योगेश दीवान

चाहे विधानसभाओं, संसद के चुनाव हों या जगह-जगह जारी समाजसेवा,नक्सलवाद हो या मौजूदा विकास की परियोजनाएं,आदिवासियों के बिना किसी की कोई दाल नहीं गलती। दूसरी तरफ,वे ही आदिवासी सर्वाधिक बदहाली भी भोगते हैं। देशभर में करीब आठ फीसदी आबादी वाली जनजातियों की आखिर ऐसी विचित्र हैसियत कैसे बन गई? क्या उनके इतिहास में ही इसके कोई सूत्र छिपे हैं?

मध्यप्रदेश की तीन ‘पीवीटीजी’ (पर्टीकुलरली वल्नरेबल ट्राइबल ग्रुप) बैगा, सहरिया व भारिया में भारिया एक अलग पहचान रखते हैं। 12 से 1500 फीट गहरे एक तरह के गढ्ढे में बसे 12 गांवों में इनका निवास है, जो सतपुड़ा घाटी का हिस्सा है। इसी कारण इस जगह को पातालकोट या कहीं पाताल-खोह भी कहते हैं। कुछ साल पहले तक सिर्फ नमक के लिये इनका बाहरी दुनिया से मिलना और निकलना होता था। इनका खान-पान, संस्कृति, मनोरंजन सब कुछ आस-पास ही था।

छिंदवाड़ा जिले (म.प्र) के तामिया विकास खण्ड में निवासरत भारिया अपनी भौगोलिक-सांस्कृतिक खूबियों के साथ बाहरी दुनिया के लिये एक तरह का अजूबा हैं। बिना इनसे कोई सलाह-मशविरा किये आज विकास के मुख्यधारा मॉडल ने यहां भी प्रवेश कर लिया है। यही कारण है कि पन्द्रह से बीस साल पहले का पातालकोट आज रोड, गाड़़ी, शहर, भवन, स्कूल, बालवाड़ी, कहीं-कहीं बिजली, खान-पान और पहनावे में एकदम बदला हुआ दिखता है।

मुख्यधारा के विकास ने उन्हें स्कूल भी उपलब्ध कराया और छोटी-मोटी नौकरी भी और इस सबको जीने-संवारने के लिए एक अन्य भाषा, यानी टूटी-फूटी हिन्दी भी, पर यह सब पाया कुछ अपना खोते और छोड़ते हुये। पता नहीं ये पाना सही है कि छोड़ना गलत, पर दुःखद तो जरूर है। इस विकास की दो आवाजें निकलती हैं, एक विकास जरूरी है जो शुरू हो चुका है और दूसरा जिसकी उन्हें जरूरत ही नहीं थी। वे अपनी संस्कृति में ज्यादा मस्त और मजे में थे। उन पर यह विकास जबरन थोपा गया।

पर्यावरणवादी या वर्तमान विकास को नकारने वाली समझ से ‘सस्टेनेबल डवलपमेन्ट’ का फंडा निकला है। आश्चर्य है कि हिन्दी, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में इसके लिये आज तक कोई शब्द नहीं है। ये असफल होते पूंजी केन्द्रित विकास का नया नारा है और ज्यादा खतरनाक भी, पर यहां भी पूरी दुनिया के देशज-आदिवासी-मूलनिवासी की सोच या आवाज कहीं नहीं हैं। भारिया भी ऐसी ही हाशिए की आबादी है। उसकी बात, उसके अपने हक में अभी सुनी जाना बाकी है कि आखिर वो क्या चाहता है, क्यों चाहता है और कैसे चाहता है।

असल में आदिवासी समाज को देखने के सबके अपने-अपने नजरिए हैं। आधुनिक पूंजीवादी दुनिया के ‘विकास मॉडल,’ जिसमें शिक्षा, तकनीक और उससे बनी संस्कृति को महत्व दिया जाता है, की पद्धति को पूरी दुनिया के आदिवासी, देशज या हाशिए के समाज पर लागू करने का दबाव बनाया जाता है। यह एक केन्द्रीकृत सत्ता आधारित सोच है। वहीं एक और समझ मुद्दा आधारित पर्यावरण संरक्षण, संस्कृति, सभ्यता तथा पंरपरा के आधार पर इस मॉडल को नकारती है। यह समझ, बिना उनके स्तर पर संवाद किये, आदिवासी समाज को आदिम युग के समान रखने-रहने-जीने को महत्व देती है और इसी में उसका विकास और सुख देखती है। यह समझ कई सवालों को नकारकर आदिवासियों की संस्कृति, समाज को रोमॉन्टिसाईज करके अपने विचार उनके ऊपर थोपना चाहती है।  

