कौशल किशोर

इंसानी वजूद के लिए रोटी, कपडा के बाद मकान तीसरा सर्वाधिक जरूरी संसाधन है, लेकिन हमारे देश में पहली और दूसरी जरूरतों की तरह इसका भी भारी टोटा है। समय-समय पर तत्कालीन सरकारें कुछ-न-कुछ करती तो हैं, लेकिन उससे सबके लिए मकान का सपना पूरा नहीं हो पाता। आजकल दंड की तरह अपराधियों के घर तोड देने ने मकानों की समस्या और बढा दी है।

केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ हेतु 79,590 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। इसमें ग्रामीण क्षेत्र के लिए 54,487 करोड़ और शहरी क्षेत्र के लिए 25,103 करोड़ रुपये हैं। पिछले बजट में 48,000 करोड़ रुपए आवंटित किया गया था। इस तरह रियायती आवास योजना के लिए 66 प्रतिशत की वृद्धि हुई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के गरीब परिवारों को ध्यान में रखकर 2015 में पक्का मकान बनाने का कार्यक्रम शुरु किया था।

कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के साथ पुरानी झोपड़ियां कांक्रीट की संरचना में तब्दील हो रही हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में नागरिकों के गरिमामय जीवन का प्रावधान किया गया है। आश्रय का अधिकार भी इसमें निहित है। सरकार इसके प्रति समर्पित है। पिछले 7 सालों से जारी रियायती आवास योजना पर बढ़ते व्यय से यह परिलक्षित होता है। भारत के गांवों में बसने वाले लगभग तीन करोड़ परिवार इसके लाभार्थी हैं।

‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ में धन आवंटन लाभार्थी परिवार की प्रमुख महिला सदस्य के नाम किया जाता है। घर का मालिकाना हक उनके साथ तय किया जाता है। ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत शौचालय की व्यवस्था की गई। पेयजल की आपूर्ति, बिजली कनेक्शन, रसोई गैस की आपूर्ति और ‘जन धन खाता’ से इसे जोड़ा गया है।

निश्चय ही यह न केवल भारत के इतिहास में, बल्कि पूरे विश्व में सबसे बड़ी हाउसिंग परियोजना है, पर यह अपने तरह की पहली सार्वजनिक आवास योजना नहीं है। इसका इतिहास देश की आजादी के साथ शुरु होता है। अखंड भारत के विभाजन के ठीक बाद पुनर्वास कार्यक्रम शुरू हुआ। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले लाखों लोगों को ध्यान में रखकर इसे लागू किया गया था।

उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्र में पांच लाख शरणार्थी परिवारों को बसाने का कार्य अगले 13 सालों तक जारी रहा। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1957 में ‘ग्रामीण आवास योजना’ शुरु की थी। यह आश्रय की दूसरी योजना थी। ‘योजना आयोग’ ने दूसरी ‘पंचवर्षीय योजना’ के तहत इसे शुरु किया था और पाँचवीं ‘पंचवर्षीय योजना’ के अंत तक यह जारी रही। इसके तहत 67,000 मकानों का निर्माण हुआ था।

इसके उपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सत्तर के दशक में ‘आवास विकास सहयोग’ स्कीम शुरु की। एक दशक बाद राजीव गांधी ने भी अपनी मां की याद में ‘इंदिरा आवास योजना’ शुरू की। इसके तहत 1985 से अगले तीन दशकों तक रियायती आवास का निर्माण किया गया। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में ‘जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन’ आरंभ किया। 2013 में ‘राजीव आवास योजना’ भी शुरू की गई। इसमें 2022 तक भारत को मलिन-बस्तियों से मुक्त करने का लक्ष्य रखा गया था। इन रियायती योजनाओं को कांग्रेस की विरासत माना जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सभी के लिए आवास’ के नारे के साथ आवास योजना शुरू की। ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के साथ इसे 2022 में पूरा करने का लक्ष्य रखा गया। तमाम कोशिशों के बाद भी इसे पूरा नहीं किया जा सका। इसे 2024 तक बढ़ा दिया गया है। इस योजना का कार्यक्षेत्र ग्रामीण और शहरी में विभाजित है। ग्रामीण क्षेत्र में तीन करोड़ मकान और शहरी क्षेत्र में डेढ़ करोड़ घरों के लिए 8.3 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे। ग्रामीण क्षेत्रों में दो करोड़ से ज्यादा मकान बनाए जा चुके हैं, शहरी क्षेत्रों में करीब सत्तर लाख घरों का काम पूरा हुआ है।

आश्रय के अधिकार के दौर में बुलडोज़र की राजनीति भी शुरू हुई। कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य ने आपराधिक मामलों के अभियुक्तों के घर ध्वस्त करने के लिए इसे शुरु किया है। हालांकि बुलडोजर का इस्तेमाल अपराधियों तक ही सीमित नहीं है, शहरी इलाके की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले निर्दोष भी इसका शिकार होते हैं। इस पर रोक नहीं लगाने की दशा में लंबे समय तक रियायती आवास योजना जारी रखने का अवसर बना रहेगा।

