हिमांशु ठक्कर

विकास की बदहवासी में आजकल उसी को अनदेखा करने का चलन हो गया है जिसकी कसमें खाकर विकास किया जाता है। पिछले दिनों केन्द्रीय केबिनेट ने मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड़ इलाके की सिंचाई और पेयजल क्षमता बढाने की खातिर केन और बेतवा नदियों को जोड़ने की मंजूरी दी है, लेकिन इसमें भी उन बुनियादी शर्तों, अध्ययनों और अनुभवों को अनदेखा किया जा रहा है जिनके चलते नदी जोड़ने की देश की यह पहली परियोजना संकट खड़ा कर सकती है।

हाल ही में केन्‍द्रीय केबिनेट ने जिस धूमधाम के ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ को मंजूरी दी है उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। व्‍यापक प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव वाली इस परियोजना को मंजूरी देते समय न सिर्फ नीति-नियमों की अनदेखी की गई है, बल्कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय और ‘राष्‍ट्रीय हरित न्‍यायाधिकरण’ (एनजीटी) में विचाराधीन मामलों के निराकरण का इंतजार तक नहीं किया गया है।

कानूनन किसी भी परियोजना की शुरुआत के पहले वन और वन्‍यजीव संबंधी मंजूरियों के अलावा लंबित कानूनी प्रक्रियाओं का निराकरण जरुरी है, लेकिन ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना को अभी वन मंजूरी तक नहीं मिली है। इसके अलावा सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा गठित ‘केंद्रीय साधिकार समिति’ (सीईसी) ने परियोजना की वन्‍यजीव मंजूरी के बारे में बहुत बुनियादी सवाल उठाए हैं और सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इस पर अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है। कानूनी रुप से जरुरी परियोजना की पर्यावरणीय मंजूरी का मामला ‘एनजीटी’ में विचाराधीन है। ऐसी स्‍थिति में केबिनेट द्वारा इस विनाशकारी परियोजना को मंजूरी देना कानूनन सही नहीं है और आगामी उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में फायदे के लिए उठाया गया एक शुद्ध राजनैतिक कदम है।

केबिनेट के इस निर्णय ने व्‍यवस्‍था का एक सवाल खड़ा कर दिया है कि क्‍या केबिनेट उस परियोजना को मंजूरी दे सकती है जिसे अभी तक वैधानिक स्वीकृतियां तक नहीं मिली हैं तथा जिसकी वैधानिक स्वीकृति को चुनौती देने वाले मामले विभिन्‍न न्‍यायिक संस्‍थानों में विचाराधीन हैं। प्रधानमंत्री और केन्‍द्रीय केबिनेट इसके माध्‍यम से क्‍या संकेत देना चाहते हैं? ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ को इस तरह मंजूरी देने का वैधानिक और न्‍यायिक संस्‍थाओं पर क्‍या प्रभाव पड़ेगा?

30 अगस्‍त 2019 को ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ के बारे में सर्वोच्‍च न्‍यायालय में प्रस्‍तुत एक पथ-प्रदर्शक और उल्‍लेखनीय रिपोर्ट में ‘सीईसी’ ने जो बुनियादी सवाल खड़े किए थे वे न सिर्फ वन्‍यजीव मंजूरी की उपयुक्‍तता, बल्कि परियोजना की व्‍यवहार्यता, उपयोग और परियोजना की जरुरत से संबंधित थे। इस रिपोर्ट के अनुसार यह परियोजना ‘पन्‍ना टायगर रि‍जर्व’ की 9,000 हेक्‍टर जमीन डुबाने के अलावा 10,500 हेक्‍टर जमीन में वन्‍यजीव पर्यावास को भी नुकसान पहुँचाएगी।

परियोजना निर्माता ‘राष्‍ट्रीय जल अभिकरण’ द्वारा तैयार विस्‍तृत परियोजना रपट कहती है – “केन-बेतवा लिंक परियोजना का मुख्‍य उद्देश्‍य ऊपरी बेतवा कछार के जल संकटग्रस्‍त इलाकों में पानी उपलब्‍ध करवाना है… ”जबकि बेतवा का ऊपरी कछार बुंदेलखण्‍ड से बाहर है तथा वहाँ बुंदेलखण्‍ड से ज्‍यादा बारिश होती है। इस परियोजना से बुंदेलखण्‍ड के जिन हिस्‍सों में पानी पहुँचाने का आश्‍वासन दिया जा रहा है उनमें से अधिकांश हिस्‍सों में या तो किसी अन्‍य परियोजना से पानी मिल रहा है या फि‍र उनके बारे में दशकों से सिर्फ आश्‍वासन ही दिए जा रहे हैं। ‘वन सलाहकार समिति’ (एफएसी) और ‘सीईसी’ दोनों का मानना है कि ‘राष्‍ट्रीय जल विकास प्राधिकरण’ ने इस परियोजना के विकल्‍पों पर ध्‍यान नहीं दिया है।

