2 अक्‍टूबर : गांधी जयंती पर विशेष

रघुराज सिंह

महिला-आरक्षण की मौजूदा बहसा-बहसी के बीचम-बीच अरविन्द मोहन की ‘गांधी की महिला फौज’ किताब हमें एक ऐसे नायाब अनुभव से रू-ब-रू करवाती है जिसमें बिना किसी तामझाम के गांधी ने अपनी पलटन में एक-से-बढ़कर-एक योद्धा, कार्यकर्ता और सेवाभावी महिलाओं को शामिल कर लिया था। क्या था, गांधी का यह ‘जादू?’ किताब पर रघुराज सिंह की टिप्पणी

महिला आरक्षण पर चहुंदिस जारी कीर्तन के विलक्षण दौर में, हाल ही में ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ से एक बहुत ही अलग ढ़ंग की किताब छपी है, नाम है ‘गांधी की महिला फौज।’ महीना-डेढ़ महीना पहले छपी इस किताब को लिखा है, वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने। जाने क्यों यह किताब अब तक बाजार में नहीं मिल रही?

पिछले साल अक्टूबर में अरविन्द मोहन को इसी विषय पर सुनते हुए लगा था कि यह महिलाओं और गांधी पर, महिलाओं के सशक्तिकरण की दृष्टि से एक अलहदा व्याख्यान है। व्याख्यान इसी पुस्तक पर आधारित था। किताब अगर व्यापक नजरिए से परखी जाए तो यह गांधी के दौर वाले भारत में औरतों के बदलाव का एक विस्तृत दस्तावेज है।

औरतों में यह परिवर्तन सिर्फ गांधी के कारण ही नहीं आया। इस परिवर्तन को लाने में उस माहौल और उस पर्यावरण की खासी भूमिका रही, जो गांधी ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और कुरीतियों के विरोध में बनाया था। इस बदलाव को लाने में उन महिलाओं की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही जो गांधी के असर में आकर समाजसेवा के विभिन्न दायरों में फैली थीं।

अरविन्द मोहन ने अपनी किताब में एक विस्तृत भूमिका के साथ, गांधी विचार को अभ्यास में लाने वाली 74 महिलाओं के जीवन के उन पहलुओं को दर्ज किया है जिनके बारे में लोगों की जानकारी बहुत कम है। ये अमीर भी हैं, गरीब भी और वे भी जिनका देश भर में ऊँचा रसूख रहा है। वे विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों, जातियों और वर्गों की हैं। उनमें विदेशी भी हैं जिनमें से ज्यादातर ने अपने हिन्दुस्तानी नाम रख लिए थे और गांधी के साथ हमकदम हुईं थीं। उन्होंने अपना घर-परिवार छोड़ा और गांधी के विभिन्न आन्दोलनों से जुड़ीं।

आन्दोलन चाहे देश को आजाद कराने का रहा हो, सत्याग्रहों में आवक-जावक का या फिर सबसे नीचे के तबके की सेवा करने का। इनमें बहुतेरी महिलाएं गांधी विचार की आँच में तपकर खांटी राजनीतिज्ञ भी बनीं। उनके बारे में पढ़कर मालूम होता है कि गांधी-युग की कैसी और कौन-सी दुनिया थी, जब न तो महिला शिक्षा का प्रसार था और न ही तथाकथित आधुनिकता का प्रभाव। इनमें से ज्यादातर वे थीं जो परदे और घर की दहलीज के बाहर पहली बार निकलीं थीं।

किताब बताती है कि भारत लौटने के कुल 15 साल बाद गांधी ने वर्ष 1930 में जब ‘नमक सत्याग्रह’ शुरू किया, तब तमाम पाबंदियों के बावजूद बीस हजार से ज्यादा औरतों ने गिरफ्तारियाँ दी थीं। आज तक दुनिया भर में किसी क्राँति, किसी आन्दोलन में इतनी औरतें जेल नहीं गईं। औरतों को मताधिकार की वकालत गांधी तब करते हैं, जब दुनिया में इसकी चर्चा लगभग नहीं थी। परदे से निकलना या धरने पर जाकर चुपचाप बैठ जाना कोई क्राँतिकारी काम है, यह कल्पना गांधी ही कर सकते थे।

