डॉ.ओ.पी.जोशी

असंख्य इंसानों की प्रत्यक्ष मौतों के अलावा युद्धों से पीढी-दर-पीढी चलने वाली पर्यावरण की बर्बादी भी होती है। विडंबना यह है कि यह किसी को दिखाई तक नहीं देती। इन दिनों रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध में भी ऐसे सवाल उठ रहे हैं। प्रस्तुत है, पर्यावरण को प्रभावित करने में युद्धों की भूमिका पर डॉ.ओ.पी.जोशी का लेख।

रूस द्वारा यूक्रेन पर किये गए हमले से शुरु हुआ युद्ध जारी है एवं लोगों को डर है कि कहीं यह विश्वयुद्ध में न बदल जाए। यूक्रेन की राजधानी कीव के आसपास बम व मिसाइल गिराये जा रहे हैं। युद्ध में सैनिकों एवं गैर-सैनिकों की मौत या घायल होने के साथ लोगों की सम्पत्ति एवं प्राकृतिक पर्यावरण भी तबाह हो रहा है और इस तरह घायल व तबाह हुए प्राकृतिक पर्यावरण के दुष्प्रभाव युद्ध समाप्ति के बाद भी लम्बे समय तक बने रहते हैं। युद्ध की रणनीति में पर्यावरण के तबाह होने की चिंता कभीकहीं नहीं की जाती एवं पर्यावरण सदैव ही युद्ध की बलि चढ़ता है। आमतौर पर युद्ध के पीछे मानव की लड़ने-झगड़ने तथा विजयी होने की प्रवृति होती है।

मानव विकास के साथ-साथ युद्ध लड़ने के हथियार भी बदलते गए हैं। पत्थरोंहड्डियोंदांततलवारतोप एवं बंदूक से लडे़ जाने वाले युद्ध अब परमाणुरासायनिक एवं जैव-हथियारों के स्तर तक पहुंच गये हैं। युद्ध मानव पर्यावरण के सभी भागों पर प्रभाव डालता है। वायुजलभूमि एवं जीव-जगत (वनस्पतियां तथा जीव-जंतु) युद्ध में गिराये गए बमों एवं मिसाइल के फटने से प्रभावित होते हैं। आधुनिक हथियारों से बर्बाद होने वाली सार्वजनिक सम्पति के साथ यदि तेल के कुंए भी हों तो उनमें आग लग जाती है।

हाल ही में यूक्रेन की राजधानी कीव के मेयर ने बताया कि वासिलकीव हवाई अड्डे के पास तेल डिपो में आग लगी है। आग से पैदा धुंए में कणीय-पदार्थों के साथ जहरीली गैसें भी होती हैं जिनमें सल्फर डाय-ऑक्साइडनाइट्रोजन-आक्साइड्स एवं कार्बन मोनो तथा डाय-आक्साइड्स  प्रमुख हैं। बम एवं मिसाइल गिराये जाने वाले विमानों एवं राकेट से उत्सर्जित गैसें वायु-मंडल की ओजोन पर विपरीत प्रभाव डालकर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में भी सहायक होती हैं।

बमबारी से लगभग 160 डेसीबेल तीव्रता का शोर भी पैदा होता है जो मनुष्य एवं जीव-जंतुओं पर विपरीत प्रभाव डालता है। खाडी-युद्ध’ के समय (अगस्त 1990) कुवैत के 700 तेल-कुओं में लगी आगकई कुओं में युद्ध समाप्ति के बाद भी 8-10 महिनों तक जारी रही थी। इनके जलने से 50 हजार टन सल्फर डाय-आक्साइडएक लाख टन धूल एवं भारी मात्रा में अन्य विषैली गैसें वायुमंडल में फैल गयी थीं। इस प्रकार पैदा धूलधुंए से इतना गहरा अंधेरा फैल गया था कि कई दिनों तक वाहनों की हेडलाइट दिन के समय भी जलाना पड़ी थी। कई स्थानों पर अम्लीय प्रकृति की काली वर्षा भी हुई थी।

विएतनाम युद्ध (1965 के बाद कई वर्षो तक जारी) में लगभग सात करोड़ लीटर जहरीले रसायन (एजेंट-आरेंज,’ नेपाल्स एवं अन्य) गिराये गए थे जिससे वायुजल एवं मिट्टी में प्रदूषण फैल गया था। रूस ने हाल ही में परमाणु बलों को भी तैयार रहने को कहा है। परमाणु हथियारों के उपयोग से पैदा विकिरण के काफी गंभीर परिणाम होते हैं। राजधानी कीव के पास स्थित चेरनोबिल परमाणु बिजली घर में 26 अप्रैल 1986को हुई दुर्घटना से आसपास के क्षेत्रों में खतरनाक विकिरण फैल गया था। विकिरण के इस फैलाव से 50 लाख हेक्टर भूमि प्रदूषित हो गयी थी। इस दुर्घटना के प्रभाव से नौ वर्षो में (1995 तक) 1,25,000 लोगों को मौत हो गयी थी।

