चंडी प्रसाद भट्ट

विकास के नाम पर आजकल जिस तरह के धतकरम जारी हैं उनसे चहुंदिस बर्बादी और विनाश ही उपजता दिखाई दे रहा है। इन दिनों उत्तराखंड का ऐतिहासिक नगर जोशीमठ इसी विकास की चपेट में कराह रहा है। ऐसे में क्या किया जाना चाहिए? क्या ऐसी त्रासदियों को बरकाया जा सकता है?

ऐसा लगता है कि बहस बहुत सीमित दायरे में हो रही है। वर्तमान आपदा ने हमें इस सब विचार-विमर्श तथा मंथन के लिये विवश किया है। राज्य व्यवस्था अपनी स्वाभाविक जिम्मेदारी, जो उत्तराखंड़ जैसे पर्वतीय राज्य में और भी केन्द्रीय हो जाती है, से यह विचार विकसित नहीं कर सकी है। पुरानी कहानी छोड़ दें तो भी नये राज्य को जन्मे 22 साल होने जा रहे हैं। इस बीच राज्य के पारिस्थितिक इतिहास को ठीक से पढ़ लिया जाना चहिये था। वर्ष 1803 के गढ़वाल के महाभूकंप से 2013 की आपदा तथा फरवरी 2021 एवं जोशीमठ की वर्तमान आपदा तक आते-आते यह प्रक्रिया ‘प्राकृतिक’ से ‘मानवकृत’ अधिक हो गयी है।

जरूरत समग्र पर्यावरण को देखने की है। यदि यहां के भूगर्भ, भूगोल, प्राकृतिक संसाधनों और उनके इस्तेमाल की समझ हमें नहीं है तो हम यहां के पर्यावरण के बारे में न्यूनतम राय भी नहीं बना सकते। जमीन, जंगलात और जल-संपदा तथा इनसे जुड़े समस्त उप-संसाधनों पर एक गहरी नजर डालने की आज जरूरत है। वर्ष 1893 में गौनाताल का बनना और 1894 में उसका आंशिक रूप से टूटना पूरी तरह से प्राकृतिक प्रक्रिया कही जा सकती है पर 1970 की अलकनंदा बाढ़ में जंगलों के कटान की दुर्भाग्यपूर्ण तथा निर्णायक भूमिका रही।

वर्ष 2013 और बाद के सालों में, 2021 रेंणी एवं वर्तमान में जोशीमठ में आई आपदा को सिर्फ आंशिक रूप से प्राकृतिक कहा जा सकता है। ये त्रासदी दरसल हमारे द्वारा बनाई और विकसित की गई है। स्पष्ट ही इसमें खनन, गलत प्रकार से सडकों का निर्माण, डाइनामाइट का अत्यधिक प्रयोग, जलविद्युत परियोजनाओं का बिना गहरी पड़ताल के बनाया जाना, नदियों के प्रवाह क्षेत्र में घुसपैठ आदि का योगदान रहा है। जलवायु परिवर्तन भी इसका एक कारण हो सकता है, पर वह संपूर्ण कारण नहीं है।

वैज्ञानिक और समाजिक संस्थायें लगातार सुझाव और चेतावनी देती रही हैं। पर्यावरण मंत्रालय की कमेटियां, ‘कैग,’ हाइकोर्ट तथा सुप्रीमकोर्ट ने अनेक बार हस्तक्षेप किया है। मीडिया बार-बार गड़बड़ियों को उजागर करता रहा है, पर सरकारें सदा अत्यंत नकारात्मक सोच होने पर लापरवाही से इस महत्वपूर्ण मामले को देखती रही हैं।

वर्तमान त्रासदियों को बढ़ाने में जलविद्युत परियोजनाओं का सर्वाधिक बड़ा योगदान रहा है। समाज का बड़ा हिस्सा और वैज्ञानिक इनके विरोध में तर्क देते रहे हैं। स्वयं सरकार ने इसे लेकर अनेक सकारात्मक निर्णय लिये हैं। मसलन, 1982 में ‘चिपको आंदोलन’ के वैज्ञानिक तर्कों को मा

