डॉ. अश्विनी जाधव

अजीब बात है कि अपने आसपास रहने-बसने वाले घुमन्‍तु लोगों के बारे में आम समाज निरा अनजान है और उन्‍हें ज्‍यादा-से-ज्‍यादा अपराधिक जातियों की तरह पहचानता है। कौन हैं, ये ‘विमुक्‍त’ और ‘घुमन्‍तु’ समुदाय?

आम समाज के कितने लोगों को मालूम है कि ‘विमुक्त समुदाय’ ने पिछले महीने की आखिरी तारीख, 31 अगस्त को अपना 68वॉ ‘विमुक्त दिवस’ मनाया है? ‘विमुक्त एवं घुमन्तु समुदाय राष्ट्रीय समन्वय समूह’ और ‘विमुक्त समुदाय का स्वतंत्र आन्दोलन’ जैसे संगठनों और संस्थाओं ने विमुक्त समुदाय से जुड़े मुद्दों पर इस वर्ष अनगिनत कार्यक्रम आयोजित किये हैं और लगातार करते आ रहे हैं। इसके बावजूद आज भी सामान्य समुदाय विमुक्त समुदाय से अनजान ही है। 

क्यों मनाते हैं, ‘विमुक्त दिवस?’ भारत में जब ब्रिटिश प्रशासन ने व्यापार बढाया और रेवेन्यू वसूलना प्रारंभ किया तो भारतीय वनों पर कानूनी कब्जा करने की मुहर 1865 के ‘भारतीय वन कानून’ ने लगा दी थी, लेकिन फिर भी ‘घुमन्तु समुदाय’ की प्रवृत्ति के कारण ब्रिटिश उपनिवेशवाद उन पर नियंत्रण नहीं कर पार रहा था। घुमन्तु प्रवृति होने के कारण यह समुदाय आजादी के आन्दोलनों में भी सन्देश और जरूरी सामग्री पहुंचाने का काम करता था। कुछ लोग आजादी के आन्दोलन में सक्रिय भी थे। वनों पर निर्भर समुदायों की वनसंपदा लूटने के लिये अंग्रेजों ने उन पर नियंत्रण करना जरूरी समझा। इसलिये ब्रिटिश शासकों ने, जिन घुमन्तु समुदायों से अधिक खतरा था, उन्‍हें 1871 में ‘आपराधिक जनजाति कानून’ लाकर अपराधिक जनजाति घोषित कर दिया। ‘विमुक्त समुदायों’ पर अपराधी जनजातियों का लेबल लगा दिया गया और उन्‍हें खुले बंदीगृह में 81 वर्षो तक रखा गया।

इस कानून के मुताबिक पहचान के लिये दिन में दो से तीन बार उनके अंगूठे के निशान लिए जाते थे। उनसे बागानों में जबरदस्ती मुफ्त काम करवाया जाता था। बच्चों को माता-पिता से अलग रखा जाता था। इन समुदायों को ना केवल बंदी बनाया गया, बल्कि इन पर भिन्‍न भेष-भूषा और संस्कृति अपनाने के लिये दबाव डाला गया। इससे घुमन्तु जीवन शैली में बड़ा बदलाव आया। धीरे-धीरे पुरूष को बाहरी काम की जिम्मेदारी दी गई और महिलाओं को घर सम्भालने की। उनकी कहानियों और गीतों में ऐसे तत्वों को शामिल किया गया जिससे उन्‍हें अपराधी होने का बोध हो।

भारत तो पॉच साल पहले ही आजाद हो गया था, लेकिन इस समुदाय को पॉच साल और अपनी आजादी के लिये इंतजार करना पड़ा। वर्ष 1952 की 31 अगस्त को भारतीय संसद ने ‘अपराधिक जनजातीय कानून – 1871’ निरस्त कर दिया। जहॉ भी इन समुदायों को बंदी बनाया गया था, वहां से उन्‍हें निकाला गया। यही कारण है कि ‘विमुक्त समुदाय’ हर वर्ष 31 अगस्त को ‘विमुक्त दिवस’ मनाता है। उनको अपराधिक जनजाति की श्रेणी से हटाकर प्रशासनिक तौर पर ‘विमुक्त श्रेणी’ की पहचान दी गई है।

