चले आन्दोलन में किसानों के साथ न्याय नहीं कर सकी, लेकिन इतिहास जरूर न्याय करेगा। इतिहास सिंधु, टिकरी और गाजीपुर के मैदानों को ‘पानीपत’ और ‘पलासी’ के मैदानों में हुई लड़ाइयों के समकक्ष दर्ज करेगा। हो सकता है इसका दर्जा ‘कुरूक्षेत्र’ का हो जहाँ युद्ध नीति और अनीति के बीच था। ठीक वैसा ही, जैसा इस आन्दोलन में था। इस आन्दोलन और इसके नतीजों ने देश के करोड़ों लोगों का लोकतंत्र में विश्वास मजबूत किया है। (सप्रेस)

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