डॉ. कश्मीर उप्पल

अंग्रेज सेना के एक मामूली सिपाही शिशिर सर्बाधिकारी की डायरी न सिर्फ ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ के प्रत्यक्ष अनुभवों और नायाब जानकारियों को उजागर करती है, बल्कि उस दौर के इतिहास को एक भिन्न नजरिए से पेश करती है।

हिन्दुस्तानी सैनिक ब्रिटिश साम्राज्य के लिए ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ (1914-1918) के डेढ़ सौ वर्ष पूर्व से ही विश्व के कई देशों में युद्ध लड़ते आ रहे थे। इन सैनिकों के बारे में अंग्रेजों द्वारा लिखी गई पुस्तकों से ही जानकारी मिलती है। इनमें भी हिन्दुस्तानी सैनिकों के वृतान्त बहुत कम मिलते हैं। ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित लेखक अमिताभ घोष को एक भारतीय सैनिक द्वारा ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ के संस्मरणों पर आधारित एक पुस्तक की जानकारी मिली तो उन्होंने कोलकाता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में उस पुस्तक को खोज निकाला। यह भी इसलिए संभव हुआ कि उस समय हर मुद्रित पुस्तक की एक प्रति राष्ट्रीय पुस्तकालय में जमा कराना जरूरी होता था।

भारतीय सैनिक शिशिर सर्बाधिकारी द्वारा ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ पर लिखा गया ‘आन टू बगदाद’ अपनी तरह का पहला संस्मरण है। यह आज भी भारतीय संदर्भ में बहुत अधिक अर्थवान है। विश्वयुद्ध पर आधारित अधिकांश लेखन अंग्रेज उच्चाधिकारियों की जुबान में ही मिलता है। इनमें भारतीय संस्मरणों में यह अकेला है। सुमन केसरी और माने मकर्तच्यान द्वारा संपादित पुस्तक ‘आर्मेनियाई जनसंहार: ऑटोमन साम्राज्य का कलंक’ (राजकमल प्रकाशन) में अमिताभ घोष के द्वारा इस पुस्तक का विस्तृत वृतान्त शामिल है। एक भारतीय सैनिक द्वारा मध्यपूर्व के युद्ध में बिताए समय और सैनिकों की कैद के बारे में लिखा यह संस्मरण अभूतपूर्व आख्यान है।

नरसंहार और युद्ध की विभीषिका का आंखों देखा और भोगा हुआ यथार्थ बीस वर्षीय युवक शिशिर सर्बाधिकारी अपनी डायरी में नोट करता था। वह ‘बंगाल एम्ब्यूलेंस कोर’ का एक स्वयंसेवक था। शिशिर ने ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ प्रारंभ होते समय अपनी स्नातक डिग्री हासिल कर ली थी। वह बंगाल के एक मध्यम वर्गीय परिवार से था और बांग्ला के साथ-साथ अंग्रेजी में भी बहुत निपुण था। इस युद्ध की विभीषिका पर टुकड़ों-टुकड़ों में लिखी गई डायरी उसके अदम्य साहस और देश के प्रति समर्पण का एक अनूठा दस्तावेज है।

‘प्रथम विश्वयुद्ध’ में ब्रिटिश साम्राज्य की तरफ से 2 जुलाई 1915 को ‘छठी पूना रेजीमेंट’ के साथ ‘बंगाल एम्ब्यूलेंस कोर’ के स्वयंसेवकों का एक दल भी रवाना हुआ था। ये सैनिक मेजर-जनरल चार्ल्स टाउनशेड के नेतृत्व में बसरा बन्दरगाह पहुंचे और वहां से बगदाद की ओर बढ़े थे। इस अभियान में प्राचीन शहर टेसिफान में एक बड़ी टर्की सेना से इनका कठिन मुकाबला हो गया। इसके फलस्वरूप वहां भारतीय सेना को एक महीने की रसद के साथ पांच महीने तक भीषण घेराबंदी का सामना करना पड़ा। इस घेराबंदी में अनेक भारतीय सैनिक भूख और बीमारी से मर गये। अन्तत: जनरल टाउनशेड ने टर्की सेना के कमांडर खलील पाशा के सामने 29 अप्रैल 1916 को आत्मसमर्पण कर दिया। यह बर्तानिया की एशिया में सबसे बड़ी पराजय मानी जाती है।

