ईशान अग्रवाल

पूंजी के बाजार में एक व्यवसाय की हैसियत से मीडिया के आ जाने से अव्वल तो वह जन सामान्य को अनदेखा करते हुए, बाजार-हितैषी खबरों का अबाध स्रोत बन जाता है और दूसरे, उसकी मार्फत आम समाज की राय तय होने लगती है। हमारे समय के लोकतंत्र पर छाए इस संकट से कैसे निपटा जाए? एक रास्ता है, वैकल्पिक मीडिया का।

पिछले लगभग एक दशक से लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ, पत्रकारिता की नींव लगातार कमज़ोर हुयी है। कारण बहुत से हैं, जिनमें पहला है पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी का पूँजीवाद के युग में बढ़ती तनख्वाहों, विलासिता और लालच के चक्कर में चारित्रिक पतन होना। दूसरा, इसी युग में टी.आर.पी. की कसौटी पर पत्रकारिता के खरे उतरने की चुनौती ने भी मीडिया को रसातल तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। तीसरा कारण है, राजस्व का वह मॉडल जो पूरी तरह सरकारी विज्ञापनों पर आधारित है जिसने मीडिया को सरकारी दवाबों के आगे झुकने पर मज़बूर कर दिया है। चौथा कारण, जो हमें समझ में आता है, वह है मीडिया में खबरों का अकाल और विचारों की बाढ़। मीडिया में तेजी से रिपोर्टरों और संवाददाताओं की संख्या कम होती जा रही है और ‘ओपिनियन पीस’ या बहस या एक ही खबर को बार-बार दिखाने का चलन ज्यादा है।

पिछले 10 सालों में मीडिया के इस ह्रास की प्रतिक्रिया में कई नए या वैकल्पिक मीडिया प्रयोग शुरू हुए हैं जो अब इतने तो बड़े हो ही गए हैं कि समकालीन बहसों, नैरेटिव पर असर डाल सकें। खबरों पर नज़र रखने वाले लोकतंत्र के इन नए प्रहरियों ने तेज़ी से अपनी पकड़ बनाना शुरू किया है। अभी भी इसे शुरुआती दौर ही माना जा सकता है, पर यह पत्रकारिता को सही मायने में जिन्दा रखने के सराहनीय प्रयास हैं।

वैकल्पिक मीडिया में पहले हैं, अलाभकारी मीडिया संस्थाएं जो दानदाताओं और थोड़े बहुत विज्ञापनों के भरोसे अपना काम चला रही हैं। इसमें सबसे बड़ा नाम है, 2015 में शुरु हुए “द वायर” का। इस संस्था को शुरुआती सालों में ‘पब्लिक स्पिरीटेड मीडिया फाउंडेशन’ द्वारा आर्थिक सहयोग किया गया। सन् 2018 में ‘द वायर’ ने अपना सदस्यता अभियान शुरू किया।  ‘द वायर’ के चार भाषाओँ (अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और मराठी) में डिजिटल संस्करण अधिकतर सोशल मीडिया के जरिए पाठकों तक पहुँच बनाते हैं, हालाँकि कई लोग सीधे वेबसाइट पर भी जाते हैं।

‘द वायर’ का यूट्यूब चैनल भी खासा मशहूर है। कुल 70 लाख यूनिक उपयोगकर्ताओं, यूट्यूब चैनल के करीब 35 लाख सदस्यों और करीब 2.5 करोड़ मासिक यूट्यूब न्यूज़ के साथ ‘द वायर’ अब एक मध्यम टीवी चैनल के बराबर पहुँच रखता है। उसका ध्यान अपने लघु सदस्यों पर भी है और करीब 15 से 20 प्रतिशत राजस्व उसे सिर्फ छोटे दानदाताओं से ही प्राप्त होता है। ‘द वायर’ के करीब 50 हज़ार लघु दानदाता हैं जो 100 रुपये से 5000 तक दान देते हैं। वेबसाइट ऐसे दानदाताओं पर अब ज्यादा ध्यान दे रही है और उनसे संवाद की स्थिति भी बना रही है। मुख्य रूप से ‘द वायर’ के पाठक युवा, पढ़े-लिखे वर्ग से आ रहे हैं। 

