योगेन्द्र यादव

एक ठीक दर्शक या पाठक की तरह आंख-कान खोलकर देखें तो अनुसूचित जातियों, जनजातियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों जैसे तबकों को मीडिया में मिलने वाली नगण्‍य सी जगहें साफ देखी जा सकती हैं। विडंबना यह है कि हमारी कुल आबादी में ये ही तबके तीन चौथाई से अधिक जगह घेरते हैं। क्या इसकी वजह मीडिया में इन तबकों की गैर-मौजूदगी नहीं है?

कुछ साल पहले दो वरिष्ठ पत्रकारों – जितेन्द्र कुमार और अनिल चमडिया के साथ मैंने एक रोचक सर्वेक्षण किया था। भारत में राष्ट्रीय मीडियाकर्मियों की सामाजिक पृष्ठभूमि बताने वाले इस तरह के संभवत: पहले सर्वेक्षण की यह शुरुआत थी। यों उसे सर्वेक्षण नाम देना भी एक ज्यादती होगी, उसे मीडियाकर्मियों की कामचलाऊ गणना जरूर कहा जा सकता है। हम तीनों ने अपने ही दम पर ही यह काम किया था।

अचरज की बात थी कि यह काम बडा आसान साबित हुआ। हम लोगों ने 40 मीडिया प्रतिष्ठानों (हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के टीवी चैनल्स तथा अखबार) की सूची बनायी और वहां काम कर रहे कुछ लोगों से निवेदन किया कि वे अपने-अपने मीडिया प्रतिष्ठान के 10 संपादकीय स्तर के शीर्ष निर्णयकर्ताओं की एक सूची तैयार करें। इस काम में छोटी-मोटी कठिनाइयां तो थीं, लेकिन ये मुश्किलें ऐसी नहीं थीं जो अंतिम निष्कर्ष पर बहुत ज्यादा असर डालें।

इसके बाद हम लोगों ने सूची के प्रत्येक नाम के साथ धर्म, लिंग तथा जाति से संबंधित सूचना जोड़ी। कुछ तो अपने बारे में ऐसी जानकारी देने के लिए खुशी-खुशी राजी हो गये, लेकिन ज्यादातर संपादक ऐसी जानकारी नहीं देना चाह रहे थे। ऐसे में हम लोगों ने पत्रकार-बिरदारी के ऐसे लोगों से पूछा जो इन संपादकों तथा उनके परिवार-जन को इस भली तरह जानते-पहचानते थे कि उनकी जाति के बारे में बता सकें।

नतीजे हमारी आशंकाओं की पुष्टि कर रहे थे। इस सूची में दर्ज नामों में कुल 88 प्रतिशत अगड़ी जाति के हिंदुओं के थे, जबकि इस तबके के लोगों की संख्या देश की आबादी में 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। अकेले ब्राह्मण जाति के सदस्य, जिनकी संख्या देश की कुल आबादी में 2-3 प्रतिशत से ज्यादा नहीं, इस सूची में 49 प्रतिशत थे। सूची में कोई भी नाम ऐसा नहीं निकला जो दलित अथवा आदिवासी समुदाय का हो।

गौरतलब है कि ‘अन्य पिछडी जातियां’ (ओबीसी), जिनकी तादाद देश की आबादी में 45 प्रतिशत बतायी जाती है, शीर्ष स्तर के मीडियाकर्मियों की इस सूची में मात्र 4 प्रतिशत थे। इस तरह दृश्य बिल्कुल उलटे पिरामिड का बन रहा था : अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा ओबीसी, जिनकी तादाद देश की आबादी में 70 फीसद से ऊपर है, राष्ट्रीय मीडिया में शीर्ष स्तर के वैसे पदों पर, जहां से निर्णय लिए जाते हैं, मात्र 4 प्रतिशत थे।

हमने आमफहम गैर-बराबरी की सूचना देने वाले कुछ और तथ्य भी दर्ज किये, जैसेः सूची में महिलाओं की संख्या मात्र 16 प्रतिशत थी और मुस्लिम समुदाय के मीडियाकर्मियों की संख्या केवल 3 प्रतिशत। कुल मिलाकर हमारी इस कवायद से यही पता चला कि भारत के राष्ट्रीय मीडिया में सामाजिक विविधता का अभाव है और उसमें देश के विभिन्न सामाजिक वर्गों का सही प्रतिनिधित्व नहीं है।  

पिछले महीने, अक्टूबर 2022 में ख्यात वैश्विक एनजीओ ‘ऑक्सफैम इंडिया’ ने ‘हू टैल्स अवर स्टोरीज मैटर्सः रिप्रेजेन्टेशन ऑफ मार्जिन्लाइज्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन मीडिया’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है जिसने हमारी अनौपचारिक रिपोर्ट को पुष्ट किया है। ‘ऑक्सफैम’ की यह रिपोर्ट सालाना कड़ी की चौथी रिपोर्ट है जिसकी शुरूआत 2019 में ‘मीडिया रम्बल’ नाम के जलसे में की गई थी।

‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट का दायरा बडा और सैंपलिंग व्यवस्थित है। इस रिपोर्ट में अखबार और टीवी चैनल्स के अतिरिक्त डिजिटल मीडिया के प्रतिष्ठानों को भी शामिल किया गया है। संभव है कि आगे आने वाली रिपोर्टों में वे दायरे का विस्तार करते हुए उनमें क्षेत्रीय मीडिया को भी शामिल करें।