आश्रय के अधिकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय खूब सक्रिय है। इसके साथ अवैध निर्माण ध्वस्त करने की प्रतिबद्धता भी है। ताजा बजट से कुछ दिन पहले शीर्ष अदालत ने हिमालयी राज्य उत्तराखंड के हल्द्वानी में बनभूलपुरा और मोहल्ला-नईबस्ती को गिराने पर रोक लगाने के लिए स्थगन आदेश पारित किया था। पिछले साल दिसंबर में नैनीताल उच्च न्यायालय ने हल्द्वानी में 29 एकड़ रेलवे भूमि पर लंबे अरसे से रहने वाले पचास हजार लोगों को बेदखल करने का निर्देश दिया था।

आश्रय के उनके संवैधानिक अधिकार की रक्षा के इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पीड़ितों के पुनर्वास का प्रस्ताव दिया है। इस मामले की सुनवाई के दौरान 7 फरवरी को सरकार आठ हफ्तों का समय मांगती है। अगली सुनवाई 2 मई को तय हुई है। इस बीच पक्षकार आपसी सहमति से समझौता कर सकें, इसका प्रावधान भी है। इस मामले में अधिकांश पीड़ित मुस्लिम समुदाय से हैं। ऐसे में हिंदू-मुस्लिम की राजनीति हो रही है।

दिल्ली-हरियाणा सीमा पर फरीदाबाद में खोरी गाँव का विध्वंस आश्रय के मौलिक अधिकार की परिधि से बाहर नहीं है। शीर्ष अदालत ने अरावली के जंगल की रक्षा के लिए 2021 में इसे ध्वस्त करने का निर्देश दिया था। इस मामले में पीड़ितों की संख्या एक लाख है। इन गांववासियों ने ध्वस्तीकरण से पहले पुनर्वास के लिए खूब प्रयास किए जो आज भी जारी हैं। हालांकि ध्वस्तीकरण के बाद सीमित लोगों के पुनर्वास के लिए अदालत ने राज्य को निर्देश दिया था। करीब एक हजार परिवारों के पुनर्वास की योजना बनी और दो सौ परिवारों को घर भी आवंटित किया गया, परंतु उनमें से किसी का पुनर्वास नहीं हो सका। रह-रह कर पीड़ित विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

वन विभाग द्वारा खोरी गांव के साथ सौ से ज्यादा अवैध निर्माण चिन्हित किए गए हैं। हैरत की बात है कि अरावली क्षेत्र में अवैध निर्माण ध्वस्त करने की कार्रवाई खोरी तक सीमित रह गई है। बड़े इलाके में अतिक्रमण कायम है। इस मामले में ज्यादातर पीड़ित शहरी गरीब थे। अभिजात्य वर्ग बनाम गैर-अभिजात्य वर्ग के इस खेल से सुप्रीमकोर्ट की प्रतिष्ठा पर आंच आती है। यह एक ऐसे दौर की बात है, जब देश कोरोना महामारी के प्रकोप से जूझ रहा था।

जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश के शहरी क्षेत्रों में एक करोड़ से ज्यादा खाली घर हैं। इनमें 5 करोड़ लोग रह सकते हैं। ये शहरों में आवास की आधी जरुरत पूरी कर सकते हैं। सरकार ने आश्रय के संवैधानिक अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए रियायती आवास योजना पर ध्यान केंद्रित किया है, लेकिन लगातार बढ़ रहे खाली घरों के मामले में निष्क्रियता का परिचय दिया है। इस समस्या को दूर करने के लिए कई देशों में खाली मकान पर टैक्स लगाया गया है। अचल संपत्ति को किराए पर देने के मामले में अवैध कब्जे की समस्या खड़ी होती है। इस पर रोक लगाने के लिए बेहतर कानून बनाए गए हैं। इस दिशा में बेहतर प्रयास की जरूरत है।

खोरी गांव के नजदीक फरीदाबाद और दिल्ली की सीमा में खाली घरों की कमी नहीं रही। ध्वस्तीकरण के शिकार हुए लोगों की पीड़ा कम करने के लिए सरकार और न्यायालय इनका इस्तेमाल करने हेतु प्रभावी कार्रवाई कर सकती थी। हैरत की बात है कि भारतीय संस्कृति की ‘अतिथि देवो भव’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का पाठ करने वाले लोगों में से कोई इनकी मदद के लिए आगे नहीं आया। दूसरी ओर यह भी सच्चाई है कि इस उदारता का विस्तार भी कई देशों में हो रहा है। खाली भवनों में निवास के लिए प्रोत्साहित करने वाला क्षेत्र का प्रशासन भदेस संस्कृति की पैरवी करने वालों को आइना दिखाता रहेगा। (सप्रेस)

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