विवेकानंद माथने

‘गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति’ की मासिक पत्रिका ‘अंतिम जन’ के ‘वीर सावरकर अंक’ ने एक बार फिर गांधी और सावरकर के विरोधाभासों को उजागर कर दिया है। गांधी जिन मूल्यों, विचारों को लेकर जीवनभर चले थे, सावरकर उसके ठीक विपरीत मान्यताओं और उनके अमल को मानते थे। गांधी की स्मृति में बनी संस्था द्वारा सावरकर पर पूर्वाग्रह के साथ निकाले गए मासिक से आखिर क्या साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं? गांधी और सावरकर के फर्क को रेखांकित करता विवेकानंद माथने का लेख।

‘हे राम’ गांधी की अंतिम पुकार थी। कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियों ने साजिश रची और सनातनी गांधी की हत्या को अंजाम दिया। आज भी जब गांधी की बात आती है, हिंदू कट्टरपंथी गांधी के सामने सावरकर को खडा करने की कोशिश करते हैं। हमें समझना होगा कि आखिर सावरकर गांधी के विरोधी क्यों थे और उन्होंने गांधी की हत्या क्यों करवाई? दोनों हिंदू थे। दोनों बैरिस्टर थे। जैसे गांधी का उद्देश्य हिंदुस्थान की आजादी था, वैसे ही शुरु में सावरकर का उद्देश्य भी हिंदुस्थान की आजादी ही था। फिर दोनों के बीच किस बात का संघर्ष था?

सन 1888 में 19 साल के गांधी बैरिस्टर बनने के लिये लंदन गये थे। बाद में वकालत के लिये 1893 में दक्षिण अफ्रीका गये। वहां हिंदुस्थानियों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ अंग्रेजी सरकार से संघर्ष किया। दक्षिण अफ्रीका के आंदोलन में सत्याग्रह के नये-नये प्रयोग किये और सन् 1915 में वे भारत में लौट आये। 1920 से जीवन के अंतिम क्षण तक गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया।  

गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में सत्य और अहिंसा का रास्ता अपनाकर असहयोग, सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह आदि आंदोलन के नये हथियार दिये। दक्षिण अफ्रीका और हिंदुस्थान में आंदोलन के द्वारा उन्होंने मानव जाति के ज्ञात इतिहास में पहली बार अहिंसक क्रांति की नींव रखी। अहिंसा केवल व्यक्तिगत जीवन का विषय नहीं है, बल्कि उसका उपयोग सार्वजनिक जीवन में करके व्यवस्था परिवर्तन किया जा सकता है, यह उनकी मान्यता उन्होंने सिद्ध की।

गांधी अंग्रेजी हुकूमत के साथ-साथ उनकी साम्राज्यवादी, भौतिकवादी सोच से मुक्ति चाहते थे। अंग्रेजियत से मुक्ति चाहते थे। गांधी का अंतिम ध्येय शोषणमुक्त, अहिंसक समाज की स्थापना करना था और उसे सत्य और अहिंसा के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, ऐसा उनका अदम्य विश्वास था। अपना पूरा जीवन उन्होंने इसी साधना में लगाया। 1909 तक उनके मन में ‘हिंद स्वराज’ की तस्वीर तैयार हो चुकी थी।

दूसरी तरफ, 1906 में 23 साल के सावरकर बैरिस्टर बनने के लिये भाई के साथ लंदन गये। बैरिस्टर बने। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिये तत्कालीन क्रांतिकारियों की तरह सशस्त्र क्रांति का सपना देखा। हिंदुस्थान और दुनिया में क्रांति का इतिहास पढकर सशस्त्र कांति के द्वारा ही आजादी मिल सकती है, ऐसा उनका विश्वास था। लंदन में वे क्रांतिकारी समूह में शामिल हुये। तत्कालीन परिस्थिति में अंग्रेजी हुकूमत का सामना करना साधारण कार्य नहीं था। सावरकर तर्कशील, उत्कृष्ट वक्ता और लेखक थे, लेकिन हिंसा और साम, दाम, दंड, भेद की नीति पर उनका विश्वास था।

अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिये हिंसक गतिविधियां करने हेतु सावरकर विदेश से हिंदुस्थान हथियार भेजते थे, लेकिन नासिक कलेक्टर जैक्सन की हत्या में सावरकर के द्वारा भेजा पिस्तौल प्राप्त होने से 1909 में वे पकडे गये। ‘राजद्रोह’ और ‘राजा के विरुद्ध उकसाने’ के आरोप में उन्हें और उनके भाई को 1910 में पहली और 1911 में दूसरी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। ‘कालापानी’ की सजा के लिये उन्हें अंदमान के ‘सेल्यूलर जेल’ भेजा गया। उनकी संपत्ति जब्त की गई। 1921 तक वे ‘सेल्यूलर जेल’ में रहे, 1921 और 1922 में अलीपुर और रत्नागिरी में कारावास में रखा गया। 6 जनवरी 1924 से रत्नागिरी में नजरकैद रहे। 1937 में नजरबंदी से पूर्णत: रिहा हुये और 1937 से 6 साल वे हिंदू-महासभा के अध्यक्ष रहे।

1911 से लेकर 1920 तक जेल से रिहाई के लिये उन्होंने अंग्रेजी सरकार से अनेक माफीनामे लिखे। जनवरी 1920 में उनके भाई डॉ. नारायण सावरकर ने गांधी को पत्र लिखकर सावरकर के स्वास्थ्य के लिये ‘सेल्युलर जेल’ से अन्य जगह भेजने के प्रयास के लिये विनती की। गांधी ने मई 1920 में ‘यंग इंडिया’ में निवेदन जारी किया था। अंग्रेजी हुकूमत की मुखालिफत न करने और किसी भी राजनीतिक आंदोलन में शामिल न होने की शर्त पर सावरकर को 1921 में ‘सेल्यूलर जेल’ से हिंदुस्थान की जेल भेजा गया।  