यह परियोजना इस तर्क पर आधारित है कि दोनों नदियों में से छोटी नदी केन में अतिरिक्‍त पानी है जिसे बेतवा नदी में स्थानांतरित किया जा सकता है। लेकिन, जिन जल विज्ञान संबंधी आँकड़ों के आधार पर इसको स्वीकार किया गया है वे आँकड़े स्‍वतंत्र परीक्षण हेतु सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। जमीनी सच्‍चाई और उपलब्‍ध तथ्‍य बताते हैं कि तिकड़म के आधार पर इस परियोजना को मंजूरी दी गई है।

इस संबंध में ‘एफएसी’ का बहुत महत्‍वपूर्ण सुझाव, जिसे कभी लागू नहीं किया गया, यह है – “सतही जल-विज्ञान के प्रमुख संस्‍थानों के स्‍वतंत्र विशेषज्ञों की एक टीम से ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ के जल-विज्ञान संबंधी पक्षों का परीक्षण करने का निवेदन किया जाना चाहिए।” इतनी महँगी और व्‍यापक प्रभाव डालने वाली परियोजना के जल-वैज्ञानिक आधार की स्‍वतंत्र जाँच करवाने से सरकार इतना क्‍यों डरती है? स्‍पष्‍ट है, इसमें बहुत कुछ छिपाया गया है।

‘सीईसी’ ने पर्दाफाश किया है कि अगस्‍त 2017 में जिस अत्‍यधिक शर्मनाक और दिखावे के ‘पर्यावरणीय प्रभाव आकलन’ (ईआईए) के आधार पर ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ को पर्यावरणीय मंजूरी दी गई है, परियोजना के प्रभाव उससे पूरी तरह से अलग होंगे। ‘एफएसी’ सहित कई सरकारी एजेंसियों ने ‘ईआईए’ में तथ्‍यात्‍मक गलतियों और कमियों का उल्‍लेख‍ किया है।

‘पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ की ‘विशेषज्ञ मूल्‍यांकन समिति’ (इएसी) द्वारा दिसंबर 2016 में परियोजना हेतु की गई पर्यावरणीय मंजूरी की सिफारिश खुद अपने आप में भारी हेराफेरी की कवायद है, क्‍योंकि नदी घाटी परियोजनाओं संबंधी इसी समिति ने अपनी पिछली पांच मीटिंगों में इस परियोजना पर कई सवाल उठाए थे। तत्‍कालीन ‘जल संसाधन मंत्री’ उमा भारती ने तो परियोजना को मंजूरी न देने पर इस समिति को सार्वजनिक रुप से धमकाते हुए धरना तक देने की चेतावनी दी थी। इसके बाद मंत्रालय ने समिति का पुनर्गठन किया और उसने अपनी पहली ही मीटिंग में इस परियोजना को मंजूरी दे दी।

30 मार्च 2017 की ‘एफएसी’ के मिनिट्स की ये पंक्तियाँ गौर करने लायक हैं – “पन्‍ना टाईगर रिजर्व के पुराने जंगलों और इसकी समृद्ध जैव विविधता के मद्देनज़र इसके भीतर बाँध का निर्माण सूखाग्रस्‍त बुंदेलखण्‍ड इलाके में जल संसाधन विकास का सर्वोत्तम उपलब्‍ध विकल्‍प नहीं है…… परियोजना की कुल लागत में वन विस्‍थापन के कारण पारिस्थितिक तंत्र के नुकसान की कीमत शामिल नहीं की गई है…… यदि पारिस्थितिक तंत्र संबंधी हानियों की कीमतों को जोड़ा जाए तो ‘लाभ-लागत अनुपात’ बहुत कम होगा जो परियेाजना को अव्‍यवहार्य बना देगा।”

‘एफएसी’ का निष्‍कर्ष बहुत कड़ा है – “आदर्श स्थिति में ‘पन्‍ना टाईगर रिजर्व’ जैसे जंगल इलाकों में ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना’ को टालना बेहतर होता। खासकर तब, जब इसका औचित्‍य साबित करने का जोखिम हो या संरक्षित क्षेत्र के भीतर ऐसी ही अन्‍य विकास परियोजनाओं की गलत परंपरा शुरु हो जाए।” ‘एफएसी’ के इन निष्‍कर्षों के खिलाफ जाकर इस विनाशकारी परियोजना को मंजूरी देने के लिए प्रधानमंत्री या केन्‍द्रीय केबिनेट की क्‍या मजबूरी हो सकती है? परियोजना का इतना विरोध, हेराफेरी और कदम-दर-कदम निर्णय प्रक्रिया में हुए समझौतों के अलावा तत्‍कालीन ‘केंद्रीय जल संसाधन सचिव’ का संक्षिप्‍त जवाब इसे आसानी से समझाने के लिए पर्याप्‍त है। एक मीटिंग के दौरान उनसे सीधा सवाल किया गया कि सरकार ऐसी परियोजना को आगे क्‍यों बढ़ाना चाहती है जो बुंदेलखण्‍ड की समस्‍या हल करने के बजाय विनाशकारी सिद्ध होने वाली है। उनका संक्षिप्‍त जवाब था – इसकी लागत 45 हजार करोड़ रुपए है। शायद यही परम सत्‍य है।(सप्रेस)

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