नेतृत्व वाले पद तथा उच्च स्तर के संपादकीय पदों की परिभाषा भी अब ज्यादा सटीक बन गई है। ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट में टीवी के एंकर, पैनलिस्ट तथा वैसे पत्रकारों का भी विश्लेषण किया गया है जिनकी रिपोर्ट के साथ उनका नाम (बाय-लाइन ) जाता है। रिपोर्ट के लिए आंकडे ज्यादा पारदर्शी तथा कठिन मेहनत से जुटाये गये हैं।

‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट के मुताबिक नेतृत्व के पद पर सभी श्रेणियों में काबिज 218 व्यक्तियों में से 88 प्रतिशत अगड़ी जाति के हिन्दू हैं। दरअसल यह संख्या 90 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी, बशर्ते आप आकलन से उन लोगों की संख्या को हटा दें जिन्होंने सर्वेक्षण के दौरान जवाब में ‘मालूम नहीं’ कहा।

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा ओबीसी को एक साथ मिला दें तो इन वर्गों के सदस्यों की तादाद रिपोर्ट में 7 प्रतिशत बतायी गई है, यानी आबादी के हिसाब से मीडिया के नेतृत्व वाले पदों पर इन वर्गों के लोगों की जितनी संख्या होनी चाहिए उसका दसवां हिस्सा। अगर आप मैगजीन और डिजिटल मीडिया को हटा दें तो फिर हमारे अंग्रेजी तथा हिन्दी के अखबारों और टीवी चैनल्स में इन तीन वर्गों के सदस्यों की संख्या नेतृत्व के पदों पर एकदम से शून्य हो जाएगी।

मौजूदा सर्वे इस मामले में एक कदम आगे कहा जाएगा कि उसमें टीवी के एंकर, पैनलिस्ट तथा विभिन्न मीडिया-मंचों के बाय-लाइन वाले पत्रकारों की सामाजिक पृष्ठभूमि का आकलन और विश्लेषण किया गया है। आप इस सर्वेक्षण की सैकड़ों तालिकाओं को पढ़ते चले जाइए, यहां-वहां के चंद अपवादों को छोड़कर हर जगह बड़ी तस्वीर आपको एक सी मिलेगी। विश्लेषण की हर श्रेणी में हिन्दू समुदाय के अगड़ी जाति के सदस्यों की संख्या 70 से 80 प्रतिशत तक है। यहां तक कि जाति से जुड़े मसलों की कवरेज के मामले में भी आपको यही तादाद देखने मिलेगी।

इस तरह बड़ी तस्वीर यह निकलकर सामने आती है कि देश की 20 प्रतिशत आबादी की आवाजें मीडिया के 80 प्रतिशत हिस्से पर काबिज हैं और बाकी की 80 प्रतिशत आबादी की आवाज मीडिया के महज 20 प्रतिशत हिस्से तक सीमित है। मतलब, जैसा गोरे अंग्रेजों के शासन ने दक्षिण अफ्रीका में किया था, हमने वैसा बिना रंगभेद की किसी औपचारिक नीति का पालन किये ही कर दिखाया है।

यह बात रेखांकित की जानी चाहिए कि अगड़ी जाति का हर मीडियाकर्मी ऊंची जाति की मानसिकता वाला हो- ऐसी बात कतई नहीं है। जरूरी नहीं कि गोरी नस्ल का हर अंग्रेज अपनी मानसिकता में गोरी जाति की श्रेष्ठता-बोध की ग्रंथि पाले बैठा हो या फिर हर पुरूष मर्दवादी अहंकार से ग्रस्त हो। फिर भी, क्या इसे एक संयोग मात्र माना जाये कि जातिगत उत्पीड़न की घटनाओं की मीडिया में नाम-मात्र की कवरेज होती है?

क्या यह महल संयोग है कि सांप्रदायिक झगडे-फसाद की घटनाओं की कवरेज जातिगत संघर्ष की घटनाओं की कवरेज की तुलना में नौ गुना ज्यादा होती है? क्या इसे संयोग माना जाये कि रोजमर्रा के तौर पर मीडिया में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाती सुर्खियां लगती हैं? क्या इसे महज इत्तेफाक माना जाये कि जातिगत जनगणना के विरूद्ध राष्ट्रीय स्तर पर तकरीबन सर्व-सहमति सी बना ली गई है?

आज के वक्त में विदेश के पढे-लिखे अगड़ी जाति के अभिजन ने न्याय की ऐसी परिभाषा अपना ली है जो उधार की है और उसका संदर्भ पश्चिमी मुल्कों से जुड़ा है। हम आजकल इस बात की चिंता करने लगे हैं कि पैनल में बैठे सभी पुरूष ही थे। अगर किसी चर्चा में कोई अश्वेत ना शामिल हुआ हो तो हम इसे ओछेपन की दलील मानते हैं, लेकिन यह बोध कभी हमारे भीतर बहुत गहरे नहीं उतरता। हम कभी उन विशेषाधिकारों के बारे में नहीं सोचते जो हमें भारतीय संदर्भ में जन्मना ही हासिल हो जाते हैं।

‘मैं तो अपनी जाति के बारे में जानता तक नहीं’ जैसी प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त भारत का अभिजन शायद ही कभी ऐसे मसलों पर कुछ और कहता-सोचता आपको मिलेगा। क्या भारतीय मीडिया आत्म-सुधार और आत्म-परिष्कार के लिए तैयार हो पायेगा? या हमें इंतजार करना होगा कि कोई मीडिया के बाहर से आये और मीडिया में पैठी जाति की जकड़बंदी को तोड़े? (सप्रेस)

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