नते हुए ‘विष्णु प्रयाग परियोजना’ का निर्माण रोकने का निर्णय लिया गया था या कुछ ही पहले भागीरथी के ऊपरी क्षेत्रों की तीन जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण बन्द करा दिया गया था। परन्तु जलविद्युत परियोजनाओं का तर्क तथा जलविद्युत लॉबी देश की राजनीति को प्रभावित करती रही है। नतीजे में इन परियोजनाओं में कभी भी पर्यावरण की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया।

विनाश और बर्बादी के लिये जलविद्युत परियोजनाओं की जिम्मेदारी तय होनी चहिये और उन्हें इसका हर्जाना भी देना चहिये। मामला चाहे ‘पूर्वी धौली,’ ‘विष्णु गंगा’ या ‘मनेरी भाली परियोजना’ का हो या ‘श्रीनगर,’ ‘अस्सी गंगा,’ ‘मंदाकिनी’ या ‘गौरी नदी,’ ‘ऋषी गंगा’ की परियोजनाओं का। हर घाटी में आपदा को त्रासद रूप इन परियोजनाओं ने ही दिया है।

उत्तराखंड में खेती की जमीन अत्यंत कम है, खासकर पर्वतीय क्षेत्र (88 प्रतिशत) में यह और भी कम है। अतः जमीन का विनाश होने, बिक्री होने और गैर-कृषि उपयोग करने से रोकना होगा। जमीन की हर तरह की हिफाजत पर्वतवासियों के अस्तित्व से जुड़ी है। इसी तरह जंगलों का विस्तार ग्रामीणों के पारम्परिक वनाधिकारों का पूरा सम्मान करते हुये किया जाना चहिये। चौड़ी पत्ती के जंगलों का विस्तार और चीड़ पर नियंत्रण भी जरूरी है। वन-पंचायतों की स्वायत्तता बरकरार रखी जानी चहिये और उनका विस्तार होना चहिये।

पानी के निजीकरण को रोकना जरूरी होगा। समुदायों को पानी के प्रबंधन का अधिकार देकर बड़ी जलविद्युत कंपनियों से नदियों को बचाया जाना चाहिये। प्राकृतिक या मनुष्य द्वारा रचा गया भूस्खलन अंततः नदियों को रोकता और उथला करता है। इससे नदियों का व्यवहार बदल जाता है और वे विध्वंसक रूप ले लेती हैं। अतः वैकल्पिक ऊर्जा पर व्यापक काम होने चहिये।

कोई भी कमेटी सिर्फ सरकारी लोगों की नहीं होनी चहिये। ऐसी कमेटियों से मौलिक विचार कभी नहीं निकलते। अतः कम-से-कम आपदा के बाद तो अनुभवी लोगों का परामर्श लेने में झिझक नहीं दिखाई जानी चहिये। ‘कैग,’ विभिन्न न्यायालयों या जांच-कमेटियों ने जिन सरकारी विभागों या संस्थानों पर अंगुली उठाई है उनको दुबारा जिम्मेदारी देने में सावधानी बरतनी चहिये। पर्यावरण पर परियोजनाओं के विभिन्न प्रभावों या समग्र प्रभाव के सतही अध्ययन की ओर सर्वोच्च न्यायालय ने संकेत किया है। यह काम विश्वसनीय संस्थाओं द्वारा ही कराया जाना चहिये।

अंत में, प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को मेरे द्वारा ‘विष्णु प्रयाग’ तथा अन्य जलविद्युत परियोजनाओं की गहरी समीक्षा किये जाने हेतु लिखे गये पत्र को अग्रसारित करते हुए 05 अगस्त 1982 को हेमवतीनंदन बहुगुणा द्वारा लिखे गये पत्र का अंश उद्धृत करना उचित होगा। इसमें उन्होंने लिखा था ‘सही मायने में वही परियोजना सफल मानी जायेगी, जो विनाश-रहित होगी और जिसके क्रियान्वयन से क्षेत्र की जनता को, प्राकृतिक संपदा को और क्षेत्र की रमणीयता को किसी प्रकार की क्षति नहीं होगी।’ (सप्रेस)

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