भारत में 150 से अधिक ‘विमुक्त जनजातियां’ हैं। घुमन्तु जनजातियां जंगल-आश्रित, पशुपालक और मनोरंजन करने वाले समुदायों में शामिल हैं। इनको कई नामों, जैसे-पारधी, खासी, बंजारा, गाडिया-लोहार या घिसाडी, बहरूपियॉ, नट, बंदरवाले, भालूवाले एवं कठपुतलीवाले आदि के नामों से जाना जाता है।

क्रमिक विकास में खेती की खोज के साथ समाज दो प्रकार के समुदायों में बंट गया था। एक, जो स्थाई रूप से बस कर खेती करने लगा और दूसरा, एक स्थान से दूसरे स्थान, मार्ग बनाकर घूमने वाले अस्थाई या ‘घुमन्तु विमुक्त समुदाय।‘ ‘घुमन्‍तु समुदाय’ स्थाई रूप से बसे समुदायों के आसपास अस्थाई कबीले या डेरा डालकर ना केवल रहते हैं, बल्कि स्थाई समुदायों को उस दौरान अपनी सेवायें, जैसे-लोहे के औजार, पत्थर के सामान, वहां के जंगलों से जडी-बूटियां खोजना और बेचना, अपने पशुओं से मांस, दूध आदि बेचना जैसी जरूरतें भी पूरी करते हैं। किसान फसल कटने के बाद खाली जमीनों पर ‘घुमन्तु समुदायों’ के पशुओं को बारी-बारी अपने खेतों में बैठने के लिये बुलाते हैं, ताकि पशुओं के गोबर से उनकी जमीनें उपजाऊ बनें। यातायात साधनों के आभाव में वे स्थाई समुदायों को बाजारों से दैनिक जरूरत का सामान पहुंचाने में भी मदद करते हैं।  

औद्योगीकरण के साथ रेल विकास, यांत्रिकीकरण और वस्तुओं का बडे पैमाने पर व्यापार प्रांरभ हुआ तो स्थाई समुदायों को चीजें आसानी से उपलब्ध होने लगीं। वनसपंदाओं के व्यवसायीकरण के साथ वनसंपदा पर निर्भर इन समुदायों को जंगलों से बाहर करने की रणनीतियां बनने लगीं। ब्रिटिश प्रशासन ने ‘भारतीय वन कानून-1865’ बनाकर इन समुदायों के जगंलों में जाने पर प्रतिबंध लगाया जिसके कारण कई समुदायों को अपने पारंपरिक व्यवसायों को छोडना पडा। 

अपराधिक कानून के निरस्तीकरण के बाद हाशिये की इन जनजातियों की राह और कठिन हो गई। भारत सरकार ने 1952 में ही अपराधिक कानून के तहत इन विमुक्त व घुमन्तु समुदायों को आदतन अपराधी घोषित कर दिया। नतीजे में इन जनजातियों आज भी अपराधी जनजातियों के नाम से ही जाना जाता है। इस आपराधिक कलंक के कारण ना केवल इस समुदाय को प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है, बल्कि पुलिस प्रशासन इस समुदाय के लोगों को शंका के आधार पर ही पकड़ लेता है।

एक ओर इन समुदायों के पारंपरिक व्यवसाय समाप्त कर दिये गये, दूसरी ओर आपराधिक कलंक के कारण कोई अन्य समुदाय इन्‍हें काम नहीं देता। आज भी शिक्षा, आवास और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिये ये समुदाय संघर्ष कर रहे हैं। अनुसूचित जाति और जनजाति व पिछड़ा वर्ग जैसे अन्य समुदायों की तरह इन घुमन्तु समुदायों के विकास के लिए किसी भी प्रकार के वैकल्पिक अवसर पैदा नहीं किये गये। घुमन्तु शैली होने के कारण इन समुदाय के पास कोई भी पहचान पत्र नहीं हुआ, ना ही सरकार ने उनके पहचान पत्र बनाने पर जोर दिया। यहां तक कि सरकार ने इनकी जनगणना भी अलग से करना उचित नहीं समझा। यह समुदाय सरकार की सामान्य योजनाओं के लाभ से आज भी वंचित है।

