कुलभूषण उपमन्यू

सभी के जानते-बूझते समाज का एक तबका मानवीय गंदगी को ढोने, साफ करने के ऐसे काम में आज भी लगा है जिसे किसी हालत में मानवीय नहीं कहा जा सकता, लेकिन सत्ता, समाज और सरकारें उसकी तरफ इस कदर मुंह फेरकर बैठी हैं कि इस काम के लिए सुरक्षा उपकरण और मामूली मशीनें तक मुहैय्या नहीं करातीं।

हमारे देश में सफाई कामगार वर्ग सबसे हाशिए पर रहने वाला समुदाय है। करीब 98% सफाई कामगार बाल्मीकि समुदाय से संबंध रखते हैं। इनके काम की स्थितियां इतनी खराब हैं कि इन्हें सबके लिए सफाई सुनिश्चित करने के बाबजूद खुद सबसे गंदे हालातों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इनकी जातियों के नाम तक को गाली समझा जाता है, किन्तु यह समुदाय अपने को महर्षि बाल्मीकि का वंशज कहलाना पसंद करता है। इनका मानना है कि मुस्लिम काल में इस्लाम कबूल न करने के कारण इन्हें सफाई और मैला उठाने का काम सजा के रूप में करने के लिए मजबूर किया गया, कालान्तर में यह एक अलग जाति के रूप में मानी जाने लगी।

इनका ज्यादातर काम शहरी इलाकों में ही है, क्योंकि गांव में तो बाहर खुले में शौच जाने का प्रचलन रहा है। शहरी इलाकों में जब फ्लश शौचालयों का प्रचलन नहीं था, तब शुष्क शौचालयों की सफाई का काम बहुत ही गंदगी भरा था। सन् 1993 में क़ानून बनाकर शुष्क शौचालय बनाने और उसकी दस्ती (हाथ से) सफाई को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया, किन्तु अब तक यह पूरी तरह से बंद नहीं हुआ है। सन् 2013 में दस्ती मैला सफाई के लिए नियुक्ति पर प्रतिबंध लगा दिए गए, फिर भी 2018 में देश के 170 जिलों में 42,303 दस्ती मैला सफाई कामगार पाए गए। पूरे देश में सर्वे से ही पूरी स्थिति का पता चलेगा। ये आंकड़े “सफाई कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय आयोग” के वार्षिक सर्वे से प्राप्त हुए हैं।

इस सर्वे रिपोर्ट में और भी कई चिंताजनक उद्घाटन हुए हैं। शुष्क शौचालयों पर प्रतिबन्ध के बाद आधुनिक सीवर व्यवस्था की सफाई भी हाथों से और सीवर में घुसकर करनी पड़ती है। सैप्टिक टैंक खाली करने का काम भी इसी तरह होता है। सीवर और सैप्टिक टैंक सफाई के दौरान इनमें बनी जहरीली गैसों के कारण अनेक कामगारों की मौत तक हो जाती है। अख़बारों में भी कई बार इसके समाचार आते रहते हैं। सन् 1993 से 2020 के बीच सीवर और सैप्टिक टैंक की सफाई और रख-रखाव में 928 मौतें हुईं थीं। हालांकि 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से इसकी कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई। जाहिर है, असली आंकड़ा कहीं ज्यादा हो सकता है।  

हैरानी और लापरवाही की बात है कि आज के तकनीकी युग में इन खतरनाक कामों के लिए सुरक्षा उपकरणों और मशीनीकरण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। उच्चत्तम न्यायालय द्वारा सीवर मृत्यु के मामलों में 10 लाख रुपए मुआवज़ा दिए जाने के निर्देश दिए गए हैं, किन्तु इसके हिसाब से 928 में से 575 मामलों में ही मुआवज़ा राशि दी गई है। इसके साथ ही पीड़ित परिवारों के एक व्यक्ति को नौकरी का भी आदेश पारित हुआ था, किन्तु क्योंकि अधिकांश कामगार ठेकेदारों द्वारा भर्ती किए गए होते हैं, इसलिए पीड़ितों को कोई लाभ नहीं मिल पाता। ठेकेदारी प्रथा में न्यूनत्तम वेतन व्यवस्था भी लागू नहीं हो पाती। नगर-निकाय प्राथमिक नियोक्ता होने के कारण न्यूनतम मजदूरी भुगतान करवाने का जिम्मेदार होना चाहिए, किन्तु वह भी इस दिशा में कोई ध्यान नहीं देता है।

आयोग ने तो 25 लाख रुपए के मुआवज़े की अनुशंसा की है, किन्तु जमीनी क्रियान्वयन कितना होता है यह देखना अभी बाकी है। सफाई-कर्मियों को अधिकांश रोजगार नगर-निकायों में ही मिलता है, लेकिन उनके पास हमेशा बजट की कमी बनी रहती है। इसका खामियाज़ा सबसे निचले पायदान पर बैठे सफाई कामगारों को ही उठाना पड़ता है। नगर-निकायों में सफाई कामगारों के लिए अलग से निर्धारित राशि का प्रावधान होना चाहिए।