एक और नजरिया भी है, स्वयं उस समाज का, जिसे हम आदिवासी, मूल-निवासी या प्रकृति का दावेदार और संरक्षक कहते हैं। भारिया अपनी उत्पत्ति को साज के पेड़ की जड़ से जोड़कर देखते हैं, जबकि गोंड़ों की उत्पत्ति को साज की पत्ती से जोड़कर देखा जाता है। उनके अनुसार इसलिये वे पेड़ को पूजते हैं और गोंड सिर्फ पत्ती को। आज इनकी लड़ाई भी अपनी संस्कृति, परम्परा और अतीत के आस-पास घूमती है। इनका इतिहास सन् 1734 में सिद्धू-कान्हू के संघर्ष से लेकर बिरसा मुंडा, तांतिया भील तक जाता है। ये अथवा इस तरह के सैकड़ों सघर्षों का केन्द्र जल, जंगल, जमीन को बचाने के साथ संस्कृति तक का रहा है। संस्कृति का सवाल एक व्यापक एकरूपता के बावजूद कोस-कोस और अलग-अलग आदिवासी समाजों में बदलता रहता है। इसलिये गोंडों की पहचान भारिया, बैगा या  भील से अलग होती है।

यहां एक और बड़ा सवाल है कि संस्कृति, परम्परा या जीवन कोई रूकी हुई वस्तु नहीं हैं, बल्कि समाज और प्रकृति के साथ लगातार चलाय-मान या परिवर्तन शील हैं। समाज की प्रक्रिया अपने विकासक्रम में ऐसे ही चलती है इसलिये खान-पान, पहनने-ओढ़ने, धर्म-संस्कृति, कर्मकांड एक हद तक भाषा-बोली अपने मूलतत्व के साथ लगातार बदलती रहती है। इसमें एक बड़ी भूमिका उत्पादन के संसाधनों का नियंत्रण या सम्पत्ति का बंटवारा भी निभाता है। आदिम-काल से आज के पूंजीवादी दौर तक की बदलती तकनीक, औजार और नियंत्रण हमें काफी कुछ ऐसा दिखाते हैं। यही संस्कृति, सभ्यता है और आगे चलकर यही इतिहास और परम्परा बनती है।

मौजूदा ‘स्थाई विकास’ की सोच पूंजीवादी दुनिया की ऐसी ही खतरनाक राजनीति है जिसे हाशिये के आदिवासी, दलित, महिला या खेतिहर मजदूर के लिये आदर्श मॉडल के रूप में बताया जाता है। 2015 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने दुनिया की गैर-बराबरी, भुखमरी को पाटने के लिये ‘सस्टेनेबल गोल्स’ शब्द का इस्तेमाल किया था जो आज दुनिया के हर देश के विकास मॉडल की प्रमुख राजनीति है। यह राजनीति प्राकृतिक संसाधनों – जल, जंगल, जमीन या संपत्ति पर पूरी निर्दयता से कब्जा कर रही है। हमारे आस-पास के पर्यावरण, पहचान या मुद्दा आधारित संघर्ष करने वाले ‘सस्टेनेबल’ के नाम पर इसे ही बचाने की वकालत करते रहते हैं। असल दावेदारों से छिनते और कुछ लोगों के हाथों में सिमटते उत्पादन के साधन या पूंजी पर सवाल उठाना या प्राकृतिक संसाधनों पर सबका हक या बंटवारे की बात करना सही सवाल और संघर्ष हो सकता है, पर उसे नकारना, कमजोर करना या लड़ाई को कहीं और डायवर्ट करना ही असल पूंजीवादी-सामंतवादी राजनीति है।