आज भी यह सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर माफी के लिये सावरकर ने प्रयास क्यों किया? क्या वे मौत से डर गये थे? या फिर जेल से रिहाई के लिये यह उनकी योजना का हिस्सा था? अगर वे डर गये थे तो उनके वीरत्व पर प्रश्न उठता है और अगर यह उनकी कूटनीतिक योजना का हिस्सा था, तब भी उन पर सवाल उठता है। जेल से रिहाई के बाद उन्होंने रिहाई की शर्तों का पूरा पालन किया और जीवन भर स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया, बल्कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ नीति अपनाकर उन्होंने आजीवन हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ खडा करने का काम किया।

गांधी और सावरकर के बीच मुख्य संघर्ष विचारों का था। 4 मार्च 1926 को दिये भाषण में गांधी जी कहते हैं कि मैं लंदन में अनेक क्रांतिवादियों से विचार-विनिमय करता था। श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर आदि मुझसे कहा करते थे कि आपका कथन ‘गीता’ और ‘रामायण’ के विरुद्ध ही है। उस समय मुझे लगता था कि यदि व्यास मुनि ने ब्रम्हज्ञान का उपदेश देने के लिये ऐसे युद्ध के दृष्टान्त की योजना न बताई होती तो कितना अच्छा होता। जब अच्छे-अच्छे विद्वान और गहराई से विचार करने वाले व्यक्ति ही ‘भगवद्गीता’ का ऐसा अर्थ निकालते हैं तो साधारण आदमी के विषय में क्या कहा जा सकता है।

एक मार्च 1927 को गांधी बीमार सावरकर से रत्नागिरी में मिलने गये और कहा कि आप जानते ही हैं कि सत्यप्रेमी तथा सत्य के लिये प्राण तक न्यौछावर कर सकने वाले व्यक्ति के रुप में आपके लिये मेरे मन में कितना आदर है। हम दोनों का ध्येय भी एक ही है और मैं चाहूंगा कि उन सभी बातों के संबंध में आप मुझसे पत्र व्यवहार करें जिन पर आपका मुझसे मतभेद है और दूसरी बातों के बारे में भी लिखें। मैं जानता हूं कि आप रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते, इसलिये यदि जरुरी हो तो इन बातों पर जी भरकर बातचीत करने के लिये मुझे दो-तीन दिन का समय निकालकर आपके पास रहना भी नहीं अखरेगा। सावरकर ने इसके लिये धन्यवाद देते हुये कहा कि आप स्वतंत्र हैं और मैं बंधन में हूं। मैं आपको भी अपनी जैसी हालत में नहीं डालना चाहता, फिर भी मैं आपसे पत्र व्यवहार अवश्य करुंगा।  

शंकरराव देव को 20 जुलाई 1937 में लिखे पत्र में गांधी कहते हैं कि सावरकर बंधु कम-से-कम यह तो जानते हैं कि हममें चाहे कुछ सिद्धांतों को लेकर जो भी मतभेद रहे हों, लेकिन मेरी कभी यह इच्छा नहीं हो सकती कि वे जेल में ही पडे रहें। जब मैं यह कहूंगा कि मेरी ताकत में जो कुछ भी था, वह सब मैंने उनकी रिहाई के लिये अपने ढंग से किया तो शायद डॉ. सावरकर भी मेरी बात का अनुमोदन करेंगे। बैरिस्टर को शायद याद होगा कि जब पहली बार हम लंदन में मिले थे, तब हमारे संबंध कितने मधुर थे और कैसे जब कोई आगे नहीं आ रहा था तब मैंने उस सभा की अध्यक्षता की थी, जो उनके सम्मान में लंदन में हुई थी। हरिभाऊ फाटक को 12 अक्टूबर 1939 को लिखे पत्र में गांधी कहते हैं कि सावरकर का मन जीतने का मैंने विशेष रुप से प्रयास किया, किंतु असफल रहा।

सावरकर पर आरोप था कि गांधी हत्या में वे शामिल थे और उनके उकसाने पर ही गोडसे ने गांधी की हत्या की। भले ही सबूतों के अभाव में उनका हत्या में शामिल होना साबित नहीं हुआ हो, लेकिन उनके द्वारा जीवन भर गांधीजी का विरोध और तत्कालीन घटनाक्रम के आधार पर उन्हें आरोपमुक्त नहीं किया जा सकता।

गांधी और सावरकर, दोनों ने हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया था। धर्मग्रंथों को दोनों ने अपने-अपने नज़रिये से देखा, समझा और उन पर अमल किया। गांधी ने उसमें सत्यवचनी राम, हरिश्चंद्र पाया। गीता में अहिंसा का संदेश पाया, आत्मा का अमरत्व पाया। सावरकर ने उनमें उद्देश्य प्राप्ति के लिये हिंसा देखी, असत्य देखा, छल-कपट देखा, साम, दाम, दंड, भेद देखा। हिंदू धर्मियों को यह समझना होगा की वे राम, कृष्ण, पांडवों के पक्ष में खडे हैं कि रावण, कंस, दुर्योधन के पक्ष में। गांधी ने सत्य, अहिंसा, निर्भयता अपनाकर सिद्ध किया कि वे राम के प्रतिनिधि थे।(सप्रेस)

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