अमन नम्र

जीत-हार की राजनीति में आकंठ डूबे राजनेता पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में लगे हैं। इसके कुछ महीनों बाद समूचा देश केन्द्र की सत्ता चुनने में लग जाएगा, लेकिन ऐसे में क्या हमारी मौजूदा हालातों पर विचार करना मौजूं नहीं होगा? क्या इन चुनावों के बहाने आजादी के साढ़े सात दशकों में हासिल वर्तमान परिस्थितियों की समीक्षा नहीं करना चाहिए?

मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम सत्ता में आने को लालायित नाना प्रकार की पार्टियां अपने लोकलुभावन वादों से जनता को बहलाने में जुटी हैं। जनता को विकल्प भी इन्हीं में से चुनना है। जल्द ही नई सरकारें चुनी जाएंगी जो अगले पांच सालों तक इनके विकास की बागडोर थामेंगी। इसके तीन-चार महीने बाद लोकसभा चुनाव होंगे और देश की सरकार बनेगी जो भविष्य की दशा और दिशा तय करेगी। पर सवाल यह है कि क्या यह दशा और दिशा बीते सात दशकों से जारी विकास की मौजूदा अवधारणा से अलग या बेहतर होगी? विषय थोड़ा गंभीर है, पर मौजूं है और हमारे, आपके ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है, इसलिए इस पर विचार करना जरूरी है। 

पहले हाल की दो खबरों की सुर्खियां पढ़िए। पहली, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगले पांच साल तक देश के 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन की योजना जारी रहेगी और दूसरी, दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन गया है। अगर पहली सुर्खी की बात करें तो यह तथ्य हमें चुल्लू भर पानी में डूबने पर मजबूर कर देगा कि 76 साल पहले जब देश को आजादी मिली थी, उस समय की आबादी (34 करोड़) की तुलना में आज मुफ्त राशन पाने वाले गरीबों की संख्या दोगुना से ज्यादा है। यह तमाम ‘पंचवर्षीय,’ ‘7 वर्षीय,’ ‘योजना आयोग,’ ‘नीति आयोग’ या कांग्रेस, भाजपा, जनता पार्टी या यूपीए, एनडीए शासित सरकारों के विकास का नतीजा है।

इसी विकास का एक नतीजा दूसरी सुर्खी भी है कि हमारे देश की राजधानी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में टॉप पर है। क्या ऐसा नहीं लग रहा कि हम विकास के नाम पर 76 साल पहले जिस गलत दिशा में मुड़ गए थे, उसी दिशा में अब इतने आगे पहुंच चुके हैं कि विनाश को ही अब हमने विकास समझ लिया है। 

इस बात को हम तीन तरह से देख, समझ सकते हैं। आजादी से पहले और आजादी की लड़ाई के दौरान भविष्य के किस भारत की कल्पना की गई थी, मजबूरी में हमने किस तरह का भारत बनाना शुरू किया और जो भारत आज बना उसका भविष्य क्या है। यह कम-से-कम उस भारत की दिशा में जा रहा देश तो कतई नहीं है जिसकी कल्पना और सोच महात्मा गांधी ने की थी। ‘हिंद स्वराज’ का सपना देखने वाले गांधी कहते थे कि हमारी पहली प्राथमिकता विदेशी राज्य को हटाना है और ‘हिंद स्वराज’ के लिए अभी जनता तैयार नहीं हो पाई है इसलिए सारी ताकत ‘संसदीय स्वराज’ दिलाने में लगा देनी है। हमारे हुक्मरानों ने ‘संसदीय स्वराज’ वाले गांधी को तो याद रखा, पर यह भूल गए कि यह केवल तात्कालिक व्यवस्था थी। गांधी का असली सपना ‘संसदीय स्वराज’ नहीं, ‘हिंद स्वराज’ का था। आज हम गांवों को खत्म कर शहरों के दायरे बढ़ाते जा रहे हैं, पर गांधी इसके पूरी तरह खिलाफ थे। शहरों के बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ आवाज उठाने वाले गांधी ने गांवों के संरक्षण की बात कही थी।

यहां यह सवाल पूछा जा सकता है कि अब गांधी कितने प्रासंगिक हैं? जवाब है कि अगर गांधी और उनके विचार प्रासंगिक नहीं हैं तो सरकार आधिकारिक तौर पर उन्हें हटा क्यों नहीं देती। दरअसल गांधी कभी किसी व्यक्ति का नाम नहीं रहा। वह तो आजादी के लिए देश के कोने-कोने में घूमकर लोगों को जागृत करने वाली ऐसी विचारधारा थी जो उस वक्त मिट्‌टी में ही घुलमिल गई थी और आज भी देश की मिट्टी, हवा, पानी और इसकी आत्मा का अहम हिस्सा है। कम-से-कम आज सात दशक बाद हम थोड़ा सा ठहर कर यह विचार तो कर ही सकते हैं कि अगर देश बनाने का गांधी का ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विचार सही नहीं था तो क्या बड़े बांध और बड़े उद्योगों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ कहने वाले नेहरू का मॉडल सही था?  