भारतीय सैनिकों को कुछ महीनों बाद ट्रेन से समारा भेज दिया गया। इसके बाद मेसोपोटामिया की जलती गर्मी में इस सेना की कठिन पदयात्रा शुरू हुई। शिशिर की पुस्तक में इस यात्रा की क्रूरताओं और कष्टों का विस्तार से उल्लेख है। इसमें जो बंदी भूख और थकावट से रुक जाते थे उन्हें वहीं मरने के लिए छोड़ दिया जाता था। अक्सर सैनिकों की कोड़ों और बेंत से पिटाई भी की जाती। शिशिर की दूरदृष्टि सैनिकों के उत्पीडऩ के साथ-साथ आसपास देखे सामाजिक उत्पीडऩ और जनसंहार को भी देखती और समझती रहती थी।

हिन्दुस्तानी सैनिकों और सैन्य चिकित्सकों के दल के सदस्यों को रास-अल-ऐन के इलाकों में बंदी बनाकर रखा गया था। इसी शहर के आसपास आर्मेनियाई नागरिकों के नरसंहार के भयानक कत्लेआम हुए थे। इन परिस्थितियों में शिशिर की डायरी में हिन्दुस्तानी सैनिकों और आर्मेनियाई नागरिकों की नियति अक्सर गुथी हुई मिलती है। शिशिर समय और अवसर मिलते ही आसपास के घटनाक्रम को अपनी डायरी में दर्ज करता था। इस भय से कि कहीं भेद न खुल जाये शिशिर अपनी डायरी जमीन में गाड़ देता था।

शिशिर लिखता है कि समर्पण के बाद मैंने डायरी को चिंदी-चिंदी कर अपने जूतों में भर दिया था और बाद में बगदाद में इन चिंदियों को जोड़-जोड़कर एक नई डायरी बना ली थी। इसीलिए शिशिर की पुस्तक के मुख्यपृष्ठ पर एक सैनिक के जूते का चित्र दिया गया है। शिशिर बताता है कि टाइग्रिस नदी को पैदल पार करते वक्त जूतों में रखी डायरी लगभग नष्ट हो गई थी, हालांकि उसने पेंसिल से लिखा था इसलिए सारी लिखावट धुली नहीं थी। बाद में उसने डायरी को सुखाया और पदयात्रा के दौरान नए नोट्स भी लिये। यहां भी कुछ समय के लिए डायरी को जमीन में गड़़ाकर रखना पड़ा था। इसके बाद अलेप्पो शहर के एक अस्पताल में इस डायरी को दोबारा लिखा गया।

शिशिर अपनी डायरी में यात्रा में पड़े गांवों की प्रकृति, खेतों और घरों की बनावट आदि का भी वर्णन करता है। वह एक गांव की घटना याद करता है जहां कुएं में झांककर देखने पर कीड़ों का एक बादल सा निकलकर उड़ा था। महज जिज्ञासावश कुएं में झांककर देखने पर उसमें अनेक आर्मेनियाई नागरिकों के सड़े हुए शव दिखलाई पड़े थे। भारतीय सैनिकों को कुछ दिन बाद निस्बिन से रास-अल-ऐन लाया गया जहां आने के लिए उन्हें 500 मील की पदयात्रा मात्र 46 दिन में पूरी करनी पडी थी।

इस स्थान के कैंप के बारे में वह लिखता है कि यहां राशन की आपूर्ति अनियमित है और खाना पकाने के लिए ईंधन भी उपलब्ध नहीं कराया जाता। भारतीय सैनिक ईंधन के लिए ऊंट की लीद और टहनियां एकत्रित करने मीलों भटकते रहते थे। एक दिन टर्की सुरक्षा कर्मियों ने कैंप की तलाशी शुरू कर दी और शिशिर ने अपनी डायरी वहीं रेत में दफना दी। इस कैंप के कुछ कैदियों को रेल की पटरी बिछाने के काम में लगा दिया गया था। हिन्दुस्तानी शिविर में घातक बीमारी टाइफस फैली थी, लेकिन शिशिर इस व्याधि से बच गया और वह बीमार लोगों की देखभाल में लग गया।

