चैतन्य नागर

भारत में बच्चों को शारीरिक दंड देने की आदत यथावत बनी हुई है| बच्चे को अनुशासित करने में इसकी व्यर्थता साबित होने के बावजूद| पिटा हुआ और घायल बच्चा कभी ज़िम्मेदार नागरिक नहीं बन सकता| एक इंसान के रूप में भी उसके भीतर गुस्सा और कुंठा हमेशा जगह बना लेंगे| इस बात के कोई सबूत नहीं कि जो बच्चे लाड़-प्यार में पलते हैं वे बिगड़ जाते हैं|

जब गुलामी की प्रथा चलन में थी तब कोई आका अपने गुलाम को कभी-कभार रोटी-पानी दे देता था तो उसे करुणावान कहा जाता था| शिक्षा की दुनिया में भी एक युग था जब बच्चे उस शिक्षक को बड़ा अच्छा मानते थे जो उन्हें मारता नहीं था| यह युग अभी भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है| कई माता-पिता और शिक्षक बच्चों की पिटाई को शिक्षा का अभिन्न हिस्सा मानते हैं| मारने-पीटने में अक्षम और थोड़े दयालु माता-पिता अक्सर शिक्षकों को कहते हैं: ‘आप जो चाहे करें, बस इसे कायदे से पढ़ा दीजिये’| इस ‘जो चाहे करें’ में इशारा मारने-पीटने की तरफ ही होता है| वैसे मार-पीट के शौक़ीन अधिकांश शिक्षक अभिभावक की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं करते, पर यदि एक बार मिल जाए तो उनका ‘पढ़ाने’ का काम आसान हो जाता है| ऐसे शिक्षक मानते हैं कि जैसे भय के बगैर प्रीत नहीं होती, वैसे ही डंडे के बगैर पढाई भी नहीं हो पाती| शायद उनके साथ भी ऐसा ही हुआ था, और इसलिए यही फार्मूला उन्हें नई पीढी के बच्चों के लिए भी सही लगता है|

अभिभावक खुद ही शिक्षकों को वही हक़ दे देते हैं जो सिर्फ माता पिता का होता है| हालाँकि यह भी गलत है, पर बच्चों के मन में यह बात गलती से बैठ जाती है कि माता-पिता मार सकते हैं और वे मार सकते हैं तो शिक्षक भी उन पर हाथ उठा सकते हैं| शिक्षक के पास अधिकार होता है और वह सही और गलत व्यवहार को परिभाषित करता है| कई शिक्षक तो बच्चों की पिटाई के मामले में बड़े सृजनात्मक भी होते हैं| कई तरीके उनके पास होते हैं जिनसे वे बच्चों को ‘ठीक’ कर देते हैं| इन तरीकों को बच्चे बड़े होने के बाद भी याद रखते हैं और अक्सर मिलने पर इस बारे में बातचीत करते हैं| पर जब यह दंड दिया जा रहा होता है, तब उसका दर्द ऐसा-वैसा, साधारण किस्म का नहीं होता|    

पीटने में मज़ा आता है 
अक्सर शिक्षकों को बच्चों की पिटाई में मज़ा आता है| पीटने की विधियां सिर्फ छड़ी से मारने, थप्पड़ मारने, चिकोटी कटाने और कान मरोड़ने तक सीमित नहीं रहती| कुछ शिक्षक बड़े ख़ास तरीके से बच्चों के हाथ मरोड़ देते हैं, इस तरह कि बच्चे की पीठ उनके सामने पड़ जाए और फिर वे अपनी कोहनी उसकी पीठ धंसा कर मारते हैं| कुछ शिक्षक बच्चों को ऐसी ज़मीन पर घुटने के बल बैठा देते हैं जहाँ ढेर सारे कंकड़ पत्थर पड़े हों| आम तौर पर बच्चे हाफ पैंट पहने हुए होते हैं और कुछ ही देर में घुटनों में जब कंकड़ चुभते हैं तो उन्हें बहुत दर्द होता है| हेडमास्टर अक्सर बच्चों को मुर्गा बना देते हैं| मुर्गा बनाना तो बड़े ही विचित्र किस्म का दंड है और बच्चों की दशा बिगाड़ कर रख देता है| इस तरह की सजाएं देने वाले सभी शिक्षकों का बस यही मत होता है कि बच्चों को ‘आदमी’ बनाने का सिर्फ एक ही तरीका है, और वह यह कि उन्हें बेतरह पीटा जाए| अब तो कुछ अभिभावक बच्चों की पिटाई से नाराज़ होकर स्कूल में ही धमक पड़ते हैं और थाना-पुलिस तक की नौबत आ जाती है| पहले बच्चे माता पिता के सामने शिक्षक की शिकायत करने से भी डरते थे, कि कहीं मां-बाप से अलग से मार न खानी पड़ जाए!    