दूसरे प्रकार के वैकल्पिक मीडिया में शामिल हैं, लाभकारी मीडिया वेबसाइट और यूट्यूब चैनल। यहाँ पर बड़ी लम्बी फेहरिस्त है। इसमें भी दो प्रकार हैं। एक वह जो सदस्यों से सहयोग की अपेक्षा करते हैं, पर विज्ञापनों और दूसरे किस्म के कारोबारी साझेदारियों से परहेज़ नहीं करते। मसलन ‘प्रिंट,’ ‘क्विंट,’ ‘स्क्रॉल.इन’ और ‘न्यूज़क्लिक’ आदि। जहाँ ‘क्विंट’ के 32 लाख से ज्यादा सदस्य हैं, ‘न्यूज़क्लिक’ के भी लगभग 33 लाख सदस्य हैं। ‘क्विंट’ का हिंदी यूट्यूब चैनल भी है। ‘प्रिंट’ के यूट्यूब पर 17 लाख से ऊपर सदस्य हैं। इनमें से कुछ, जैसे कि ‘प्रिंट’ अपने पेड सदस्यों को कुछ विशेष कंटेंट दिखाता है।

ऐसे और भी कई चैनल हैं जिन्होंने पैसा देने वाले और साधारण सदस्यों के बीच कुछ फ़र्क़ कर रखा है। ये संस्थाएं अपने भुगतान करने वाले सदस्यों को बेहतर सामग्री देती हैं और उनको अपने शो में आने के न्योते से लेकर कई अन्य आकर्षक पेशकश भी करती हैं। इस भीड़ में कई और चैनल भी हैं जिनमें सुजीत नायर का ‘HW न्यूज़,’ आशुतोष का ‘सत्य हिंदी’ और बरखा दत्त का ‘मोजोस्टोरी’ चैनल शामिल हैं। ‘सत्य हिंदी’ खास तौर पर बहुत तेज़ी से पैठ बनाता दिखाई देता है। चैनल के फ़िलहाल 15 लाख से ऊपर यूट्यूब सदस्य हैं। 

तीसरे प्रकार के वैकल्पिक मीडिया स्रोत पूरी तरह से पाठकों की सदस्यता पर आधारित हैं। इनमें सबसे बड़ा नाम है, ‘न्यूजलॉन्ड्री।’ इसके संस्थापक-संपादक अभिनन्दन सेखरी का कहना है कि विज्ञापन के पैसे से अगर न्यूज़ चलेगी, तो वह उसके हिसाब से ही होगी। अगर पाठक के पैसे से चलेगी, तो पाठक के हिसाब से ही न्यूज़ होगी। ‘न्यूजलॉन्ड्री’ का काम बेहतरीन है। ऐसा नहीं है कि उनकी साइट पर सिर्फ पैसा देने वाले पाठक ही जा सकते हैं,  पर काफी सारा कंटेंट सदस्यों के लिए होता है और बाद में सबके लिए खोल दिया जाता है। इसके बावजूद, ‘न्यूजलॉन्ड्री’ के यूट्यूब पर करीब 12 लाख सदस्य हैं। उनकी कठोर आलोचना आये दिन उन्हें परेशानी में भी डाल देती है। गौर कीजियेगा, ‘न्यूजलॉन्ड्री’ के किसी वीडियो पर आपको विज्ञापन नहीं दिखेंगे।

इसी तरह का एक दूसरा प्लेटफार्म है, ‘द केन।‘ ‘द केन’ पूरी तरह व्यवसाय संबंधी खबरों से सम्बंधित खोजी पत्रकारिता आधारित न्यूज़ वेबसाइट है। इसकी सदस्यता थोड़ी महंगी है, पर इसका कंटेंट पूरी तरह सदस्यों के लिए ही है। ‘द केन’ के करीब 3 लाख भुगतान करने वाले सदस्य हैं, जो इसकी विश्वसनीयता का सबूत है। ‘द केन’ का कोई यूट्यूब चैनल नहीं है। यह बहुत विस्तार से अपनी रिपोर्ट पेश करता रहा है। ‘स्कूपव्हूप अनस्क्रिप्टेड’ भी इसी तरह की कोशिश कर रहा है। 

चौथे प्रकार के कुछ वैकल्पिक मीडिया हैं, जो एक पत्रकार या उसकी एक छोटी टीम से चल रहे हैं। उदाहरण के लिए अजित अंजुम का यूट्यूब चैनल या पुण्यप्रसून वाजपेयी का यूट्यूब चैनल, जो कि सिर्फ उनके व्यक्तित्व के चारों तरफ चल रहे हैं। इन चैनलों का अपना अपना usp  है। जैसे – पुण्यप्रसून किसी मुद्दे पर एक विस्तृत रिपोर्ट पेश करते हैं, तो अजित अंजुम अपनी फील्ड रिपोर्टिंग बेहतर करते हैं। अजित अंजुम के पास न सिर्फ 21 लाख सदस्य हैं, बल्कि उनका एक-एक वीडियो लाखों लोग देखते हैं। ध्रुव राठी ने भी इसी तरह का काम शुरू किया था पर वह खबर के अलावा और भी बहुत कुछ करते हैं, इसलिए उन्हें सिर्फ न्यूज़ मीडिया कहना शायद ठीक नहीं हो। 

एक और प्रकार का वैकल्पिक मीडिया है जो एक मुद्दे को पकड़ कर उसके इर्दगिर्द रिपोर्टिंग करता रहता है। आमतौर पर इसमें विचार और गहराई ज्यादा होती है, खबरें कम, मगर उनका विश्लेषण ज्यादा होता है। ऐसा ही चैनल है, मोहक मंगल का ‘सोच,’ ‘मोंगाबे-इंडिया’ और ‘स्वैडल।‘ ‘सोच’ एक गहन विमर्श को प्रोत्साहित करता है और रिसर्च को सामने रखता है। ‘मोंगाबे’ पर्यावरण सम्बन्धी खबरों का चैनल है। वैश्विक स्तर पर ‘मोंगाबे’ पर्यावरण विमर्श के लिए जाना जाता है। ‘स्वैडल’ एक नारीवाद समर्थक चैनल है, जो आमतौर पर जहरीली पुरुष प्रधानता या मर्दानगी के विभिन्न रूपों को उजागर करता है।

‘खबर लहरिया’ भी एक अनोखा वैकल्पिक मीडिया ग्रुप है जो पूरी तरह महिलाओं द्वारा संचालित और विशेषतः बुंदेलखंड के किसानों और महिलाओं के मुद्दे आगे बढ़ाता है। एक और अद्भुत ग्रुप है पी. साईनाथ का ‘पारी (पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया) नेटवर्क’ जो देश के ग्रामीण जीवन पर ठोस रिपोर्टिंग करता रहा है। इन संस्थाओं का सदस्यता का आधार छोटा है, पर खबर और विश्लेषण की गुणवत्ता बहुत बेहतर है। 

इस सब के बावजूद अभी भी मुख्यधारा के मीडिया के सामने इन संस्थाओं की चुनौती उतनी बड़ी नहीं हुयी है। देश के सबसे बड़े मीडिया ग्रुप ‘टीवी टुडे’ का चैनल ‘आज तक’ अभी भी यूट्यूब पर सबसे बड़ा न्यूज़ चैनल है, लगभग 5 करोड़ उपभोक्ताओं के साथ। हालाँकि मासिक ब्यूज के मामले में वैकल्पिक मीडिया कई बार मुख्यधारा के चैनलों को पटखनी दे देते हैं। एक मजेदार विरोधाभास यह भी है कि मुख्यधारा के चैनल वैकल्पिक मीडिया के बढ़ते महत्त्व को समझकर एक ऐसा मोर्चा खोलकर रखे हैं, जहाँ वैकल्पिक मीडिया जैसा कंटेंट रहता है। जैसे कि ‘टीवी टुडे’ नेटवर्क का ‘द लल्लनटॉप.कॉम’ या ‘टाइम्स नेटवर्क’ का ‘मिरर नाउ नेटवर्क।‘   

एक अन्य कारण जिसकी वजह से वैकल्पिक मीडिया अपने पैरों पर खड़े होने में दिक्कत महसूस करता है, वह है गूगल, फेसबुक और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्मों का विज्ञापन राजस्व के बंटवारे पर नियंत्रण। अपने कंटेंट पर मिलने वाले विज्ञापन राजस्व का एक बड़ा हिस्सा इन संस्थाओं को नहीं मिलता, बल्कि ये बड़ी कंपनियां इस मुनाफे को खा जाती हैं और असल कंटेंट सृजनकर्ता को सिर्फ छीजन मिलती है। सरकारी दमन और वित्तीय स्रोतों के टोटे के बावजूद वैकल्पिक मीडिया का खड़ा रहना देश के लोकतंत्र के लिए आज सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। ऐसे में सभी पाठकों को किसी-न-किसी वैकल्पिक मीडिया का दानदाता या सदस्य ज़रूर बनना चाहिए। (सप्रेस) 

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