रुबीना अय्याज व संदीप पाण्डेय

देश के ख्‍यात वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण पर सुप्रीमकोर्ट द्वारा ‘सुओ-मोटो’ लगाए गए अवमानना के प्रकरण में फैसला आ गया है। उन्‍हें एक रुपए का जुर्माना और यह न देने पर तीन महीने की कैद और तीन साल तक सुप्रीमकोर्ट में वकालत से प्रतिबंधित करने का दंड दिया गया है। प्रशांत ने एक रुपए का जुर्माना देना कुबूल करते हुए आगे लड़ने की मंशा जाहिर की है। सवाल है कि प्रशांत भूषण पर अवमानना की कार्रवाई क्‍यों महत्‍वपूर्ण है? क्‍या हैं, इस समूचे प्रकरण से उठने वाले सवाल?

हमारे देश में लाखों मुकदमें सुनवाई के लिए पड़े हैं। बलात्कार, कत्ल, धोखाधड़ी, जमीनों पर कब्जे, लोगों के मौलिक अधिकार एवं समुदायों के जीने के अधिकार से सम्बंधित मुकदमे, नेताओं एवं प्रभावशाली व्यक्तियों पर मुकदमे सुनवाई की आस जोह रहे हैं। इन सब मुकदमों पर सुनवाई के लिए न न्यायाधीश उपलब्ध हैं, न ही कोई बहस होती है। कुछ मुकदमे तो ऐसे हैं जो फर्जी हैं और पुलिस या जांच एजेंसियों के पास कोई ठोस सबूत भी नहीं हैं, लेकिन उन पर सुनवाई के लिए हमारे देश के न्यायाधीशों के पास समय नहीं है और निर्दोष आरोपी जेल में बिना उनका अपराध साबित हुए सजा काट रहे हैं। इस समय कितने ही बुद्धिजीवी, पत्रकार, प्रोफेसर, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील भारत की जेलों में बंद हैं और आपातकाल में जेल भुगतने वालों से अधिक समय जेलों में बिता चुके हैं। उनकी न तो कोई सुनवाई हो रही है, न ही उनकी जमानत याचिकाएं स्वीकार की जा रही हैं।

आपातकाल को छोड़कर न्यायालय ने कभी इस तरह से अपनी स्वायत्‍तता राजनीतिक सत्ता के सामने गिरवी रखी हो, ऐसा भारत में कम ही हुआ है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स पर न्यायाधीश हरकत में आ गए। न्यायाधीशों का मानना है कि प्रशांत भूषण के दो ट्वीट्स से अदालत की गरिमा को ठेस पहुंची है। त्वरित प्रतिक्रिया के बजाए, न्‍यायपालिका ने अपने अंदर भी झांक लिया होता तो न्यायाधीशों पर उंगली न उठती। अदालत के बहुत से फैसले ऐसे हैं जिनसे उसकी गरिमा तार-तार हुई है। कभी उस पर भी चिंतन किया गया होता, तो अच्छा होता।

जब से सरकार ने जम्मू व कश्मीर के सम्बंध में बड़ा फैसला लिया है तबसे, खासकर न्यायालय के चरित्र में, गुणात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। कश्मीर में कितने ही लोगों को अवैध तरीके से बिना कोई मुकदमा लिखे या लिखित आदेश के नजरबंद कर लिया गया है। बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (हैबियस कार्पस) के मुकदमे दायर किए गए, लेकिन न्यायालय ने लोगों के मौलिक अधिकारों की अवहेलना करते हुए इन मामलों को गम्भीरता से नहीं लिया। भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री सैफुद्दीन सोज कहते हैं कि वे साल भर से अपने घर में नजरबंद हैं, लेकिन इसे सरकार नकारती है। हकीकत यह है कि उनके घर के बाहर पुलिस लगी है, जो उन्हें कहीं जाने नहीं देती। पांच अगस्त, 2019 को जब जम्मू व कश्मीर से धारा 370 व 35ए हटाई जा रही थी, सांसद फारुक अब्दुल्लाह, जिनके पिता की जम्मू व कश्मीर को भारत में शामिल कराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, को संसद पहुंचने नहीं दिया गया। उनके घर के बाहर भी पुलिस लगी थी। गृहमंत्री संसद में बता रहे थे कि फारुक अब्दुल्लाह अपनी मर्जी से घर पर हैं।

