कुमार प्रशांत

अब रूस व नोटो के दो पाटों के बीच पिसता हुआ यूक्रेन है. यूक्रेन के भी अंतरविरोध हैं जैसे हम मुल्क में जातियों-भाषाओं-प्रांतों के अंतरविरोध होते हैं. उन अंतरविरोधों का न्याय व समझदारी से शमन करना यूक्रेन की सरकार का दायित्व है. लेकिन दूसरे किसी को यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि वह किसी भी मुल्क के अंतरविरोधों पर पेट्रोल छिड़कने का काम करे ? रूस ने भी और नाटो ने भी यही जघन्य अपराध किया है. यूक्रेन की यह त्रासदी हर सभ्य व स्वतंत्रचेता देश व नागरिक के लिए शोक व शर्म का विषय है.

दुनिया के मानचित्र पर एक नया तिब्बत आकार ले रहा है. इस बार उसका नाम यूक्रेन है. अपनी ऐतिहासिक भूलों के कारण जो इतिहास में गुम हो जाता है उसे वर्तमान में प्रागऐतिहासिक तरीकों से ढूंढ़ना मूर्खता भी है, मूढ़ता भी और अशिष्टता भी. यूक्रेन में रूसी राष्ट्रपति ब्लादामीर पुतिन जो कर रहे हैं वह अनैतिक भी है, अशिष्ट भी और सड़कछाप शोहदों जैसी दादागिरी भी. और दुनिया के वे तमाम लीडरान, जो अपने को विश्व राजनीति का आका बताते, सीना फुलाए घूमते रहते हैं, किसी कायर जोकर जैसे दिखाई दे रहे तो हैं तो इसलिए नहीं कि वे पुतिन के सामने निरुपाय हो गए हैं बल्कि इसलिए कि इन सबके भीतर एक पुतिन सांस लेता है और इन सबके अपने-अपने यूक्रेन हैं.

दोनों महायुद्धों में एक बात समान हुई – हिंसा की महाशक्तियों के बीच संसार का मनमाना बंटवारा ! यूरोप, अफ्रीका व एशिया के छोटे व पराजित देशों की सीमाओं का मनमाना निर्धारण कर के एक ऐसा घाव बना दिया गया जो सदा-सदा रिसता रहता है. यह बहुत कुछ वैसा ही था जैसे दो बिल्लियों के बीच बंदर ने रोटियों का बंटवारा किया जिससे बिल्लियां भूखी रह गईं और बंदर सारी रोटियां लील गया. स्वतंत्रता, लोकतंत्र,मानवीय अधिकार व मानवता के नाम पर ऐसा ही खेल हुआ था. उसका जहर फूटता रहता है.

एकमात्र गांधी थे जो इस गर्हित खेल को समझ भी रहे थे और समझा भी रहे थे. वे बार-बार यही कह रहे थे कि यह महायुद्ध न लोकतंत्र के लिए है, न फासिज्म के खिलाफ है और न मानवीय गरिमा व स्वतंत्रता की रक्षा के लिए हो रहा है. यह साम्राज्यवाद को नई धार देने के लिए, साम्राज्यवादी शक्तियों का रचा खेल है. गांधी ने इसके प्रमाणस्वरूप भारत को गुलाम बनाए रखने का संदर्भ सामने रखा था, और पूछा था : यह कैसे संभव है कि फासिज्म के खिलाफ व लोकतांत्रिक मूल्यों के रक्षण का दावा करने वाले मित्र-राष्ट्र भारत जैसे विशाल देश को सदियों से गुलाम बना कर रखें, उसे उसकी मर्जी के खिलाफ युद्ध में झोंक दें और फिर भी फासिस्ट व लोकतंत्रहंता न कहलाएं ? उनका सवाल इतना सीधा व मारक था कि व्यावहारिक राजनीति के उस्ताद समझे जाने जवाहरलाल, सरदार, मौलाना जैसे सभी बगलें झांकने लगे थे और लाचार होकर इस बूढ़े के पीछे, सन् 42 के भारत छोड़ो आंदोलन में आ खड़े हुए थे. आज विश्वपटल पर कोई गांधी नहीं है.

यूक्रेन पर खुला हमला करने से पहले राष्ट्रपति पुतिन ने अपने राष्ट्र को संबोधित करते हुए, दुनिया से जो कुछ, जिस भाषा व जिन शब्दों में कहा, उसमें हिटलर से आज तक के जितने दक्षिणपंथी नेता हुए हैं, और हैं, उन सबकी साफ गूंज सुनाई  देती है. भारत की भी. वामपंथ व उदारवाद कभी ऐसा दक्षिणपंथी नहीं हुआ था जैसा आज बना दिया गया है. अब इनके बीच कोई विभाजक रेखा बची नहीं है; बचे हैं सिर्फ कुछ नाम जिन्हें आप अासानी से अदल-बदल कर सकते हैं.

पुतिन अपने संबोधन में अतीत का महिमामंडन करते हैं, रूस की पुरानी हैसियत वापस लाने का आह्वान करते हैं, और लेनिन, स्टालिन, ख्रुश्चेव के सर यूक्रेन बनने का ठीकरा फोड़ते हैं और फिर गर्बाचोव को वह निकम्मा राजनेता बताते हैं जिसने रूसी मुट्ठी से यूक्रेन को निकल जाने दिया. अपना सर बचा कर, दूसरे का सर फोड़ना कायराना खेल है.

