प्रशांत कुमार दुबे

कोरोना वायरस से उपजी बीमारी ‘कोविड-19’ से निपटने के लिए सरकार ने ‘आरोग्य सेतु’ नामक ‘एप’ को ‘डाउनलोड’ करना अनिवार्य कर दिया है। इस ‘एप’ की मार्फत सरकार चाहे तो किसी की भी नितांत निजी जिन्‍दगी में झांक सकती है, लेकिन क्या ‘निजता के संवैधानिक अधिकार’ की पृष्ठभूमि में यह करना मुनासिब होगा? क्या ‘जीवन जीने के अधिकार’ के मुकाबले ‘निजता का अधिकार’ अपनी अहमियत खो तो नहीं देगा?

 ‘कोविड-19’ से पूरी दुनिया जूझ रही है। हमारा देश भी इस समय संक्रमण की चरम अवस्था से गुजर रहा है। हर दिन हजारों मरीज सामने आ रहे हैं और सैकड़ों मर रहे हैं। यह स्थिति भयावह है, डराती है। सरकार इससे निबटने के कई जतन कर रही है जिनमें से कुछ ऐसे भी हैं जो नागरिक अधिकारों का सरेआम उल्लंघन कर रहे हैं। कोरोना काल में ऐसी ही स्थिति बन रही है, ‘निजता के अधिकार’ के साथ। यह एक ऐसा विचित्र दौर है जब खुद नागरिक, नागरिक अधिकारों के उल्लंघन का विरोध नहीं कर पा रहा है। यहाँ भारतीय संविधान में वर्णित दो महत्वपूर्ण अधिकारों के बीच एक अबोली जंग छिड़ी है। एक है, ‘जीवन जीने का अधिकार’ और दूसरा है, ‘निजता का अधिकार।‘ हालाँकि ‘निजता का अधिकार’ एक तरह से ‘जीवन जीने के अधिकार’ के अंतर्गत, निजता को सम्मानपूर्ण जीवन जीने की गारंटी का एक हिस्सा माना जाता है। संविधान में तो सभी अधिकार एक-दूसरे के पूरक माने गए हैं, लेकिन यहाँ स्थिति थोडी भिन्‍न है।

‘जीवन के अधिकार’ को सुनिश्चित करने की इस जंग में ‘निजता के अधिकार’ को ताक पर रखे जाने की बहस भारत में तब शुरू हुई थी, जब अप्रैल 2020 से सरकार ने पहले तो स्वैच्छिक रूप से और बाद में धीरे-धीरे अनिवार्य करते हुए लोगों से ‘आरोग्य सेतु एप’ डाउनलोड करने को कहा था। सरकार का दावा था कि इससे आपको और दूसरे व्यक्ति को यह पता चल सकेगा कि आपके आसपास कोई कोरोना संक्रमित व्यक्ति तो नहीं चल रहा। इस तरह ‘आरोग्य सेतु एप’ आपकी ‘लाइव लोकेशन’ (तत्कालीन मौजूदगी) तक पहुँच जाता है। केवल ‘लाइव लोकेशन’ जानने भर की बात हो तो भी गनीमत है, लेकिन यह एप उसे सभी से साझा भी कर देता है। यह एप ब्लूटुथ के जरिये सूचनाओं को साझा करता है जो कि और भी चिंताजनक है।

बात इसके कुछ आगे की भी है। इस ‘एप’ की ‘निजी नीति’ (प्राइवेट पालिसी) में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि उपयोगकर्ता के पंजीयन के समय ही आपके बारे में जानकारी इकट्ठा कर सर्वर में अपलोड की जाएगी। अब सवाल यह है कि इस ‘एप’ के जरिये जो जानकारी एकत्र की जा रही है उसका होगा क्या? इस बारे में सरकार का कहना है कि ‘एप’ के ज़रिए जो जानकारी एकत्र की जा रही है वो महामारी के बाद स्वयमेव नष्ट हो जायेगी। पर इसमें संदेह है। इसे लेकर न केवल ‘हैकिंग’ (साइबर चोरी) से जुड़ी चिंतायें हैं, बल्कि यह भी है कि तकनीक का उपयोग कर सरकार किसी व्यक्ति की जासूसी कर सकती है। एक दिक्कत यह भी है कि इसके उपयोगकर्ता होने के बावजूद हम इस ‘एप’ को नियंत्रित नहीं कर सकते, इसका नियंत्रण सरकार के हाथ में है। यह ‘एप’ ठीक तब आपकी निगरानी करने के लिये आया है, जब भारत में जनसामान्य का ‘बायोमीट्रिक डेटा’ इकट्ठा करने वाली, विशिष्‍ट नंबर की व्यवस्था ‘आधार’ पहले ही विवादों में है।

