अंकित मिश्रा

पिछले दिनों छतरपुर जिले के बक्सवाहा इलाके में हीरा उत्खनन को लेकर भारी बवाल मचा था। कई पर्यावरणविदों ने पानी के लिए तरसते बुंदेलखंड में जंगल कटाई का विरोध किया था तो अनेक स्थानीय लोगों ने रोजगार के लिए इस परियोजना को लाने पर सहमति भी जताई थी। लेकिन किसी सरकारी या गैर-सरकारी अमले ने कुल डेढ-दो सौ किलोमीटर दूर के, हीरा उत्खनन के ठीक इसी तरह के अनुभवों को देखने-समझने की जहमत नहीं उठाई।

जबसे ‘रियो-टिंटो’ कंपनी ने छतरपुर जिले के बक्सवाहा में जंगल के नीचे हीरे की खोज की है, तबसे वहां के विकास और रोजगार के अवसरों की चर्चा जोरों पर है। स्थानीय लोगों की अपनी अलग-अलग सोच और विकास के मापदण्ड हैं और शहरी लोगों ने कोरोना काल में ऑक्सीजन का जो संकट झेला है, उससे जंगल बचाने की हाय- तौबा मच गई है। ‘रियो-टिंटो’ कंपनी के ‘बक्सवाहा हीरा खनन परियोजना’ से 2017 में अलग होने के बाद यह प्रोजेक्ट अब बिड़ला समूह की ‘एस्सेल माइनिंग एंड इंडस्ट्री लिमिटेड’ कंपनी के पास है। इस कंपनी ने 382.181 हेक्टेयर जमीन पर 56 हजार करोड़ के ऑफसेट मूल्य पर 50 साल की माइनिंग लीज प्राप्त की है। इस पर खनन कार्य होना है और परियोजना से स्थानीय लोग विकास की आस लगाए बैठे हैं।

प्रदेश को हीरा प्रधान राज्य बनाने वाला मध्यप्रदेश का हीरा खनन क्षेत्र ‘बक्सवाहा (छतरपुर) हीरा खनन परियोजना’ से 150 किलोमीटर दूर पन्ना जिले में ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’ से लगे इलाके में है। मझगुंवा में ‘राष्ट्रीय खनिज विकास निगम’ (एनएमडीसी) 1968 से खनन कार्य कर रहा है, लेकिन सवाल है कि बेशकीमती हीरा पन्ना की जमीन से निकलने के बाद यहां के लोगों के विकास को कहां तक पहुंचा पाया? सन् 2018 के आंकड़ों के अनुसार ‘मानव विकास सूचकांक’ में मध्यप्रदेश के 52 जिलों में पन्ना का 48 वां स्थान है। इस प्रकार यह जिला मध्यप्रदेश के पांच अति पिछड़े जिलों में शामिल है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस इलाके की जमीन हीरा उगल रही है, उस इलाके की तस्वीर इस कारण कितनी बदली है।

विंध्याचल पर्वतमाला की कैमूर-श्रेणी में अवस्थित पन्ना जैव विविधता से सराबोर है। सन् 1981 में यहां ‘राष्ट्रीय उद्यान’ बनाया गया,  जिसे 1994 में ‘टाइगर रिजर्व’ घोषित कर दिया गया। यह देश के सबसे अच्छे ‘रेप्टाइल पार्क’ के रूप में जाना जाता है। यहां ‘केन-घड़ियाल अभ्यारण’ भी है। हीरा खनन परियोजना द्वारा हीरे के निष्पादन हेतु 113.331 हेक्टेयर भूमि का उपयोग खनिज पट्टे के रूप में तथा 162.631 हेक्टेयर भूमि का उपयोग निष्पादन संयंत्र व कार्यालय हेतु उपयोग की जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक पन्ना में 22 लाख कैरेट हीरा पाया जाता है जिसे पिछले 60 सालों से निकाला जा रहा है।

इस हीरे की चमक के पीछे स्थानीय गांव के लोग विस्थापित होने को तैयार हुए, ताकि उनकी पीढ़ियों का भविष्य उज्जवल हो और पन्ना क्षेत्र का विकास हो सके। पन्ना से 17 किलोमीटर दूर मझगुंआ में हीरा खनन के लिए गजराज गौण के पिताजी ने अपनी 30 एकड़ जमीन व 60 मवेशियों  का मोह छोड़, हिनौता गांव की पांच एकड़ जमीन मंजूर कर ली। उनका मानना था कि ‘एनएमडीसी’ एक राष्ट्रीय कंपनी है जो यहां के लोगों के जीवन में सुधार करेगी। गजराज कहते हैं कि अगर आज पिताजी जीवित होते तो उन्हें एहसास होता कि उनका बलिदान व्यर्थ गया।

‘एनएमडीसी’ ने ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’ की जैव विविधता को नष्ट किया है। ‘टाइगर रिजर्व’ जिसे मानवीय हस्तक्षेप से मुक्त माना जाता है, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने 2008 में आदेश दिया कि ‘एनएमडीसी’ यहां अगले 5 वर्षों तक कार्य कर सकती है और उसके बाद का फैसला एक ‘निगरानी समिति’ करेगी। इस समिति ने 2016 में पन्ना में खनन कार्य बंद करने को कहा और यह क्षेत्र 30 जून 2018 तक ‘पन्ना टाइगर रिजर्व’  को सौंपने का आदेश दिया। पर्यावरण मंजूरी  न मिलने के बाद भी 31 दिसंबर 2020 तक खदान का संचालन जारी रहा।

