प्रशांत दुबे

अब तक जीवन-पद्धति से उपजी मानी जाने वाली बीमारी डायबिटीज या मधुमेह अब छोटे बच्चों में भी अपने पैर पसारने लगी है। जाहिर है, यह परिस्थिति सरकार, समाज और परिवार, सभी के सरोकार की है। अपने पास-पडौस के किसी बच्चे को डायबिटीज हो तो उसे क्या और कैसे करना चहिए? इसी पर प्रकाश डालता प्रशांत दुबे का लेख।

मध्यप्रदेश के खरगौन जिले के मनीष (परिवर्तित नाम) को तब डायबिटीज होने की जानकारी मिली जब वो नवमीं कक्षा में पढ़ रहा था। जबसे उसे पता चला तबसे उसकी दुनिया ही बदल गई। उसे हर समय यही लगता था कि किसी को यह बात पता न चल जाए। अस्पताल ने भी केवल यह बताया कि इन्सुलिन कैसे लेना है और कब लेना है, लेकिन जिस तनाव से मनीष गुजर रहा था उस पर किसी ने कोई भी बात नहीं की। घर वालों को इस बीमारी के बारे में पता नहीं था, अस्पताल में किसी मनोवैज्ञानिक को संदर्भित किया नहीं गया और स्कूल में मनीष खुद नहीं बताना चाहता था। लिहाज़ा, डरे-सहमे मनीष ने स्कूल जाने से पहले और आने के बाद घर में ही इन्सुलिन लेनी शुरू कर दी।

मनीष को पढ़ाई के लिए चार किलोमीटर दूर के गांव जाना पड़ता था। वह बहुत ज्यादा थकने लगा। कई-कई दिन वह स्कूल नहीं जाता था। अब वह बहुत शांत भी रहने लगा। यह पूछने पर कि वह किसी को क्यों नहीं बताना चाहता या उसे किस बात का डर था, इसका कोई ठोस जवाब मनीष के पास नहीं था। तनाव बढ़ता गया और नवमीं पास करते ही उसने गाँव छोड़ दिया। वह अपने मामा के यहाँ आ गया और उसने यहाँ नए सिरे से जिंदगी जीने की ठानी, लेकिन किसी को पता चल जाने के डर ने मनीष का पीछा यहाँ भी नहीं छोडा।

मनीष दिन-रात इसी जद्दोजहद में रहता कि किसी को पता न चले। छिपकर इन्सुलिन लेता। अपने गांव में तो सरकारी इन्सुलिन मिल जाती थी, लेकिन यहाँ तो इसकी जुगाड़ भी खुद को करनी थी, क्योंकि नई जगह पर किसी को पता नहीं चलना चाहिये था। पिता मजदूर और माँ गृहिणी। दो छोटे भाइयों का खर्च अलग। कुल मिलाकर परेशानियों का अम्बार था। ऐसे में मनीष को परामर्श की महती आवश्यकता थी, जो उसे कहीं नहीं मिल रहा था।  

हम सभी जानते हैं कि जब एक बच्चे को डायबिटीज का पता चलता है, तो यह उनकी जीवन शैली और स्वास्थ्य में कई बदलाव लाता है। वह न केवल शारीरिक परिवर्तनों का अनुभव करता है, बल्कि कुछ भावनात्मक और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों का भी अनुभव करता है। डायबिटीज वाले बच्चे अक्सर महसूस करते हैं कि वे अपने बाकी साथियों से अलग हैं। डायबिटीज की देखभाल के लिए अस्पताल का दौरा, संबंधित जोखिम और जटिलताओं की निगरानी करना और स्वस्थ प्रतिरक्षा प्रणाली को बनाये रखना बहुत भारी हो सकता है। इसलिए, बच्चों में डायबिटीज और तनाव साथ-साथ चलते हैं।

डायबिटीज के साथ जी रहा बच्चा, अवसाद जैसी स्थिति की ओर भी बढ़ सकता है। कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि डायबिटीज वाले बच्चों में अवसाद विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। डायबिटीज वाले लगभग 15-20 प्रतिशत किशोर डायबिटीज से संबंधित अवसाद का अनुभव करते हैं। वे अक्सर उदासी, चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की कमी, सुस्ती, नींद की गड़बड़ी, भूख में बदलाव, कम प्रेरणा, भय, गतिविधियों में भागीदारी में कमी और आत्महत्या के बारे में विचार करते हैं। ऐसे में इन बच्चों और किशोरों को इस स्थिति से निकालने के लिए परामर्श की महती आवश्यकता रहती है।  