लाड़ प्यार से  बिगड़ते हैं बच्चे?
बच्चों को पीटने के समर्थन में सबसे मजबूत तर्क यही दिया जाता है कि लाड़-प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं| यह बात सिर्फ अपने देश में ही नहीं समूची दुनिया में एक स्थापित मत है| कई लोगों को ताज्जुब होगा पर अमेरिका में इस साल तक न्यू जर्सी, आयोवा और मेरीलैंड के अलावा सभी राज्यों में निजी स्कूलों में शारीरिक दंड को वर्जित नहीं माना गया है| इसके अलावा 17 राज्यों के सरकारी स्कूलों में भी यह वर्जित नहीं| 14 राज्यों में तो बच्चों को शारीरिक दंड देना सामान्य माना जाता है|

दूसरी तरफ कनाडा में शारीरिक दंड पर प्रतिबंध है| यूरोपीय संघ और अन्य यूरोपीय देशों एवं न्यूजीलैंड में भी इसपर रोक है| विकसित देशों में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर तीन देश हैं  जहाँ इस पर पूरी तरह प्रतिबंध नहीं| गौरतलब है कि कुछ धर्मों में शारीरिक दंड को उचित ठहराया गया है| उदाहरण के लिए, प्रोटोस्टेंट ईसाई यह मानते हैं कि यदि आप बच्चे को अनुशासित करने के लिए उसे पीटते हैं तो उसकी मौत नहीं होगी; पर यदि नहीं पीटते तो उसकी आत्मा नष्ट हो जाएगी| अक्सर मिशनरी स्कूलों में फादर को एक छडी लेकर मेन गेट पर खड़ा देखा जा सकता है| कान्वेंट स्कूलों के बच्चों को अक्सर पीटा जाता है, ठीक वैसे ही जैसे गाँवों और छोटे कस्बों में बच्चों को पिटाई मिलती है| https://bibleportal.com/topic/corporal-punishment नाम की वेबसाइट ऐसे 13 उद्धरण देती है जिनमें बाइबिल के मुताबिक बच्चों को शारीरिक दंड देना उचित बताया गया है| कांन्वेंट में पढ़े एक बच्चे से बात करने पर उसने बताया कि: ‘शारीरिक दंड देना ठीक होता है| पर यह सही समय पर और सही मात्रा में दिया जाना चाहिए| उस समय दिया जाना चाहिए जब बच्चा गलती करता है| पर यदि बार-बार इसका सहारा लिया जाए, तो बच्चा ढीठ हो जाता है|’ बच्चा अपने शिक्षकों के ‘ज्ञान’ के असर में आ चुका था, यह स्पष्ट है|