पुरातन स्वर्णिम था? होगा; लेकिन वर्तमान ? क्या इसकी कोई हैसियत नहीं है ? आज जो है क्या वह भी ठोस हकीकत नहीं है ? यह ठोस हकीकत है कि यूक्रेन विश्व बिरादरी का एक संप्रभु राष्ट्र है जिसे अपने दोस्त, कम दोस्त व दुश्मन चुनने का वैसा ही अधिकार है जैसा अधिकार रूस को है. यह भी संभव है को यूक्रेन जिसे भी चुने, उससे रूसी हित को धक्का लगता हो. तो क्या करेंगे आप ? यूक्रेन पर हमला कर देंगे ? अगर ऐसा ही चलना है तो दुनिया में सामान्य लोकतंत्र भी नहीं बचेगा. इससे तो यहां वह जंगल-राज बन जाएगा जिसमें बड़ी मछली छोटी मछली को खा भी जाती है और इसे प्राकृतिक न्याय कहती भर नहीं है बल्कि इससे असहमत आवाजों को कुचलने की कोशिश भी करती है. 

रूसी हमला अचानक नहीं हुआ है. इसकी घोषणा काफी पहले कर दी गई थी. तलाश सबसे उपयुक्त मौके की थी. वह मौका अमरीका ने अपना नाटो नाटक रच कर दे दिया. साम्यवाद के प्रसार को रोकने के नाम पर बनाया गया नाटो दरअसल अमरीकी-यूरोपीय हित का संरक्षण करने वाला मुखौटा भर था. सोवियत संघ के विघटन के बाद तो इसका शाब्दिक औचित्य भी नहीं रह गया था. लेकिन अमरीकी-यूरोपीय आकाओं ने इसे बनाए रखा ताकि खंडित सोवियत संघ के टुकड़ों को अपने भीतर समेट कर, बचे-खुचे सोवियत संघ को अंतिम चोट दी जा सके. लेकिन हम यह न भूलें कि यह वही खेल है जो अपनी तरफ से सोवियत संघ भी खेलता रहा है. यह याद करना भी दिलचस्प होगा कि यही पुतिन थे कि जो अपने राष्ट्रपतित्व के प्रारंभिक दौर में नाटो में शामिल होने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें जब यह समझ में आ गया कि नाटो में उनकी हैसियत का निर्धारण अमरीका ही करेगा, तब उन्होंने उधर से मन फेर लिया. मतलब यह कि पुतिन को मुल्कों की ऐसी दुरभिसंधियों से तब तक एतराज नहीं  होता है  जब तक वे उसमें मुखिया की हैसियत रखते हों. यह साम्राज्यवाद का ही बदला हुआ चेहरा है.

अब रूस व नोटो के दो पाटों के बीच पिसता हुआ यूक्रेन है. यूक्रेन के भी अंतरविरोध हैं जैसे हम मुल्क में जातियों-भाषाओं-प्रांतों के अंतरविरोध होते हैं. उन अंतरविरोधों का न्याय व समझदारी से शमन करना यूक्रेन की सरकार का दायित्व है. लेकिन दूसरे किसी को यह अधिकार कैसे मिल जाता है कि वह किसी भी मुल्क के अंतरविरोधों पर पेट्रोल छिड़कने का काम करे ? रूस ने भी और नाटो ने भी यही जघन्य अपराध किया है. यूक्रेन की यह त्रासदी हर सभ्य व स्वतंत्रचेता देश व नागरिक के लिए शोक व शर्म का विषय है.

इसलिए इसे थामना जरूरी  है. कोरोना की मार से त्रस्त संसार अभी ऐसे किसी युद्ध को सहने में असमर्थ है. असमर्थ मानवता पर युद्ध लादे तो जा ही सकते हैं लेकिन उसका विष सबके लिए मारक साबित होगा. इसलिए आर्थिक प्रतिबंध आदि नहीं, सीधे संवाद का ही रास्ता है जो गाड़ी को पटरी पर ला सकता है. अमरीका, फ्रांस व जर्मनी को कटुता फैलाना छोड़ कर पुतिन को साथ लेना ही होगा. पुतिन को यह सच्चा भरोसा दिलाना जरूरी है कि यूक्रेन की सरहद का इस्तेमाल कभी भी और कैसी भी स्थिति में रूस को अरक्षित करने में नहीं किया जाएगा. नाटो के 30 सदस्य देशों का ऐसा संयुक्त बयान संयुक्त राष्ट्रसंघ में दिया जाए. यह ऐसा प्रयास है जिसकी पहल भारत को तत्परता से करनी चाहिए. चीन ने रूस को बता दिया है कि वह रूसी कदम का सीधा विरोध नहीं करेगा लेकिन वह यूक्रेन की सार्वभौमिकता का सम्मान करता है. मतलब यह ऐसा मसला बन सकता है जिसमें भारतीय प्रयास को चीन का समर्थन मिले याकि इसका ऐसा स्वरूप बने कि भारत-चीन की संयुक्त पहल हो. यह यूक्रेन को भी  राहत देगा और भारत-चीन के बीच की बर्फ को भी पिघलाने के काम आएगा. इस प्रयास से संयुक्त राष्ट्रसंघ की गुम सामयिकता को भी शायद थोड़ी संजीवनी मिल सकेगी. तब पूछना का यही एक सवाल बचा रह जाता है कि क्या भारतीय विदेश-नीति में इतनी गतिशीलता व साहस बचा है कि वह ऐसी पहल कर सके ? जवाब कौन देगा ?  

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