हिन्दुस्तानी कैदियों की तुर्की में यह पहली सर्दी थी और अनेक कैदियों के पास गरम कपड़े और जूते भी नहीं थे। हिन्दुस्तानी कैदियों से नंगे पैर बर्फ से ढकी रेल पटरियों पर काम करवाया जाता था। भारतीय सैनिकों पर शीतदंश का वार होता जिससे उनका मांस गल-गलकर गिरने लगता और वे गैंगरीन की चपेट में आ जाते। एक ब्रिटिश अधिकारी ईए वाकर के अनुसार 75 फीसद हिन्दुस्तानी कैदी पहले साल ही काल के गाल में समा गये थे। इसके बाद शिशिर को 50 गंभीर मरीजों के साथ अलेप्पो शहर के अस्पताल भेज दिया गया।

शिशिर की डायरी से यह महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट होता है कि एक गुलाम देश के नागरिकों को ही नहीं, वरन् गुलाम देश के सैनिकों को भी दोयम दर्जे का सैनिक समझा जाता था। वह लिखता है कि एक अधिकारी अस्पताल में मिलने आया और कैदियों को उसने पैसे दिये। अंग्रेजों के लिए पांच लीरा, रूसियों के लिए चार और भारतीयों के लिए तीन लीरा। यह पैसा ब्रिटिश या हिन्दुस्तानी युद्धबंदी-कोष से आता था फिर भी भारतीय सैनिकों को बहुत कम मात्रा में दिया जाता था। शिशिर लिखता है यह इसलिए कि हम पराजित कौम अंग्रेजों के गुलाम, बल्कि अश्वेत भी थे। यह हमारे लिए घोर अपमानजनक है।

शिशिर लिखता है कि हिन्दुस्तानी सिपाहियों को गोरे सैनिकों की तुलना में न केवल आधा वेतन मिलता, बल्कि राशन भी अलग तरह का मिलता है। ब्रिटिश सैनिक चीनी के साथ चाय पीते और भारतीय सैनिक खराब गुड़ के साथ। इसी तरह भारतीय कैदियों को कैंटीन में जाने की अनुमति नहीं थी, सिर्फ अंग्रेज सैनिक ही वहां खरीददारी कर सकते थे। वह इस बात पर दुख व्यक्त करता है कि दोनों सामान रूप से युद्ध की विभीषिका झेलते हैं फिर भी भेदभाव क्यों किया जाता है। वह बताता है कि ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों का राशन भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होता था।

तुर्की सैनिक अक्सर हिन्दुस्तानी सैनिकों को प्रताडि़त करते रहते थे। शिशिर एक कार्पोरल के बारे में बताता है जो अक्सर रोगी हिन्दुस्तानी सैनिकों की बेवजह पिटाई किया करता था। वह लिखता है कि भारतीय कैदियों को सन् 1917 में खबर लगी कि रूस में क्रांति हो गई है और मध्यपूर्व में अब लड़ाई का रूख बदल गया है तथा तुर्की की पराजय होने लगी है। इसी समय यह खबर भी लगी कि अब इस अस्पताल को तत्काल बंद कर दिया जायेगा। एक दिन हिन्दुस्तानी कैदियों को बताया गया कि उसी रात उनके लिए एक रेलगाड़ी आने वाली है। इस रेलगाड़ी में सभी भारतीय सैनिक त्रिपोली पहुंचे और पोर्ट-सईद के लिए जहाज पर चढ़ गये। शिशिर और उसके साथी 8 जनवरी 1919 को भारत पहुंचे।

शिशिर जीवन को दाव पर लगाकर अपनी डायरी भारत लेकर आया था। यहां आने के बाद भी डायरी कोलकाता में उसके घर में कई वर्षों तक पड़ी रही। शिशिर की बहू रमोला सर्बाधिकारी के प्रोत्साहन के बाद यह डायरी अपने लिखे जाने के 40 वर्षों बाद प्रकाशित हुई और इसके माध्यम से ‘प्रथम विश्वयुद्ध’ से जुड़े कई सत्य भारतीय सेना के इतिहास का हिस्सा बन पाए। शिशिर की डायरी आज भी असमाप्त ही है। अभी इसका मूल्यांकन होना शेष है। (सप्रेस)

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