निजता के हनन का मामला केवल इस ‘एप’ के संदर्भ में ही सामने नहीं आ रहा, बल्कि सरकार ने कोविड संक्रमितों और संदिग्धों के नाम, पते, फोन-नंबर, पासपोर्ट नंबर आदि सार्वजनिक कर दिये हैं। ‘होम क्वॉरेंटाइन’ किये गये लोगों के घर के आगे स्टीकर लगा दिए गए हैं और उन्हें सोशल साइटों पर साझा किया जा रहा है। मुख्यधारा के मीडिया में भी बड़े पैमाने पर नाम उछाले जा रहे हैं। इसके अलावा लोगों के कहीं भी आने-जाने पर पाबंदी है। यदि कोई निकलता भी है तो ‘एप’ के जरिये उसकी ट्रेकिंग की जा रही है। यहाँ से एक नई बहस छिड़ जाती है कि क्या महामारी को रोकने के लिये या व्यापक जनहित में किसी मरीज की निजी सूचनाएं साझा की जा सकती हैं? इन सूचनाओं के साझा होने से हमें कई जगह भेदभाव की घटनाएं देखने/सुनने को मिली हैं। जिन घरों में संक्रमित व्यक्ति मिला है उसके आसपास माहौल ऐसा बनाया जा रहा है जैसे कि संक्रमित व्यक्ति/परिवार अपराधी हो और उनके बाहर निकलने पर पूरा मोहल्ला ही उनकी मुखबिरी करने को तैयार खड़ा हो। 

यही नहीं, कई बड़े शहरों में ड्रोन के जरिए निगरानी की जा रही है। ड्रोन में लगे कैमरे से यह देखा जा रहा है कि कहां, किस जगह सामाजिक दूरी के नियम का पालन नहीं हो रहा और लोग भीड़ लगाए हुए हैं। भोपाल के इतवारा, बुधवारा क्षेत्रों में इस तरह की निगरानी आम है। अपने ही घरों की छतों पर बैठे लोगों की ड्रोन से पुलिसिया निगरानी चकित करती है। ऐसा करने का विरोध करना, इस दौर में सरकारी काम में बाधा घोषित किया जा रहा है।

सवाल है कि क्या किसी भी व्यक्ति की निजी जानकारी साझा नहीं की जा सकती? ऐसे में उच्चतम न्यायालय के एक (जेड एआईआर-1999 एसी 495) प्रकरण के आदेश को ध्यान में रखा जाना बहुत जरुरी है| इस आदेश में कहा गया है कि भारत के संविधान के ‘अनुच्छेद-21’ के अंतर्गत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण दिया गया है। इस अधिकार के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को निजता का अधिकार भी उपलब्ध है, परंतु निजता का अधिकार ‘आत्यंतिक अधिकार’ नहीं है, अपितु इस अधिकार पर ‘निर्बंधन’ हो सकते हैं। राज्य द्वारा इस अधिकार पर युक्ति-युक्त निर्बंधन लगाए जा सकते हैं। कोरोना के दौर में इस आदेश का जिक्र निजता की बहस के दौरान कई बार किया जा रहा है। हालांकि इसमें उड़ीसा सरकार की पहल विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इसमें प्रभावित या संक्रमित व्यक्ति, उसके परिजन, रिश्तेदार, इलाज कर रहे डॉक्टर और इनके पते को गुप्त रखने का निर्देश है। साथ ही मीडिया संस्थानों को भी ऐसी निजी जानकारी छापने से प्रतिबंधित किया गया है।

ऐसा नहीं है कि यह केवल भारत में ही हो रहा है। चीन ने तो संक्रमित लोगों के मोबाइल फोन पर ‘डिजिटल कोड’ भेजकर उनकी निगरानी की है। इजराईल और ताईवान ने हरेक संक्रमित व्यक्ति के लिये एक निश्चित सीमा तय कर दी है, उससे जैसे ही वह बाहर जाएगा प्रशासन और पुलिस को सूचना मिल जायेगी। दक्षिण-कोरिया ने तो संक्रमित व्यक्तियों का ‘लोकेशन डेटा’ ही ऑनलाइन कर दिया, जिसे कोई भी, कहीं से भी देख सकता है|

इस दौर में एक बहस यह भी उठी है कि यूरोप के अधिकाँश देश और अमेरिका, जहाँ ऐसे कानून हैं जो सरकारों और कम्पनियों को लोगों के मोबाइल फोन की जानकारी तक पहुँच बनाने से रोकते हैं, वहां भी ऐसा न करने से कोरोना संक्रमण बेतहाशा फैला है। इस बहस ने धीरे-धीरे जताना शुरू कर दिया है कि यदि सरकारें यह नहीं करेंगी तो फिर कोरोना और फैलेगा। इसे सरकार ने तो अपने लिहाज से समझा ही, नागरिकों ने भी इसे अपने फायदे का सौदा मानने की भूल करना शुरू कर दिया है। इससे सरकारों को शह मिलना शुरू हो गई। 

बेशक कोरोना महामारी से निबटना सरकार और आमजन की पहली प्राथमिकता है और होना भी चाहिए, लेकिन इसके मायने यह कतई नहीं हो सकते कि नागरिक अधिकारों को ताक पर रख दिया जाये। स्वस्थ्य लोकतंत्र की नीव में ही नागरिक अधिकार हैं और ऐसा कतई नहीं हो सकता कि एक मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने के फेर में दूसरे मौलिक अधिकार किनारे कर दिये जायें। समाज की जिम्मेदारी भी बनती है कि वह ‘कोविड-19’ जैसी इस महामारी से निबटने में अपने कर्तव्यों का निर्वहन भी करें, साथ ही सरकारों को भी निरंकुश होने से रोकें। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि महामारी के दौर में अधिकारों पर बात ही न की जाये। यदि ऐसा हुआ तो संविधान की मूल भावना को ही ठेस पहुंचेगी। http://www.spsmedia.in (सप्रेस)

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