इस किताब में शामिल महिलाओं के बारे में लिखने के पहले अरविन्द मोहन गहरी खोजबीन करते हैं। वे कुछ और महिलाओं को लेकर भी लिखना चाहते थे, लेकिन उनके विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव था। आन्दोलनों में जिस स्तर पर महिलाओं की भागीदारी रही उसमें 74 की संख्या एक प्रतिनिधि आंकड़ा ही कहा जाएगा।

किताब में जिन महिलाओं का जिक्र है, वह उनसे संबंधित आश्चर्यजनक जानकारियों से भरपूर है। सबसे पहले जिक्र ब्रिटिश मूल की नेल्ली सेनगुप्ता का, जिनके बारे में आज शायद ही कोई जानता हो। वे अपने बांग्ला मित्र से शादी कर इंग्लेंड से भारत आईं और जल्दी ही गांधी के प्रभाव में आकर खुद अपनी पितृभूमि के खिलाफ आन्दोलन में शामिल हो गईं और बार-बार जेल गईं।

वर्ष 1934 के कलकत्ता कांग्रेस-अधिवेशन के नामित अध्यक्ष मदनमोहन मालवीय को अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था। उस समय गांधी ने, जो स्वयं जेल में थे, नेल्नी सेनगुप्ता को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया। इस विदेशी मूल की महिला ने सारी चुनौतियों का सामना करते हुए हजारों लोगों को जुटाकर अधिवेशन करा दिया। वे खुद अपना अध्यक्षीय भाषण नहीं कर सकीं, लेकिन कांग्रेस की तीसरी महिला अध्यक्ष होने के नाते अंग्रेजों को आन्दोलन की ताकत का अहसास करा दिया। आजादी के बाद उन्होंने अपना जीवन पूर्वी बंगाल (आज का बांग्लादेश) में रचनात्मक सक्रियता में बिताया।

गांधी के रचनात्मक आन्दोलनों से आजीवन जुड़ी रहीं दूसरी महिला थीं, कैथरीन मेरी हेईलमन जिन्हें गांधी ने ही सरला बहन नाम दिया था। ब्रिटेन में पढ़ाई के दौरान गांधी के अहिंसक संघर्ष का विचार उनको आकर्षित करने लगा। बहुत मुश्किलों के बाद गांधी ने उन्हें आश्रम में रहने की अनुमति दी। वे यहाँ रहकर पूरी तरह भारतीय रंग में ढल गईं और 1941 तक आश्रम में रहीं। बाद में गांधी ने उन्हें कुमाऊँ भेजा, जहाँ उन्होंने श्रमशील, अशिक्षित महिलाओं के बीच लम्बे समय तक काम किया। सरला बहन ने शराबबंदी, खादी, प्राकृतिक खेती और जंगल की रखवाली जैसे कामों से वहाँ की महिलाओं को जोडा। बाद में ये ही महिलाएं विख्यात ‘चिपको आंदोलन’ की योद्धा बनीं। उन्होंने हिन्दी में बाईस किताबें भी लिखीं।

ऐसी ही एक और शख्सियत थीं, मार्गरेट कजिंस, जिन्होंने गांधी के रचनात्मक कामों और जीवन शैली को अपनाया और महिलाओं की जागृति, शिक्षा, महिला अधिकार और राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान दिया, जेल गईं। उनका अन्तिम संस्कार हिन्दू रीति से हुआ। उनके साथ ही सोंजा श्लेशिन, मार्जरी साइक्स, एश्थर फेयरिंग, मुरियल लिस्टर और मेडलीन स्लेड (मीरा बहन) भी हैं जिन्होंने गांधी के साथ जुड़कर विभिन्न राजनीतिक और रचनात्मक कामों में उनका साथ दिया।

ऊँची शिक्षा और अति प्रभावशाली खानदानों से निकलीं और गांधी से चमत्कृत होकर सारी सुख सुविधाएँ छोड़कर आन्दोलनों और सत्याग्रहों में गहरे तक समा गईं कई महिलाएं बहुत से गांधीवादियों से आगे निकल गईं। इनमें पहला नाम है, डॉ. सुशीला नैयर का, जो आज के पाकिस्तान में जन्मीं। दिल्ली के मशहूर ‘लेडी हार्डिंग कालेज’ से डाक्टरी पढ़कर 1939 में जब वे ‘सेवाग्राम’ पहुँचीं, तब वहाँ भयंकर हैजा फैला था। वे इलाज और राहत के काम में जुट गईं। गांधी जी उनकी कम उम्र और सेवा के प्रति निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए। डा0 विधान चन्द्र राय की सलाह पर उन्होंने सुशीला नैयर को अपना निजी डाक्टर ही बना लिया।