असल में आदिवासियों को उनकी ‘जडों’ से बेदखल करने, संसाधनों से उन्हें उजाड़ने, उन्हें हाशिए पर पटकने अथवा उनके आस्तित्व को ही नकारने का इतिहास पूरी दुनिया में लगभग 500 साल पुराना है। इसी दौर में इनके संघर्ष का इतिहास भी दिखाई देता है। एक नई औद्योगिक, पूंजीवादी, हिंसक और आक्रामक दुनिया का इतिहास भी इसी के आस-पास शुरू होता है, बल्कि कह सकते हैं कि असल द्वंद्व दो विचारधाराओं के बीच या देशज, मूल-निवासी अथवा हमारे आदिवासी और बाहरी अक्रान्ताओं के बीच यहीं से शुरू होता है। इसे ही उपनिवेश कहा गया। तथाकथित ‘नईदुनिया’ की खोज, जिसमें इटली निवासी स्पेन के एक जहाज-चालक कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज का दावा सबसे चर्चित, हिंसक, डरावना तथा मानवता के खिलाफ था।

जब वर्ष 1993 को ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा ‘आदिवासी वर्ष’ घोषित किया जाता है तो पूरी दुनिया में एक नई तरह की एकजुटता, समझ, सवाल और संघर्ष की शुरूआत होती है। देशज वर्ष किसी उदारता से घोषित नहीं किया गया, बल्कि यह एक संघर्ष का परिणाम था। जब योरोप-अमेरिका की शोषक दुनिया ने 1992 में 12 अक्टूबर को ‘कोलंबस दिवस’ मनाने के लिये स्पेन द्वारा ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में प्रस्ताव रखवाया तो अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलेंड और कनाडा की देशज आबादी ने इसका जोर-शोर से विरोध किया। उनका मानना था कि कम-से-कम ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ को ‘उपनिवेशवाद’ का उत्सव नहीं मनाना चाहिये। बाद में पूरी दुनिया में इसका विरोध हुआ।

दूसरी ओर, 1972 में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ ने ‘संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग’ को देशज लोगों के खिलाफ हो रहे पक्षपात, दमन और अत्याचार का अध्ययन करने की जिम्मेदारी सौंपी। यही वह दौर था जब न सिर्फ कोलंबस की खोज का, बल्कि आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलेन्ड तथा उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका के कई देशों में उनकी खोज के उत्सव मनाए जा रहे थे। इसी के खिलाफ हर जगह देशज, स्थानीय निवासी विरोध में खड़े हो रहे थे। ‘छठे दशक’ को पूरी दुनिया में ‘उपनिवेश विहीन दशक’ कहा जाता था, पर ‘सातवें दशक’ में आते-आते अपने प्रकृतिक संसाधनों के नियंत्रण एवं उपयोग को लेकर आदिवासियों और स्थानीय सरकारों के बीच द्वंद्व तथा संघर्ष खड़ा हो गया। पूंजीवादी विकास के माडल ने नव-स्वतंत्र देशों में भी आदिवासियों को उजाड़ने, बेदखल करने की शुरूआत कर दी। इन देशों में विकास का पूरा केन्द्र उन्हीं इलाकों में बना जहां भरपूर जल, जंगल, जमीन और खदानें थीं।

इस तरह जहां एक तरफ उत्तरी या दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया जैसे देशों में ‘नईदुनिया’ की खोज के नाम पर स्थानीय लोगों को खदेडा गया, वहीं भारत अथवा अन्य स्वंतत्र हुए देशों में विकास के नाम पर इनकी बली ली गई। आज नई आर्थिक नीतियों के कारण इन्हें उजाड़ने की रफ्तार और तेज हो गई है। विशालकाय निजी क्षेत्र इन इलाकों को पूरा-का-पूरा हड़पना चाहता है। इसलिये आज संघर्ष पहले से कहीं ज्यादा बड़ा और तीखा है। आशा की थोड़ी सी किरण पूरी दुनिया के देशज, आदिवासी, मूल-निवासियों की एकजुटता में दिखाई देती है। इसमें बड़ी भूमिका 1993 में घोषित ‘आदिवासी वर्ष’ को जाती है। 1993 के बाद हर साल 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाना इस एकजुटता की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। (सप्रेस)

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