सुदर्शन सोलंकी

इन दिनों, छह से 18 नवंबर ’22 के दौरान, मिस्र के शर्म-अल-शेख में ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ का सालाना जलवायु सम्मेलन, कॉप-27 जारी है। इसमें दुनिया भर के करीब सौ राष्ट्र-प्रमुख बढती गर्मी और नतीजे में भीषण जलवायु-परिवर्तन पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। अलबत्ता, ‘पहली-दूसरी’ और ‘तीसरी’ दुनिया के किसी भी देश ने मौसम की इस उठा-पटक की वजह – मौजूदा विकास पर कोई सवाल नहीं उठाया है। जाहिर है, ऐसे में हमारे ग्रह की बदहाली जारी है। क्या है, यह बदहाली?

विभिन्न स्थानों पर सैकड़ों वर्षों से जो औसत तापमान होता था, वह अब बदल रहा है। जहां बाढ़ आती थी, वहां सूखा पड़ रहा है। जब सर्दी होनी चाहिए थी, तब गर्मी हो रही है। इस तरह से तापमान में बदलाव हो रहा है। ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ को मनुष्य की क्रियाओं का परिणाम माना जा रहा है जो औद्योगिक-क्रांति के बाद मनुष्य द्वारा उद्योगों से निकलने वाली कार्बन डाई-आक्साइड एवं अन्य गैसों के वायुमण्डल में अधिक मात्रा में बढ़ जाने का परिणाम है।

‘रिस्टोरिंग द क्वालिटी ऑफ अवर एनवायरनमेंट’ नामक रिपोर्ट में ‘यूएस प्रेसिडेंट्स साइंस एडवाजरी कमेटी’ के वैज्ञानिकों ने 1965 में पहली बार ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव पर चिंता व्यक्त करते हुए चेतावनी दी थी कि कार्बन डाय-ऑक्साइड में बढ़ोतरी के कारण तापमान बढ़ रहा है। पिछले सात सालों का औसत तापमान सबसे गर्म रहा है जिसके कारण समुद्र के जल-स्तर में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। इसके अतिरिक्त पिछले पांच वर्षों में विश्व के जंगलों में आग की घटनाओं में भी दोगुने से अधिक की वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन के कारण लंबे समय तक चलने वाली ‘हीट वेव्स’ ने जंगलों में लगने वाली आग के लिये उपयुक्त गर्म और शुष्क परिस्थितियां निर्मित की हैं।

पावर प्लांट, वनों की कटाई, बढ़ते वाहनों की संख्या और अन्य स्रोतों से होने वाला ‘ग्रीनहाउस’ गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी को तेजी से गर्म कर रहा है। पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है और वर्ष 2016 को सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज किया गया है। गर्मी के कारण हुई मौतों और बीमारियों, तूफान की तीव्रता में वृद्धि, बढ़ते समुद्र-स्तर और जलवायु परिवर्तन के कई अन्य खतरनाक परिणामों में वृद्धि के लिये बढ़े हुए तापमान को भी एक कारण माना जा सकता है। बदलती जलवायु न केवल इंसानों पर प्रभाव डाल रही है, बल्कि इससे अन्य पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं पर भी प्रभाव हो रहा है और वे इस बदलाव को अपना नहीं पा रहे हैं। इसकी वजह से उनमें जेनेटिक बदलाव हो रहे हैं एवं इसके परिणामस्वरूप बीमारियां बढ़ रही हैं।

एक शोध में यह चेतावनी दी गई है कि यदि ‘ग्रीनहाउस’ गैसों के उत्सर्जन को गंभीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने के प्रयास नहीं किये गए तो विश्व में 2040 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान तक की वृद्धि होने की संभावना होगी। पर्यावरण परिवर्तन पर ‘इंटर-गवर्नमेंटल पैनल’ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में पर्यावरण परिवर्तन के कारण अगले 28 वर्षों में शहरवासियों की आबादी लगभग दोगुनी हो जाएगी, जिसके कारण अधिक घनत्व से तापमान और आद्रता भी बढ़ेगी। रिपोर्ट के अनुसार ‘वैट-बल्ब टेम्परेचर’ अथार्त आद्रता और तापमान का संयुक्त पैमाना 31 डिग्री तक पहुंच जाएगा जो मानव जीवन के लिए खतरनाक है। यदि यह तापमान 35 डिग्री तक हो जाए तो मानव का छह घंटे से ज्यादा जीवित रहना अत्यधिक कठिन होगा। यदि कार्बन उत्सर्जन की दर में कमी की योजना वर्तमान दर से जारी रहे, तब भी ‘वैट-बल्ब टेम्परेचर’ कई बड़े शहरों में 31 डिग्री सेंटिग्रेड तक पहुंच जाएगा। ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ द्वारा प्रकाशित ‘एमिशन गैप रिपोर्ट – 2020’ में आशंका जताई गई थी कि यदि तापमान में हो रही वृद्धि इसी तरह जारी रहती है, तो सदी के अंत तक यह वृद्धि 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी। जिसके विनाशकारी परिणाम हमें झेलने होंगे।

‘ग्लोबल एनर्जी मॉनिटर’ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर के कोयला उत्पादक सक्रिय रूप से 2.2 बिलियन टन प्रति वर्ष की दर से नई खदान परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं। यह दर मौजूदा उत्पादन स्तरों से 30% ज्यादा है। वैश्विक स्तर पर प्रस्तावित 432 कोयला परियोजनाओं का सर्वेक्षण किया गया और पाया गया कि चीन, रूस, भारत और ऑस्ट्रेलिया 77% यानी 1.7 बिलियन टन प्रति वर्ष की नई खदान गतिविधि के लिए ज़िम्मेदार है। एम्बर द्वारा जारी आकलन से पता चलता है कि वर्ष 2020 में विदेश भेजा गया कोयला, सालाना वैश्विक ऊर्जा सम्‍बन्‍धी कार्बन डाई-ऑक्‍साइड के कुल उत्‍सर्जन के 10 प्रतिशत हिस्‍से के लिये जिम्‍मेदार है।

वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है एवं इससे निपटना वैश्विक आवश्यकता बन गई है। आंकड़ों से पता चलता है कि 19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है। इसके अतिरिक्त पिछली सदी से अब तक समुद्र के जल-स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

अंटार्कटिका 2002 के बाद से अनुमानत: प्रति वर्ष लगभग 134 बिलियन मीट्रिक टन बर्फ खो रहा है। यदि हम इसी तरह से जीवाश्म ईंधन जलाते रहे तो यह दर बढ़ सकती है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि समुद्र का स्तर अगले 50 से 150 वर्षों में कई मीटर बढ़ सकता है।

लंदन के महापौर विलियम रसेल ने ग्लास्गो में आयोजित पिछले ‘संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन’ (कॉप-26) में पर्यावरण वित्त पोषण पर चर्चा में कहा था कि ‘अगर हम अपने सामने आने वाले अवसरों को स्वीकार करते हैं तो हम जलवायु परिवर्तन से निपट सकते हैं और एक ऐसी दुनिया का निर्माण कर सकते हैं जो आने वाली सदियों तक हमारा साथ देगी, किन्तु इसके उलट यदि हम कार्बन उत्सर्जन या जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए अधिक प्रभावी और तीव्रता से कार्ययोजनाओं पर कार्य नहीं करते हैं तो बढ़ता कार्बन उत्सर्जन पर्यावरण और जीवों के लिए कुछ ही वर्षों में भयावह संकट उत्पन्न करेगा।’ यह हमें आगाह करता है कि दुनिया को बढ़ते कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की तुरंत आवश्यकता है। (सप्रेस)

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