यह समुदाय देश के राज्यों में ही नहीं, बल्कि जिलों में भी अलग-अलग श्रेणियों में गिने जाते हैं। कुछ पिछडे वर्ग में तो कुछ अनुसूचित जाति और जनजाति की श्रेणी में हैं। इन समुदायो को प्रताड़ना और आत्याचारों से संरक्षण देने के लिये कोई कानून नहीं बनाया गया। आजादी के बाद इनके विकास के लिये जो अवसर उपलब्ध कराये जाने चाहिये थे उसमें सरकारें विफल साबित हुईं। देश की आजादी के 50 साल बाद सरकार ने इनके अस्तिव को माना और पहला आयोग ‘बालकृष्ण रेन्के आयोग’ का गठन किया। इस आयोग ने कई सिफारिशें सरकार को सौंपीं, लेकिन सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाये। जाहिर है, इसीलिये यह समुदाय अभी भी अतिवंचितों में शामिल है।

अपराधिक होने का तमगा इन समुदायों का पीछा एक साये की तरह कर रहा है। कई जनजातियां काम की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर गई हैं। शहरों में उनको हम मनिहारी बेचते, पन्नी बीनते और चौराहों पर खडे देख सकते हैं। वैश्‍वीकरण ने इन समुदायों की पारंपरिक आजीविकाओं को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है। जिन जडी-बूटियों को जंगलों से इकट्ठा कर वे बेचते थे, वही आज उनको बाजार से खरीद कर बेचना पड़ रहे हैं। स्वास्थ और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं के बढते निजीकरण ने इनको इन सुविधाओं की पहुंच से दूर कर दिया है।

कोरोना महामारी के कारण सरकार द्वारा लगाई गई तालाबंदी से पूरी अर्थव्यवस्‍था चरमरा गई है। उद्योग-धंधे पूरी तरह ठप्‍प हो गये हैं। देश में लगी तालाबंदी ने हाशिये के विमुक्त और घुमन्तु समुदाय की परिस्थितियों को और बदतर कर दिया है। शहरों में जो समुदाय सिगनल पर भीख मांगकर और सामान बेचकर पेट भरते थे, तालाबंदी के कारण ना तो वे सिगनल पड़ खड़े हो सकते हैं ना ही लोग अभी बहार निकल रहे हैं। निर्माण कार्य पूरी तरह बंद हैं। आर्थिक तौर पर देखें तो यह समुदाय तंग हालातों से गुजर रहा है। राजस्थान के कई घुमन्तु समुदाय जो मनोरंजन और रोड़ के किनारे खिलौने बेचकर जीवन चलाता था, पिछले पॉच मॉह से सड़कों पर नहीं है। ऐसे में समुदाय की महिलाओं मजबूरन देह व्यापार में जाना पड़ रहा है। पहचान पत्र नहीं होने के कारण उन्‍हें सरकार की मुफ्त योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाया। कई परिवार कर्ज लेकर घर चला रहे हैं। सरकार के अर्थिक पैकेज में भी इस समुदाय को जगह नहीं मिली है।

सरकार को इन विमुक्त और अतिवंचित समुदायों की ओर विशेष कदम उठाने की आवश्यकता है। पहले तो तालाबंदी में इन समुदायों तक दैनिक जरूरतों की सामग्री तत्काल पहुंचाएं। आज तक इन समुदायों के लिये गठित कुल छह आयोगों की सिफारिशों पर तत्काल प्रभाव से अमल किया जाए। सरकार ‘अभ्यस्त अपराधी कानून’ को निरस्त कर इस समुदाय के लोगों को भी एक आम नागरिक की तरह जीवन जीने का अधिकार दे। इस समुदाय की सभी जनजातियों को एक श्रेणी में, जैसे-विमुक्त, घुमन्तू और अर्द्ध-घुमन्तू के तहत राज्य और केन्द्र दोनों स्तरों पर विशेष आरक्षण उपलब्ध कराये, ताकि उन्‍हें शिक्षा और रोजगार के विशेष अवसर मिलें। उनकी अलग से जनगणना की जाये। हर वर्ष राज्य और केद्र स्तर के बजट में विमुक्त और घुमन्तु समुदायों के विकास के लिये विशेष योजनाऐं और बजट रखे जाऐं। (सप्रेस) 

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