इसे जानने का सबसे आसान तरीका यह है कि हम देखें कि आजादी के समय किस तरह के भारत को बनाने के विकल्प पर विचार किया गया था। गांधी की सोच थी कि भविष्य के समाज का धारण और पोषण यानी समाज का विकास धर्म, बंधुत्व और परिवार भावना से होना चाहिए, नहीं तो देश चलाने के लिए ‘शैतानी ताकतों’ का सहारा लेना पड़ेगा। उसमें जबरदस्ती होगी, आतंक होगा और उसके समर्थन के लिए आपको राज्य, लोकतंत्र, चुनाव, समाजवाद जैसी कोई-न-कोई प्रतिमा खड़ी करनी होगी।

गांधी ने करीब सौ साल पहले ही आज की हालत की कल्पना कर ली थी। तब उन्होंने समाज गढ़ने के दो विकल्प सुझाए थे, एक – सभ्य समाज, जो स्वतंत्र व्यक्तियों का बना हुआ हो और जिसके धारण, पोषण के लिए कानून, व्यवस्था, राजतंत्र का ढांचा, संविधान आदि हो जिसका दिन-प्रतिदिन विस्तार होता जाए। दूसरा -पारिवारिक समाज, जिसका धारण पोषण पारिवारिक भावना से हो। उसमें संविधान आदि औपचारिक ढांचे की जरूरत दिन-प्रतिदिन कम होती जाए। 

आजादी की लड़ाई और आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों के दौरान जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के पास भारत के विकास और आर्थिक मॉडल के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण थे। ये मतभेद उनके विशिष्ट वैचारिक और दार्शनिक दृष्टिकोण में निहित थे। नेहरू ने पारिवारिक समाज के बजाय गांधी के पहले मॉडल को चुना, जिसके लिए कानून, राज्य, चुनाव जैसी व्यवस्था और तंत्र खड़ा किया गया। पंडित नेहरू विकास के लिए अधिक औद्योगिकीकृत और आधुनिक दृष्टिकोण में विश्वास करते थे। उन्होंने आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए भारी औद्योगीकरण, वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी प्रगति पर जोर दिया। उनका दृष्टिकोण भारत का तेजी से औद्योगीकरण करने और एक मजबूत, केंद्रीकृत और आधुनिक राष्ट्र बनाने की इच्छा से प्रभावित था।

दूसरी ओर, गांधी ने विकास के लिए विकेंद्रीकृत, ग्रामीण-केंद्रित दृष्टिकोण की वकालत की थी। गांधीजी का दृष्टिकोण स्वराज या जमीनी स्तर पर स्व-शासन के विचार में निहित था, जहां गांव आत्मनिर्भर और स्वशासित होंगे। नेहरू का विकास मॉडल पूंजी-प्रधान था, जिसमें बड़े पैमाने पर औद्योगिक परियोजनाओं, भारी मशीनरी और बुनियादी ढांचे में निवेश पर जोर दिया गया था। वहीं, गांधीजी का मॉडल श्रम प्रधान था, जिसमें छोटे पैमाने पर उत्पादन और कृषि गतिविधियों में मानव श्रम के उपयोग पर जोर दिया गया था। वह गरीबी को कम करने और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जनता को रोजगार के अवसर प्रदान करने में विश्वास करते थे।

आज सात दशक बाद हम इस पर पुनर्विचार तो कर ही सकते हैं कि आखिर नेहरू के आर्थिक विकास का मॉडल कितना सफल रहा। अगर आर्थिक और ढांचागत विकास के तौर पर देखें तो निश्चित ही देश ने अभूतपूर्व प्रगति हासिल की है। देश की जीडीपी 3 लाख करोड़ से बढ़कर 275 लाख करोड़ के पार पहुंच चुकी है। 1950-51 में आम आदमी की औसत कमाई 274 रुपए सालाना थी, यह अब बढ़कर करीब डेढ़ लाख रुपए सालाना पर पहुंच चुकी है। शिक्षा, तकनीक, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में हमने काफी तरक्की की है। हम चांद पर पहुंच चुके हैं, खुद को विश्वगुरु बताते हैं और अब विकास के कुछ नए प्रतिमान गढ़ने के लिए भी तैयारी जारी है। 

यहां कुछ देर ठहरकर अगर हम दो-चार बुनियादी सवालों के जवाब खोजें तो शायद आगे के सफर की दिशा तय करने में आसानी होगी। यह पूछें कि क्या आज देश में गरीबी खत्म हो चुकी है। अगर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का नेहरू का आइडिया सही था तो सात दशक में हर व्यक्ति को संपन्न नहीं, तो कम-से-कम गरीबी की जिल्लत से तो बाहर आ ही जाना था। प्रधानमंत्री का यह कहना कि अगले पांच साल तक 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त का राशन दिया जाएगा, हमारी विकास की मौजूदा अवधारणा को धराशायी कर देता है।

आज सत्ता और विपक्ष दोनों को ही सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचना चाहिए। अगर गांधी नहीं चाहिए तो कोई बात नहीं, लेकिन यह भी देखना होगा कि उससे बेहतर हम क्या कर सकते हैं। आज अगर हम देश के हर गरीब को मुफ्त राशन के बजाय आत्मसम्मान से जीने लायक माहौल बना पाएं, महिलाओं को हर महीने मुफ्त की राशि देने के बजाय उनकी मेहनत को सम्मान दे पाएं, बच्चों को अच्छी और सच्ची शिक्षा दे पाएं, हर व्यक्ति को स्वच्छ पानी, साफ हवा और पौष्टिक भोजन मुहैया करा पाएं तो शायद देश के विकास में इससे ज्यादा धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान और कोई नहीं होगा। इतिहास ने हमें एक और मौका दिया है कि हम भूतकाल में की गई अपनी गलतियों से सीखें, वर्तमान को सुधारें और भविष्य को गढ़ने में जुट जाएं। (सप्रेस) 

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