डॉ.कश्मीर उप्पल

भारत में लोगों को रोजगार देने वाली पूंजी का कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से देश से पलायन जारी है। नरेन्द्र मोदी बहुत तेजी से ‘विकास’ की रेल दौड़ा रहे हैं। वातानुकूलित डिब्बों में बैठे लोग चाहते हैं कि रेल और तेज चले परन्तु किसानों, बेरोजगारों और अन्य गरीबों के डिब्बों में आग लगी हुई है। गरीब चाहते हैं उनके जीवन में लगी आग बुझे, पर पूंजीवादी वर्ग चाहता है कि रेल और तेज दौड़े। वहीं दूसरी ओर भारत की रोजगार की दर गिर रही है। यदि हम आरक्षण और रोजगार की सरकारी अर्थनीति को समझ नहीं सके तो आरक्षण सदा के लिए अंधों का हाथी बना रहेगा।

हम यह भूल गये हैं कि हमारे संविधान में नागरिकों के बीच गैर-बराबरी हटाने के प्रावधान है। अंग्रेजों के लगभग 200 वर्षों के शासकाल में भारत का हजारों सालों में बना सामाजिक ताना-बाना ढह गया था। अंग्रेजी शासन के फलस्वरुप देश का, जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ वही सामाजिक-आर्थिक और धार्मिक विमता के रुप में हमें विरासत में मिला था।

हमें स्मरण करना चाहिए कि भारत में अंग्रेजों के आने के पूर्व के शासनों में एक ताब्दी में औसतन केवल तीन अकाल पड़ते थे। इसका अर्थ है औसतन 33 वर्ष बाद एक अकाल पड़ता था। वारेन हेसं‍िटग्ज ने जमींदारी को नीलाम करना शुरु कर दिया। सन् 1815 तक सबसे ऊँचीं बोली बोलने वाले को किसानों से लगान वसूलने का हक देना शुरु कर दिया।

इसके फलस्वरुप कस्बों के धनी लोगों ने जमींदारी खरीदना शुरु कर दिया। नये जमींदार किसानों से बढ़ा हुआ लगान क्रूरतापूर्वक वसूलते। जमींदारों ने किसानों के हित में किये जाने वाले कल्याणकारी कार्य बन्द कर दिये। इन नीतियों के कारण सन् 1800 से 1900 के बीच 22 अकाल पड़े। अंग्रेज इतिहासकार विलियम डिग्बी लिखते हैं ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने जो कुछ किया या न किया ये 22 अकाल हमारे शासन के फलस्वरुप है।’

 अंग्रेजी शासन की नीति वस्त्र उद्योग, खनन, रेल्वे, बैंक, बीमा और अन्य क्षेत्रों में भी शोषणकारी थी। अकेले रेल्वे सेवा में लगे कुछ सौ यूरोपियों को लाखों पौंड वेतन के रुप में दिये गये। वहीं हजारों भारतीय रेल कर्मचारियों का वेतन अंग्रेजों को दिये वेतन से अत्यंत कम था।

 महात्मा गांधी भी लिखते हैं कि अंग्रेजों की विदेशी कपड़ा नीति के कारण करोड़ों बुनकरों से उनकी आजीविका के साधन छिन गए थे। अंग्रेजी शासन की नीतियों के फलस्वरुप गांवों से किसानों और कारीगरों का पलायन शुरु हो गया। आजकल पुनः ग्रामीण क्षेत्रों से हरों की ओर पलायन बहुत तेजी से बढ़ गया है। पलायन का अर्थ है मृत्यु से जीवन की ओर की यात्रा।

भारत सरकार ने 1991 में स्वतंत्र व्यापार की नीतियों को स्वीकार कर लिया। आज के देश के नये आर्थिक-परिदृश्य में कहा जा रहा है कि डॉ० मनमोहन सिंह एक सुस्त प्रधानमंत्री थे क्योंकि उन्होंने विदेशी पूंजी निवे और निजीकरण की रेल को धीरे-धीरे चलाया था।

आजकल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उसी रेल को देश के पूंजीपतियों के ईंधन से फुल-स्पीड में दौड़ा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रुप में पथ लेने के बाद अपने प्रथम निर्णयों से भारतीय योजना आयोग की व्यवस्था को समाप्त कर दिया। एक अन्य निर्णय में सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद भी सरदार सरोवर बांध की ऊँचाई बढ़ाने का निर्णय लेकर देश और दुनिया के पूंजीपतियों को हरी झंडी दे दी।

इस निर्णय से नर्मदा नदी से उद्योगपतियों को पानी और बिजली मिल रही है। इसके साथ ही मध्यप्रदे और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में विस्थापन और पलायन बढ़ा है। हजारों साल पुरानी सभ्यता और संस्कृति नष्ट हो रही है।

सरकार की इन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरुप देश के 1 फीसदी लोगों के पास देश की कुल सम्पत्ति का 73 फीसदी भाग एकत्रित हो गया है। इसका आय है कि देश की 73 फीसदी सम्पदा के प्रबंध एवं परिचालन का अधिकार 1 फीसदी लोगों के हाथों में दे दिया गया है।