बमबारी से पैदा धुंआछिडके गये रसायनकुओं से तेल का फैलावबमों के खोल में मौजूद सीसा एवं क्षरित यूरेनियमजल-मल उपचार संयत्रों का टूटना आदि कारणों से सतही एवं भूजल के स्त्रोत प्रदूषित हो जाते हैं। खाड़ी युद्ध’ के समय (जनवरी 1991 से मई 1991 तक) एक करोड दस लाख बेरल तेल अरब खाड़ी में बह गया था। कई तेलवाहक जहाज एवं युद्ध के सामान से लदे जहाजों को डुबोने से भी काफी जल-प्रदूषण हुआ था। समुद्र-वैज्ञानिकों की गणना के अनुसार 02 गैलन तेल समुद्र के एक वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को बेजान बना देता है। इसी युद्ध में बमबारी से जल-मल उपचार संयत्र के ध्वस्त होने से लगभग 50 हजार घनमीटर जल-मल (सीवेज) कुवैत की खाड़ी में फैल गया था।

भूमि एवं जल में गहन संबंध होने से प्रदूषित जल भूमि को भी प्रदूषित कर देता है। लगातार बमबारी एवं बमों के विस्फोट से आसपास के क्षेत्रों की भूमि कमजोर हो जाती है। इससे भू-स्खलन (लेंडस्लाइड) तथा भूमि-क्षरण (साइल इरोजन) की घटनाएं बढ़ जाती हैं। बोफोर्स तोप से छोड़े गए बम फटने पर आसपास की लगभग 100 वर्ग किलोमीटर भूमि को नुकसान पहुंचता है। भूमि की भूकम्पनीयता पर भी प्रभाव देखा गया है। मार्च 2003 में अफगानिस्तान में आये 7.2 तीव्रता के भूकम्प का एक सम्भावित कारण अमेरिका की बमबारी को बताया गया था।

वायुजल एवं भूमि के प्रदूषित होने से जीव-जगत पर भी विपरीत प्रभाव होता है। पेड़-पौधों में वृद्धि के साथ-साथ श्वसनप्रकाश-संश्लेषणवाष्पोत्सर्जन एवं अन्य जैव-रासायनिक क्रियाएं कम हो जाती हैं। पराग कणोंफलों एवं बीजों की संख्या एवं वितरण भी घट जाता है। वनचारागाह एवं कृषि क्षेत्रों में कमी या बर्बादी होने से पूरी भोजन श्रृंखला प्रभावित होती है या टूट जाती है। खाड़ी युद्ध’ के समय 1500 किलोमीटर क्षेत्र का समुद्री तट तेल से प्रभावित होने के कारण लगभग एक लाख पक्षियों की मौत का कारण बना था एवं 20 हजार कछुओं के शरीर पर तेल जमा हो गया था। विएतनाम युद्ध के समय गिराये गए रसायनों के प्रभाव से 25 हजार वर्ग किलोमीटर वन तथा 15 हजार वर्ग किलोमीटर कृषि क्षेत्र तबाह हो गए थे। रसायनों के प्रभाव से चावल की कुछ किस्मों के दाने भी छोटे हो गए थे।

पर्यावरणविदों के अनुसार हमें  ग्रीन हाउस गैसों’ के उत्सर्जन सहित प्रदूषण पर नियंत्रण के प्रयासों के अलावा युद्धसंघर्ष एवं बड़े स्तर पर आधुनिक हथियारों के उपयोग को भी रोकना चाहियेताकि अगली पीढ़ी को साफ पर्यावरण मिल सके। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ (यूएनईपी) ने भी कुछ वर्षों पूर्व सुझाव दिया था कि युद्ध के दौरान देश के पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा से संबंधित कानूनों को बनाकर उन्हें सख्ती से लागू किया जाना चाहिये। पर्यावरणविद भी ऐसे कानून चाहते हैं जो भूजलकृषि-भूमि, चारागाहबगीचोंवनों एवं संकटग्रस्त जीवों की प्रजातियों के संरक्षण में सक्षम हों। (सप्रेस)

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