सन् बयालीस के आन्दोलन में सुशीला भी बा और बापू के साथ जेल गईं। महादेव भाई और बा की मृत्यु इसी जेल प्रवास में हुई। इस दौर की डायरी उन्होंने रोज लिखी, गांधी जी ने इसे उपयुक्त माना। उनकी यह डायरी उस वक्त का सबसे भरोसेमंद इतिहास बताती है। ‘सेवाग्राम आश्रम’ में उन्होंने पहले ‘कस्तूरबा अस्पताल’ खोला, जो बाद में देश का विख्यात मेडीकल कालेज बना। गांधी के ब्रह्मचर्य के प्रयोग में साझीदार होने की पहली सार्वजनिक स्वीकृति उनकी ही थी। वे बाद में भारत की स्वास्थ्य मंत्री भी रहीं।

ऐसी ही एक दूसरी महिला राजकुमारी अमृत कौर थीं। नाम के अनुरूप वे कपूरथला राजघराने की राजकुमारी थीं जो परिवार के विरोध के बावजूद ‘सेवाग्राम’ आईं थीं। वे गांधी की निज सहायक भी रहीं। वे आक्सफोर्ड से पढ़ी-लिखी थीं। उन्होंने गांधी से प्रेरणा लेकर परदा-प्रथा का विरोध, देवदासी समाज के कल्याण और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों के खिलाफ व्यवस्थित काम किया। बाद में वे ‘संविधान सभा’ की सदस्य रहीं और आजाद भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री भी। दिल्ली में ‘ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस’ (एम्स) बनाने की पहल उन्हीं की थी। उन्होंने कई और स्वास्थ्य संस्थान भी बनाने में योगदान दिया। वे ईसाई थीं, लेकिन उनका अन्तिम संस्कार सिख रीति से हुआ।

गांधी के यहाँ सभी की जगह थी। आर्यसमाजी स्वामी श्रद्धानन्द की पोती सत्यवती, उडीसा के मुख्यमंत्री की पत्नी मालती चौधरी, केरल की अक्कम्मा चेरियन और अम्मू स्वामीनाथन, गांधी की गोद ली बेटी लक्ष्मी, दादा भाई नौरोजी परिवार की चार लड़कियां, गांधी से जूझने वाली बीबी अमतुस्सलाम, जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती, रेहाना तैयबजी, दोस्तों जैसी सरोजनी नायडू, अम्मा जैसी हैसियत वाली आब्दी बानो, ‘स्वदेशी आन्दोलन’ को आगे बढ़ाने वाली कम पढ़ी-लिखी गंगा बहन सभी गांधी के विशाल परिवार का अन्त तक हिस्सा बनी रहीं। महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, एमएस सुब्बुलक्ष्मी और कमलादेवी चट्टोपाध्याय जैसी साहित्यकार और कलाकार भी गांधी की टोली में रहीं। अरूणा आसफअली, सुभद्रा जोशी, सुचेता कृपलानी जैसी महिलाएं भी गांधी की फौज में थीं, बाद में जिन्होंने देश की राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई।

अरविन्द मोहन के मुताबिक यह बदलाव अकेले गांधी ने नहीं किया। उनकी सही और संतुलित सोच, अच्छी रणनीति और कई बार औरतों के लिए विशेष अवसर देने का अपना महत्व है, लेकिन असल में यह काम तब सचेत हुई लड़कियों, गांधी और गांधीवादी नेताओं के सम्पर्क में आई महिलाओं ने किया। गांधी के आने और नेतृत्व तक पहुँचने के बाद जिस तरह महिलाएं सामने आईं और हर क्षेत्र में सक्रिय हुईं वह अपने आप में मिसाल है, लेकिन यह किताब गांधी के ‘जादू’ पर नहीं है। यह उनके प्रभाव से सामने आईं हजारों बहादुर महिलाओं में से कुछ की कहानी पर है। इन्होंने सिर्फ अपना रूपया-पैसा और गहना ही समर्पित नहीं किया, गांधी और मुल्क पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। (सप्रेस)

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