इस दौरान हीरा खनन से 13 लाख कैरेट हीरे का उत्पादन किया जा चुका है। जानकारी के मुताबिक 9 लाख कैरेट हीरे का खनन बाकी है। फिलहाल यहां हीरा खनन बंद है क्योंकि खनन का शेष कार्य ‘राष्ट्रीय उद्यान’ में होना है, लिहाजा मामला उच्चतम न्यायालय में है। राजनीतिक सोच किसी भी कीमत पर खदान चालू करने के मूड में है, उन्हें पर्यावरणीय असंतुलन से कोई मतलब नहीं है। राज्य सरकार ने अगले 20 साल यानि 2040 तक खदान को संचालित करने की इजाज़त दे दी है।

‘हीरा खनन परियोजना’ के गांव मझगंवा, हिनोता, जरुआपुर, मसूदा आदि में हीरा खनन के सिवाय दूसरा कोई काम नहीं है, लेकिन यह आम लोगों को नहीं मिलता। ‘राष्ट्रीय खनिज विकास निगम’ के अनुसार 2010-20 के बीच मझगंवा खदान से 187 लोगों को स्थाई रोजगार व 163 व्यक्तियों को दैनिक रोजगार मिला है जो बहुत कम है। वास्तविकता इससे उलट है, क्योंकि यह रोजगार पन्ना के अलावा बाहरी लोगों को भी मिला है।

स्थानीय लोगों में ठेका मजदूरी के अलावा किसी को स्थाई रोजगार नहीं दिया गया। एक ठेकेदार बताते हैं कि ‘एनएमडीसी’ की कॉलोनी में संविदा कर्मचारियों को प्रतिदिन 500 रुपए मिलते थे, लेकिन शायद ही उन्हें कभी 10 दिनों से अधिक का रोजगार मिला हो। कोरोना महामारी के दौर में लॉकडाउन के समय वह भी घटकर महीने में दो-तीन दिन रह गया। ‘हीरा खनन परियोजना’ की जमीन उथली होने के कारण ठेकेदार कुछ दूर भाग्य आजमाते हैं। इसमें वे असंगठित मजदूरों को लगाकर पत्थर खनन, उसके बाद मिट्टी खोदना और उसे छानना आदि कार्य दैनिक मजदूरी पर करवाते हैं। इन्हें बहुत कम पैसा मिलता है और इसमें काम करते हुए वे सिलिकोसिस और एनिमा जैसी बीमारी से ग्रसित हो जाते हैं।

पन्ना के रविकांत पाठक कहते हैं कि हमारा जिला डायमंड सिटी के नाम से जाना जाता है, लेकिन हमारी स्थिति ” दिया तले अंधेरा” की  है। हमें पीने का पानी तक नहीं मिलता। हमारे शहर में चंदेलकालीन 13 तालाब थे जिनसे हमें कभी पानी की कमी नहीं पड़ती थी, लेकिन आज हमारे सभी जलस्रोत क्षतिग्रस्त होने के साथ-साथ उनका पूरा दोहन हीरा खनन के लिए किया जाता है।

स्थानीय विद्या आदिवासी बताती हैं कि गांव में रोज सुबह 8:00 बजे महज 15 मिनट के लिए पानी की आपूर्ति होती है। ‘हर दिन पानी भरने के लिए लंबी कतार लगती है। पर्याप्त मात्रा में पानी मिलना बहुत मुश्किल है। पीने के पानी के लिए टंकी बनाकर पाइप लाइन जरूर डाली गई है, लेकिन इसमें  चरणामृत की तरह  पानी आता है।’ ‘हमारा जंगल भी गया और रोजगार भी, बदले में हमें खनन की धूल से बीमारियां मिल रही हैं।’

‘एनएमडीसी’ अपने अनुबंध के तहत दिन में दो बार हिनोता से पन्ना बस सेवा प्रदान करता है, एक प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय संचालित करता है तथा एक स्वास्थ्य केंद्र संचालित है जो केवल प्राथमिक उपचार तक सीमित है। पन्ना जिला अपने पड़ोसी जिलों-छतरपुर,सतना से विकास के सभी मापदंडों-शिक्षा, स्वास्थ्य, अधोसंरचना विकास में बहुत पीछे है।

हीरा खनन से प्रभावित पन्ना जिले एवं वहां के गांवों की स्थिति का अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है, ताकि हम समझ सकें कि बक्सवाहा के जंगलों को काटकर अगर वहां के लोगों की रोजी-रोटी का जरिया छीना गया, तो क्या हीरा खनन करने वाली कंपनी वहां की तस्वीर बदलेगी? अगर आप इसकी तुलना पन्ना की हीरा खदान से करेंगे तो आपको निराशा ही हाथ लगेगी। (सप्रेस)

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