‘डायबिटीज बर्नआउट’ मन की एक अवस्था है जहां कोई व्यक्ति रक्त-शर्करा के स्तर को प्रबंधित करने से निराश महसूस करता है और दैनिक डायबिटीज प्रबंधन कार्यों को पूरा करके खिंचा हुआ महसूस करता है। यह अक्सर डायबिटीज से जुड़े अवसाद की ओर जाता है। बच्चों और युवाओं में अवसाद अक्सर खराब स्वास्थ्य का नतीजा होता है जैसे कि खराब डायबिटीज नियंत्रण, अस्पताल के दौरे में वृद्धि, कम आत्मविश्वास, जीवन की खराब गुणवत्ता और कम आत्म-प्रभावकारिता। डायबिटीज एक मनोवैज्ञानिक रूप से चुनौतीपूर्ण स्वास्थ्य स्थिति है।

डायबिटीज के बच्चों के माता-पिता को चाहिये कि वे अपने बच्चों के शिक्षकों के साथ भी लगातार संपर्क में रहें और उन्हें बच्चे की स्वास्थ्य स्थिति के बारे में बताते रहें। उन्हें स्कूल में डायबिटीज से संबंधित रणनीतियों के प्रबंधन के बारे में शिक्षक का मार्गदर्शन भी करना चाहिए। मनीष के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और वह अपने स्तर पर ही बीमारी से जूझते रहा। वह कहता है कि मेरी चचेरी बहन नहीं होती तो शायद कुछ और स्थिति बनती। उसने हर समय मेरी हिम्मत बनाये रखी।

ऐसे में यह एक नीतिगत प्रश्न है कि खेलने-कूदने की उम्र में जो बच्चे डायबिटीज से जूझ रहे होते हैं, उनके मानसिक स्वास्थ्य से निबटने के लिए सरकारों ने कोई ठोस पहल क्यों नहीं की? शोधकर्ताओं के मुताबिक, स्वस्थ लोगों में ‘कोर्टिसोल हार्मोन’ दिन भर में प्राकृतिक रूप से ऊपर-नीचे होता रहता है। सुबह बढ़ जाता है और रात में इसका स्तर गिरता है, लेकिन टाइप 2 डायबिटीज वाले लोगों के साथ कोर्टिसोल प्रोफाइल दिन भर एक समान रहता और उनमें ग्लूकोज का स्तर बहुत ज्यादा पाया जाता है। प्रतिभागियों में कोर्टिसोल का स्तर एक समान होने की वजह से ब्लड शुगर को नियंत्रित करने और बीमारी के प्रबंधन में कठिनाई आती है। यही कारण है कि टाइप 2 डायबिटीज वाले लोगों के लिए तनाव को कम करने के उपाय खोजना बहुत जरूरी है। राज्य सरकारों को अपने स्तर पर इस मुद्दे पर पहल करनी होगी।  

ऐसे बच्चे जो डायबिटीज के साथ बड़े हो रहे हैं, के लिए ‘राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग’ ने दिशा-निर्देश देते हुए सभी राज्यों को स्पष्ट कहा है कि बच्चों को स्कूल में ऐसा माहौल मिले, जहाँ कि वे अपने आपको अलग-थलग नहीं समझें और प्रक्रिया समावेशी हो। यह बात अभी तक धरातल तक नहीं पहुंची है। दिशा-निर्देश दिल्ली से तो आ गए हैं, परन्तु राज्य सरकारों ने इस पर अपनी कोई ख़ास प्रतिक्रिया नहीं दी है। शिक्षकों का कोई परिचयात्मक प्रशिक्षण नहीं हुआ है और न ही स्कूलों ने अपनी ओर से कोई भी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। जाहिर है, ऐसे में बच्चों में फैल रही डायबिटीज रोकना कठिन होगा। (सप्रेस) (प्रशांत ने यह लेख ‘रीच फैलोशिप’के तहत लिखा है।)

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