विगत कुछ वर्षों में देश के लगभग 400 करोड़पतियों ने अमेरिका,यूरोप, आस्टेªलिया और कनाडा आदि देशों की नागरिकता ग्रहण कर ली है। स्मरणीय है कि अन्तर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार करोड़पति वही है जिसके पास 10मिलियन या 1 करोड़ डॉलर की पूंजी होती थी। अंग्रेज भारत का धन लूटकर अपने देश ले गये थे। आज के भारत के करोड़पति विदेशी नागरिकता अधिकार खरीदकर भारत की पूंजी विदे ले जा रहे हैं।

भारत में लोगों को रोजगार देने वाली पूंजी के कानूनी और गैर-कानूनी तरीके से देश से पलायन जारी है। नरेन्द्र मोदी बहुत तेजी से विकास की रेल दौड़ा रहे हैं। वातानुकूलित डिब्बों में बैठे लोग चाहते हैं कि रेल और तेज चले परन्तु किसानों, बेरोजगारों और अन्य गरीबों के डिब्बों में आग लगी हुई है। गरीब चाहते हैं उनके जीवन में लगी आग बुझे पर पूंजीवादी वर्ग चाहता है कि रेल और तेज दौड़े। वे भूल जाते हैं कि सामान्य लोगों के डिब्बों में लगी आग कभी वातानुकूलित डिब्बों तक भी पहुँच सकती है।

यह देखा जाता है कि अक्सर गरीब लोग अपने मालिक द्वारा दिये गए कपड़ों और हैट को पहनकर अपना रौब दिखाते हैं। इसी तरह विकासशील देश विकसित देशों की बुलेट ट्रेन और स्मार्टहरों की नकल कर विकास का टोप पहन विकसित देश नहीं कर सकता है। विकास का आभासी दुनिया का जादू देर तक नहीं चलता है।

सरकार का ध्यान बड़े और बहुराष्ट्रीय संगठित क्षेत्र को आगे बढ़ाने पर केन्द्रित मॉडल है। हमारे दे को 80 प्रतित रोजगार असंगठित क्षेत्र देता है। यह क्षेत्र नोटबंदी और जीएसटी की मार से जर्जर अवस्था में पहुंच चुका है।

आजकल निजी क्षेत्र उत्पादन के लिए ऑटोमेन तकनीक का उपयोग कर रहा है। रोबोट कभी कुछ नहीं मांगता न वेतन और न पेंन। हमारे देश में रोबोट का सबसे अच्छा उदाहरण पैसा निकालने और जमा करने की एटीएम मशीनें हैं।

सरकारी संस्थानों का विनिवेशीकरण, ठेका प्रणाली और पीपीपी मॉडल रोजगार के साधनों को न्यूनतम कर रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के बहुत कम बजट के कारण गरीबों में आरक्षण की योग्यता की कमी होती जा रही है। सेना और पुलिस के शारीरिक मापदंड को कुपोषित परिवारों के बच्चे पूरा नहीं कर पा रहे हैं। सेना और पुलिस का काम रोबोट नहीं कर सकते इसलिए इनकी सबसे अधिक भर्ती होती है।

संसद के ग्रीष्मकालीन सत्र में सरकार द्वारा बताया गया है कि एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के 28713 पद रिक्त हैं। केन्द्र सरकार की में अनुसूचित जाति का 17.49, अनुसूचित जनजाति का 8.47 और अन्य पिछड़ा वर्ग का 21.5 फीसदी का प्रतिनिधित्व है। यदि इसमें राज्यों में पड़े खाली पदों को भी जोड़ दिया जाये तो आरक्षण की भयावह तस्वीर सामने आ जायेगी।

विश्व बैंक ने हाल में ही कहा है कि भारत में हर महीने 13 लाख लोग कामकाज की उम्र में प्रवेश करते हैं। भारत की रोजगार की दर गिर रही है। भारत को सालाना 81 लाख रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे परन्तु यह केवल निजीकरण से संभव नहीं है। केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने भी रोजगार में कम वृद्धि की बात स्वीकार की है।

हम यदि आरक्षण और रोजगार की सरकारी अर्थनीति को समझ नहीं सके तो आरक्षण सदा के लिए अंधों का हाथी बना रहेगा। हमें इस राजनीति को समझना चाहिए कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था के ताने-बाने को नष्ट करके अंग्रेजों ने जो व्यवस्था बनाई थी, हमने उसी को अपना आदर्श मान लिया है। इस समय महात्मा गांधी की ‘शैतानी सभ्यता’ की अवधारणा को एक बार फिर समझना होगा।

अंग्रेजों के जाने के 70 वर्षों बाद देश पुनः अमेरिका और यूरोप की नकल कर विकास की नीतियों को अपना रहा है। ये नीतियां हमें कभी भी आर्थिक समानता और रोजगार के अवसर नहीं देंगी। अतः आरक्षण की नीति पर बहस करने से कुछ नहीं होगा। हम सभी को देश की पूंजीवादी नीतियों के विरुद्ध एकजुट होकर एक नया सत्याग्रह आन्दोलन चलाना होगा। यही केवल एक और अंतिम मार्ग है। (सप्रेस)

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