क्या लोकतंत्र में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की इस तरह धज्जियां उड़ते हुए देखकर भी न्यायालय को खामोश रहना चाहिए? पत्रकार अनुराधा भसीन द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका, जिसमें जम्मू व कश्मीर में इंटरनेट व मोबाइल फोन पर लगे प्रतिबंध हटाने की प्रार्थना की गई थी, में जब न्यायालय ने प्रतिबंध लगाने वाले आदेश की प्रति सरकार से मांगी तो सरकार उसे उपलब्ध कराने में असफल रही। क्या यहां सरकार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही नहीं होनी चाहिए थी? 9 नवम्बर, 2019 को अयोध्या से सम्बंधित फैसला हमेशा अपने अंतर्विरोध के लिए ही याद किया जाएगा जो बाबरी मस्जिद गिराने की कार्यवाही को तो अवैध मानता है, किंतु उसी भूमि पर राम मंदिर बनाने के लिए सौंपकर एक तरह से अवैध कार्यवाही करने वालों को पुरस्कृत भी करता है। ‘नागरिकता संशोधन अधिनियिम’ (सीएए), संविधान के उस ‘अनुच्छेद-14’ का स्पष्ट उल्लंघन है जो हरेक व्यक्ति को न्याय के सामने बराबरी का अधिकार देता है। देश भर में इसके विरोध में प्रदर्शन के चलते सर्वोच्च न्यायालय से अपेक्षा थी कि वह इसमें हस्तक्षेप करेगा, लेकिन नहीं किया। कोरोना वायरस के प्रकोप से बचने के लिए लागू की गई तालाबंदी के दौरान प्रवासी मजदूर जिस तरह से परिवार सहित पैदल चल कर अपने घरों को जा रहे थे उससे भी सर्वोच्च न्यायालय का दिल न पिघला। मजदूरों के अधिकारों के हक में सर्वोच्च न्यायालय की एक प्रभावी भूमिका हो सकती थी जिससे करोड़ों लोगों को राहत मिलती, किंतु ऐसे नाजुक मौके पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने देश को मायूस किया। पूरी दुनिया में मजदूरों को ऐसा कष्ट नहीं झेलना पड़ा जैसा भारत में। यह पूरे देश के लिए शर्म की बात होनी चाहिए थी।

हाल ही में ‘पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ द्वारा किसी परियोजना के शुरू होने से पहले किए जाने वाले ‘पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन’ में उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से तमाम परिवर्तन के सुझाव दिए गए हैं। न्यायालय ने मंत्रालय से प्रस्तावित अध्यादेश को भारत की 22 भाषाओं में अनुवाद कराकर लोगों को उपलब्‍ध कराने की अपेक्षा की थी, किंतु मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया और इसके बावजूद मंत्रालय के खिलाफ कोई अवमानना की कार्यवाही नहीं हुई। सुशांत सिंह राजपूत की मौत की ‘केन्द्रीय अन्वेषण ब्‍यूरो’ (सीबीआई) द्वारा जांच का आदेश पारित करते हुए न्यायालय ने कहा कि उनकी मौत के रहस्य से पर्दा उठना चाहिए। कर्ज के बोझ में दब कर भोजन उपलब्‍ध कराने वाले तीन लाख से अधिक किसानों की अब तक आत्‍महत्‍याएं हो चुकी हैं, लेकिन न्यायालय ने यह संवेदना नहीं दिखाई कि किसानों की आत्महत्या रुके और उनके कर्ज की जांच कराई जाए। कर्ज अदा न कर पाने की दशा में किसान हवालात में बंद हैं, लेकिन उद्योपति अपने आप को दिवालिया घोषित कर बच जाते हैं।

इधर न्यायालय की भूमिका की वजह से देश के बहुत सारे लोग घुटन महसूस कर रहे थे। प्रशांत भूषण तो सिर्फ मुखरित हुए हैं। वे लोगों की आवाज बने, इसीलिए देश में इतने सारे वकील और साधारण लोग प्रशांत भूषण के साथ खड़े हुए। प्रशांत भूषण उस दौर में सच बोलते हैं और सच के साथ खड़े हैं जिस दौर में सच बोलना ही अपराध की श्रेणी में आता है। प्रशांत भूषण एक बेबाक वकील एवं जिम्मेदार नागरिक हैं। वे जानते हैं कि क्या बोलना है, क्या नहीं। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण भारत में भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष करने वालों में अग्रणी भूमिका में रहे हैं। प्रशांत भूषण भी उन्हीं की राह पर हैं और अन्याय व भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े हैं। यह तो हमेशा से होता आया है कि अगर आप सच के साथ खड़े हैं तो कुछ लोग आपके खिलाफ होंगे, लेकिन आखिर में जीत सच की ही होती है। (सप्रेस)

रुबीना अय्याज सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखिका हैं। एवं संदीप पाण्डेय वैज्ञानिक, समाजकर्मी एवं लेखक हैं।

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