शारीरिक दंड के दुष्परिणाम 
शारीरिक दंड के कई दुष्परिणाम होते हैं| बच्चों के मन पर इसका गंभीर असर होता है और कई वर्षों तक बना रहता है| यदि बड़ी उम्र के बच्चों को पीटा जाए तो उन्हें अपनी मानसिक पीड़ा के साथ निपटने के लिए नशे का सहारा लेते भी देखा गया है| उनके भीतर गुस्सा और कुंठा जन्म लेती है जो वर्षों बाद गलत जगह पर, गलत तरीके से, गलत लोगों के सामने अभिव्यक्त हो जाती है| खासकर जिन स्कूलों में लड़के और लडकियां साथ पढ़ते हैं वहां बच्चों की पिटाई उन्हें बहुत शर्मिंदा कर देती है और उनका आत्मविश्वास बिलकुल गर्त में चला जाता है|

भारत में बच्चों को शारीरिक दंड देने की आदत यथावत बनी हुई है| बच्चे को अनुशासित करने में इसकी व्यर्थता साबित होने के बावजूद| पिटा हुआ और घायल बच्चा कभी ज़िम्मेदार नागरिक नहीं बन सकता| एक इंसान के रूप में भी उसके भीतर गुस्सा और कुंठा हमेशा जगह बना लेंगे| इस बात के कोई सबूत नहीं कि जो बच्चे लाड़-प्यार में पलते हैं वे बिगड़ जाते हैं| अक्सर संवादहीनता उग्र और हिंसक व्यवहार को जन्म देती है| यदि शिक्षक या अभिभावक बच्चों से बातें करना जान लें, तो मार पीट की कभी नौबत ही नहीं आएगी| पर दुर्भाग्य यह है कि हमें अपने बच्चों के साथ बातचीत करना नहीं आता| हम उनकी ऊर्जा और टटकेपन से मानों घबरा जाते हैं| सार्थक बातचीत की जगह छड़ी नहीं ले सकती, यह समझना जरूरी है| बच्चों को सही मूल्य सिखाने के कई तरीके हो सकते हैं, पर इसके लिए शिक्षक को अपने काम को धैर्य और गंभीरता से लेना होगा|

हिंसा के शिकार बच्चे किसी भी सत्ता के खिलाफ विद्रोह की भावना मन में पाल लेते हैं| लंबे समय तक वे भीतर ही भीतर उबलते रहते हैं| जो बहिर्मुखी हैं वे उसे बाहर समाज में व्यक्त करते हैं, और जो अंतर्मुखी हैं, वे खुद का नुकसान करते हैं| खुदकुशी तक कर डालते हैं| एक और जरूरी बात समझना चाहिए| शारीरिक दंड देने वाले शिक्षक के प्रति बच्चों के मन में इतना अधिक भय आ जाता है कि वे उस विषय से भी नफ़रत करने लगते हैं जो उनका पीटने वाला शिक्षक पढाता है| बच्चे विषय से अधिक अपने शिक्षक से प्रेम करना सीखते हैं और जो शिक्षक उनकी भावनाओं को समझता है, उनसे प्रेम करता है, उसी शिक्षक के विषय उनकी ज्यादा समझ में आते हैं, भले ही वे अपने आप में ऊबाऊ हों|      

रोकने के लिए कानून 
कानून जरूर  बदल रहे हैं, पर उनपर अमल करने में वही चिर परिचित दिक्कत आ रही है| बच्चों के लिए निशुल्क और आवश्यक शिक्षा अधिकार कानून, 2009 (आर टी ई) की धारा 17 (1) में स्पष्ट किया गया है कि ‘शारीरिक दंड’ और ‘मानसिक प्रताड़ना’ प्रतिबंधित है| धारा 17 (2) में इसे दंडनीय अपराध माना गया है| इस कानून के बाद थोड़ी सतर्कता तो बढ़ी है पर स्कूलों में बच्चों की पिटाई पूरी तरह बंद नहीं हुई है| शिक्षक-अभिभावक-छात्रों के बीच संवाद करने की स्पेस तैयार हुई हो और जरुरत महसूस की जा रही हो, ऐसा भी नहीं हुआ है| टीचर ट्रेनिंग के अधिक अवसर होने चाहिए और इस पहलू पर बार-बार जोर दिया जाना चाहिए| 

     

[block rendering halted]

              

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें