यमुना सनी

इमारतों के निर्माण में रेत यानि सिलिका बहुत अहम भूमिका निभाती है, लेकिन क्‍या ‘जीडीपी’ में सर्वाधिक योगदान करने वाली इस गतिविधि को आम लोगों और उनके साथ पर्यावरण को उजाडने की छूट दी जा सकती है? इन दिनों मध्‍यप्रदेश, खासकर नर्मदा-तट का इलाका रेत खनन और उसमें लगे माफिया के चलते बेहद चर्चित है। नदियों से रेत का उलीचना किस तरह आम जीवन और पर्यावरण को प्रभावित करता है?

नर्मदा नदी पर बड़े बाँधों के विरोध ने विकास और पर्यावरण के बीच के संबंधों पर कई प्रश्न खड़े किए थे। नदी के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों पर ऐसे अनेक बुनियादी सवालों के जवाब अभी मिले भी नहीं थे कि पिछले छह-सात वर्षों में मध्यप्रदेश में नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर बालू के खनन का सवाल खडा हो गया है।  

मानसून-पूर्व खनन पर रोक लगने से पहले बड़ी तादाद में जेसीबी जैसी मशीनें नर्मदा से जितनी संभव हो, बालू निकाल लेती हैं। इसका पैमाना बढ़ता चला जा रहा है और वैध खनन की तुलना में अवैध खनन कई गुना अधिक हो गया है। वर्ष 2015 में मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा लागू की गई नई नीति का यह नतीजा है। इसके तहत बालू खनन के और अधिक इलाके चिन्हित किए गए हैं और बालू ऐसा पहला खनिज बन गई है जिसकी ई-नीलामी होने लगी है। वर्ष 2015 में 33 जिलों में फ़ैली 4537 हेक्टेयर भूमि की 586 जगहों पर खनन को मंजूरी दी गई जहाँ खनन का काम पहले से ही चल रहा था।

अवैध खनन पर प्रशासनिक चुप्पी बनी हुई है और खनन विभाग में इतने कर्मी नहीं हैं जो इतने बड़े स्तर पर हो रहे काम से निपट सकें। रेत माफिया पुलिस, पत्रकारों और प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति बहुत आक्रामक रहा है। इसे लेकर ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ और अन्य संगठनों की तरफ से कई मामले भी दर्ज किए गए हैं। ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ ने नर्मदा में मशीनी खनन पर रोक लगा दी है, फिर भी खनन चालू है। सन् 2020 में मानसून-पूर्व रोक के दौरान एवं कोविड-19 के कारण लगाये गए ‘लॉकडाउन’ के हटने के बाद अंधाधुंध खनन हुआ है।

बड़े पैमाने पर होने वाले खनन से समूचा जीवन-चक्र ही खंडित हो जाता है। यह खनन इस चक्र के अस्तित्व के प्रति पूरी तरह असंवेदनशील बना रहता है। पनकौवा, सफेद बगुला और सारस जैसे परिंदों के लिए मानसून प्रजनन काल होता है और इनके अलावा कई और पक्षी हैं जो मानसून से पहले बालू में अपना आशियाना बनाते हैं। इसके अलावा, मानसून से पहले रेत पर कई लोगों की जीविकाएं भी निर्भर करती हैं।

रेत में घोंसले बनाने वाले परिंदे

नर्मदा की बालू में पैदा होने वाले तरबूज और खीरे के साथ टिटहरियां रहती हैं। वे चहचहाते हुए आसपास ही मंडराती रहती हैं। बगुले की तरह वे पेड़ों पर नहीं बैठतीं। पेड़ के तनों पर उनके पंजों की गिरफ्त नहीं बन पाती और इसलिए वे जमीन पर ही रहती हैं। जलमुर्गी की तरह वे बालू में ही अंडे देती हैं, पर सलीके के साथ अपने घोंसले नहीं बनातीं। सफ़ेद बगुला, सारस, जलकाग, जलकपोत, बगुला, बतख और साइबेरिया के प्रवासी सारस भी नर्मदा के किनारे बसते हैं।

गर्मियों में सुबह-सुबह किंगफ़िशर पक्षी नदी से अपना भोजन बटोरता है। उसे रोज़ अपनी देह के वज़न का साठ फीसदी भोजन चाहिए। इसके लिए नदी के एक अच्छे-खासे बड़े इलाके पर किंगफ़िशर को अपना कब्जा जमाना पड़ता है। कंकर-पत्थर से मुक्त रेत पर मादा और नर, दोनों ही पक्षी गड्ढे खोदकर अपने घोंसले बनाते हैं। होशंगाबाद के मैदानी क्षेत्र में जहाँ नदी तेजी से नहीं बहती, किंगफ़िशर के लिए सबसे उम्दा जगह होती है। ऊपरी इलाकों में जंगल काटे जाने और जल-प्रदूषण की वजह से नर्मदा में जलीय जीवन कम हुआ है। एक मछुआरे नर्मदा ने बताया : “अब हम मछली पकड़ने के लिए पहले की तुलना में अधिक इन्तजार करते हैं। ज्यादा मछलियाँ पकड़ने के लिए अक्सर हमें शहर से काफी दूर धारा के विपरीत जाना पड़ता है।”

मधुमक्खियाँ खाने वाले पक्षी गर्मियों में सक्रिय हो जाते हैं। वे तेजी से मधुमक्खियाँ पकड़ते हैं और पेड़ों के तनों पर उन्हें पटककर उनके डंक या ज़हर को निकालते हैं। वे बालू के किनारों पर सुरंग के आकार में घोंसले बनाते हैं और अपनी तीखी चोंच से बालू को ढीला कर देते हैं। अपने पंजों से वे मिटटी हटाते हैं और करीब बीस दिन में अपने घोंसले तैयार कर देते हैं।

नदी के तटों पर समृद्ध वनस्पतियों और प्राणियों का अस्तित्व गहरे अंतर्संबंधों पर टिका होता है। जैसे कि कई वृक्षों के बीज पक्षियों के लिए भोजन होते हैं और उनके मल से ही फिर इधर-उधर नई कोंपलें जन्म लेती हैं।

जीविका पर खनन का असर

मानसून से पहले पट्टे पर राजस्‍व की ज़मीन लेकर लोग रेत में तरबूज, खरबूज और खीरा उगाते हैं। गर्मियों में अक्सर बाँध खोले जाने के कारण इन फसलों को नुकसान पहुँचता है। गधों की पीठ पर बालू लादे किशोर और पेट व बाजार के लिए भी मछलियाँ पकड़ते मछुआरे भी नदी पर निर्भर रहते हैं। नर्मदा और मध्यप्रदेश की कई नदियाँ हजारों रेत कृषकों का सहारा बनती हैं जिससे मानसून के उन चार महीनों में उनका गुजारा हो सके जब और कोई कमाई नहीं हो पाती।

नरसिंगपुर जिले के देवाचर जैसे गाँव मीठे खीरों के लिए विख्यात हैं पर खनन के कारण खीरे भी गायब हैं और कृषकों की जीविका भी ख़त्म हो गई है। यहाँ माझी, कुशवाहा, महरा और कहार जातियों के लोग खेती करते हैं। होशंगाबाद शहर में तरबूज बेचने वाले संजू का कहना है : “करीब पांच साल पहले गर्मियों में होने वाले बालू के खनन के कारण हमें खेती-बाड़ी रोकनी पड़ी थी। अब हम दूसरी जगहों से तरबूज खरीदते-बेचते हैं।” तरबूज और खीरे की कुछ प्रजातियाँ हैं जो बालुई मिट्टी के बगैर भी उगती हैं। सन् 2015 की रेत खनन नीति के बाद से भूमिहीन लोगों की जीविका के साधनों में स्पष्ट रूप से गिरावट देखी जा सकती है।

खनन की वजह से पूरा दृश्य ही बदल गया है। पानी का बहाव, उसकी उपलब्धता और बालू के इकट्ठा होने का ढर्रा—सब कुछ। नरसिंगपुर जिले की शेर और शक्कर सहित कई नदियां जनवरी से ही सूख जाया करती हैं। पहले पूरे साल इनमें पानी रहा करता था। दुधी जैसी नर्मदा की सहायक नदियाँ सूख गई हैं। नदी की पारिस्थितिकी में बदलाव से खेतों में बालू आ जाती है जिससे खेती का काम भी मुश्किल हो जाता है।

नदी के तटों पर उपजाऊ मिट्टी होती है और बड़े पैमाने पर खनन होने से लोगों की जीविका पर खतरा मंडराने लगता है। खनन के काम में लगे मजदूरों को जो मेहनताना मिलता है वह उनके लिए अपर्याप्त होता है। सरकार खुद फैसले करती है और जिनकी आजीविका प्रभावित होती है, उनके साथ कोई सलाह-मशविरा नहीं किया जाता। विकास के बारे में सिर्फ पूंजी के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं और अवैध खनन पर आखिरकार कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। जिनके पास पूंजी और विरोध करने की क्षमता नहीं होती, उनके संबंध प्रकृति के साथ नष्ट हो जाते हैं।

पर्यावरण, आजीविका और गरीबी

मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो भोजन, कपड़े, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी अपनी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते। वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई), 2018 के मुताबिक मध्यप्रदेश देश का चौथा सबसे गरीब देश है। रिपोर्ट के मुताबिक 2010 की तुलना में आम आदमी की स्थिति बदतर ही हुई है। विश्वबैंक की ‘इंडिया स्टेट ब्रीफ्स’, 2016 के अनुसार 1994 में, जबकि मध्यप्रदेश में गरीबी राष्ट्रीय औसत के बराबर थी, आज वहां गरीबी का हाल और अधिक बुरा है। राज्य में दो करोड़ चालीस लाख लोग गरीब हैं। कुपोषण की भी बुरी स्थिति है और ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-IV,’ 2016 में मध्यप्रदेश में 45 लाख ऐसे बच्चे पाए गए जिनका वज़न कम और अवरुद्ध है।

भूमि की मिलकियत के परंपरागत तरीके जारी हैं और 1990 से अधिक-से-अधिक जमीन कॉर्पोरेट के हाथों में जा रही है। ज़मीन तक सामान्य लोगों की पहुँच ख़त्म हो रही है क्योंकि ताकतवर लोग सरकार की मदद से उन पर कब्जा कर रहे हैं।

मछुआरों, छोटे रेत खनिकों और रेत कृषकों, पंछियों और वृक्षों के बीच के जटिल संबंधों के आधार पर मानव विकास की संभावनाओं के सिर्फ आर्थिक आयाम ही नहीं, बल्कि जीवन की सभी अभिव्यक्तियों और साथ ही प्रकृति के साथ उनके संबंध भी उनके लिए आधार निर्मित करते हैं। दूसरी ओर पूंजी के काम करने के अपने खुद के तरीके हैं और वह दीर्घकालिकता पर गौर नहीं करती। इससे साधारण इंसान तो बस गरीब होता चला जाता है। उनमें से कई तो अपने ठिकानों को छोड़ने पर मजबूर भी हो रहे हैं। जैसा कि कोविड-19 महामारी के दौरान हुआ, ये गरीब लोग अपनी ज़मीन से पूरी तरह उखड़ भी जाते हैं। भूमिहीन लोग अपनी साझा ज़मीन तो खो ही देते हैं, साथ ही वे इस धरती के साथ अपने जुड़ाव का अहसास भी खो देते हैं। (सप्रेस)

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