इसके अलावा रेलवे भी सफाई कामगारों को रोजगार देने वाली बड़ी इकाई है। रेलवे का इस मामले में और भी बुरा हाल है। वहां तो रेलवे लाइनों की दस्ती मैला सफाई खुले आम जारी है। हालांकि आयोग द्वारा मामला उठाए जाने के बाद रेलवे ने भी शौचालय सुधार की दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, किन्तु पटरियों की सफाई की व्यवस्था में कोई सुधार नहीं आया है।

वाल्मीकि समुदाय के लिए वैकल्पिक व्यवसाय अपनाने की दिशा में पर्याप्त प्रशिक्षण व्यवस्था का अभाव है। हालांकि कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं, किन्तु उनका लाभ उठाने के रास्ते में कई कठिनाईयां हैं। इनमें शिक्षा का आभाव, स्वास्थ्य की बुरी हालत, नाम पर राजस्व भूमि दर्ज न होने के कारण स्थाई निवास प्रमाण पत्र न होना आदि कई समस्याएं हैं। शिक्षा में ज्यादातर प्राथमिक शिक्षा से आगे की पढाई नगण्य है।

स्वास्थ्य के मामले में इनके काम की स्थितियां इतनी चुनौती-पूर्ण हैं कि इनकी औसत आयु मात्र 32 वर्ष है। हिमाचल प्रदेश के एक अध्ययन में शिमला नगर निगम में 28 महीनों में 16 मौतें दर्ज हुईं, जिनमें हृदय रोग, कैंसर, गुर्दा खराबी आदि प्रमुख कारण पाए गए थे। हिमाचल प्रदेश में 22% वाल्मीकि कामगारों के पास घर बनाने के लिए थोड़ी-सी भूमि उपलब्ध है, 23% के पास अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र नहीं हैं और 76% के पास हिमाचल के स्थाई निवासी का प्रमाणपत्र नहीं है जिसके आभाव में वे अपने पक्के मकान नहीं बना सकते। 22% ही दैनिक वेतन-भोगी कर्मचारी हैं, शेष ठेकेदारों के माध्यम से काम करते हैं। रिहाइश की स्थितियां भी अत्यंत चिंताजनक हैं। 40% एक कमरे में रहते हैं, 33% के पास दो कमरे हैं, 20% के पास रसोई नहीं है, रिहायशी कमरे में ही खाना भी बनता है।

जिस बदहाली में यह समाज रह रहा है, उसकी ओर न सिर्फ सरकार, बल्कि आम शहरियों को भी ध्यान देने और दबाव बनाने की जरूरत है। उनके काम को सम्मानजनक बनाने के लिए इसका पूरी तरह मशीनीकरण होना चाहिए, सुरक्षात्मक पहनावा, घर योग्य जमीन देकर गृह निर्माण में सहायता और सरकार द्वारा अनुसूचित वर्ग के लिए चलाई जा रही सहायता योजनाओं और सफाई कामगारों के लिए विशेष योजनाओं का लाभ दिलाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। ‘सफाई कर्मचारी आयोग’ को केंद्र सरकार के स्तर पर स्थायी बनाया जाना चाहिए और इनकी अनुशंसाओं को बाध्यकारी बनाकर लागू करने की मजबूत व्यवस्था की स्थापना होनी चाहिए, ताकि सफाई जैसी आवश्यक सेवा प्रदान करने वाले समुदाय को सम्मानजनक जीवन यापन प्राप्त हो सके और ‘राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन’ जैसे जनहितकारी उपक्रमों को मजबूती मिल सके। (सप्रेस)

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कुलभूषण उपमन्यु
कुलभूषण उपमन्यु पिछले पांच दशक से पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक चेतना के लिये समर्पित हैं। कश्मीर से कोहिमा तक पदयात्रा करने वाले कुलभूषण उपमन्यु ने पर्यावरण को बचाने के लिए जेल की यात्रा भी है, बावजूद इसके जिन्दगी की ढलान पर भी वे पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक चेतना के लिए संघर्षरत हैं। जय प्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के दौरान प्रभावित होकर इस आन्दोलन में कूद पड़े । 1980 के दशक में उत्तराखण्ड में चिपको आन्दोलन के दौरान प्रख्यात पर्यावरणविद सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ देश भर में यात्राएँ की व वन संरक्षण नीति को बदलवाने के लिये आन्दोलन किये।

1 टिप्पणी

  1. सरकारें कभी नहीं चाहेंगी कि नगर निगम की कचरा गाड़ी धकेलने वाले के बच्चे या सीवेज में उतरने वाले या उनके बच्चे शिक्षित हो कर आरक्षण का लाभ लें। क्योंकि उन्हें पता है कि इस तबके को पढ़ा लिखा कर योग्य बना दिया तो गंदगी कौन साफ करेगा। इनके कई बच्चे ऐसे हैं जो सरकारी स्कूल से बारहवीं पास कर लेते हैं मगर आरक्षित वर्ग में तगड़ा compition होने से ये लोग कोई भी प्रतियोगी परीक्षा पास नहीं कर पाते। उनका मुकाबला यहां अंग्रेजी माध्यम से पढ़े और कोचिंग सेंटर से निकले दशकों से आरक्षण प्राप्त परिवारों के बच्चों से होता है और उसका लाभ वे बच्चे ले लेते हैं।

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