प्रमोद भार्गव

दशकों की माथापच्ची के बाद जिस कार्बन डाइ-ऑक्साइड के उत्सर्जन पर लगाम लगाने और नतीजे में जलवायु परिवर्तन को काबू में करने की धुंधली सी उम्मीद बनी थी, रूस-यूक्रेन युद्ध ने उसे मटियामेट कर दिया है। अब कोयले से बिजली बनाने की लगभग त्याज्य तजबीज को फिर से काम में लाया जा रहा है। क्या है, यह प्रक्रिया? प्र

धरती पर रहने वाले जीव-जगत पर करीब दो दशक से जलवायु परिवर्तन की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और इसके बीच की दूरी निरंतर कम हो रही है। पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तापमान बढ़ रहा है, जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी की गर्मी 2.7 प्रतिशत बढ़ जाएगी, नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा।

इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्ष एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन होता है जिसे ‘कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (सीओपी) के नाम से भी जाना जाता है। इस बार ‘सीओपी’ की 27वीं बैठक मिस्र के शर्म-अल-शेख शहर में संपन्न हुई। सम्मेलन में पुरानी बातें ही दोहराई गईं। ‘पेरिस समझौते’ के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई।

वास्तव में अभी तक 56 देशों ने ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इसमें यूरोपीय संघ, अमेरिका, चीन, जापान और भारत भी शामिल हैं। अलबत्ता, रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए नवीकरणीय ऊर्जा को दिया जा रहा बढ़ावा स्थिर रह पाएगा। जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयले से ऊर्जा बनाने के संयंत्र बंद कर दिए थे, उन्हें, रूस द्वारा गैस आपूर्ति बंद कर देने के कारण फिर से चालू करने की तैयारी की जा रही है।  

सन् 2018 ऐसा वर्ष था, जब भारत और चीन में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी दर्ज की गई थी। नतीजतन भारत ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक‘ में पहली बार शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ था। वहीं अमेरिका सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में गिना गया था। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में ‘सीओपी 25’ सम्मेलन में यह रिपोर्ट जारी की गई थी। रिपोर्ट में 57 उच्च कार्बन उत्सर्जन वाले देशों में से 31 में उत्सर्जन का स्तर कम होने के रुझान दर्ज थे। इन्हीं देशों से 90 प्रतिशत कार्बन का उत्सर्जन होता रहा है।

इस सूचकांक ने बताया था कि कोयले की खपत में कमी सहित कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक बदलाव हुआ है। इसमें तीसवां स्थान प्राप्त चीन में भी मामूली सुधार दिखा था। ‘जी-20’ देशों में ब्रिटेन सातवें और भारत नवें स्तर पर था, जबकि आस्ट्रेलिया 61वें और सऊदी अरब 56वें क्रम पर थे। अमेरिका खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में इसलिए आ गया था, क्योंकि उसने जलवायु परिवर्तन की खिल्ली उड़ाते हुए इस समझौते से बाहर आने का निर्णय लिया था। रूस के यूक्रेन पर हमले के नतीजे में ऊर्जा उत्पादन एक बार फिर से कोयले पर निर्भरता की ओर बढ़ रहा है। दुनिया की लगभग 37 प्रतिशत बिजली का निर्माण थर्मल-पावर से किया जाता है। इन संयंत्रों की भट्टी में कोयले को झोंककर बिजली का उत्पादन होता है।

ब्रिटेन में हुई पहली औद्योगिक क्रांति में कोयले का महत्वपूर्ण योगदान था। सन् 1500 में बड़ी मात्रा में कोयले के उत्खनन की शुरूआत हुई थी। इसके बाद जिन देशों में भी कारखाने लगे, उनमें लकड़ी और कोयले का प्रयोग लंबे समय तक होता रहा। दुनिया की रेलें भी कोयले से ही लंबे समय तक चलती रहीं। भोजन पकाने और ठंड से बचने के उपाय भी लकड़ी जलाकर किए जाते रहे। अतएव धुएं के बड़ी मात्रा में उत्सर्जन और धरती के तापमान में वृद्धि की शुरुआत औद्योगिक क्रांति की बुनियाद रखने के साथ ही आरंभ हो गई थी। इसके बाद जब इन दुष्प्रभावों का अनुभव पर्यावरणविदों ने किया तो 14 जून 1992 में रियो-डी-जनेरियो में पहला अंतरराष्ट्रीय ‘संयुक्त राष्ट्र पृथ्वी सम्मेलन’ हुआ था।

इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप जापान के क्योटो शहर में 16 फरवरी 2005 को पृथ्वी के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ अंतरराष्ट्रीय संधि अस्तित्व में आई। इस संधि में शामिल देशों ने ‘ग्रीन हाउस’ अर्थात मानव उत्सर्जित गैसों को कम करने के प्रति प्रतिबद्धता जताई। दुनिया के वैज्ञानियों ने एक राय होकर कहा कि मानव निर्मित गैस ‘कार्बन डाइ-ऑक्साइड’ (सीओ-2) के उत्सर्जन से धरती का तापमान बढ़ रहा है, जो जीवाष्म ईंधन का पर्याय है। इस संधि पर 192 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे भीषण युद्ध ने हालात बदल दिए हैं। नवंबर 2021 में ग्लासगो में हुए वैश्विक सम्मेलन में तय हुआ था कि 2030 तक विकसित देश और 2040 तक विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन में कोयले का प्रयोग बंद कर देंगे। यानी 2040 के बाद ताप-विद्युत संयंत्रों में कोयले से बिजली का उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाएगा। तब भारत-चीन ने पूरी तरह कोयले से बिजली उत्पादन पर असहमति जताई थी और 40 देशों ने कोयले से पल्ला झाड़ लेने का भरोसा दिया था। 20 देशों ने विश्वास जताया था कि 2022 के अंत तक कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को बंद कर दिया जाएगा। आस्ट्रेलिया के सबसे बड़े कोयला उत्पादक व निर्यातक ‘रियो टिंटो’ ने अपनी 80 प्रतिशत कोयले की खदानें बेच दीं थीं, क्योंकि भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद होने के अनुमान लगा लिए गए थे।

भारतीय व्यापारी गौतम अडानी ने इस अवसर का लाभ उठाया और ‘आस्ट्रेलिया कोल कंपनी’ बनाकर आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड क्षेत्र में कोयला खदानें हासिल कर लीं। अडानी ने ‘कार्माइकल कोयला खदान’ पर पर्यावरण संबंधी मंजूरी मिलने के बाद 2019 से कोयले का खनन शुरू कर इसे बेचना भी आरंभ कर दिया है। इसी साल फरवरी में जब भारत में कोयले का संकट खड़ा हुआ था, तब आस्ट्रेलिया से ही भारत की सबसे बड़ी सरकारी बिजली उत्पादक कंपनी ‘एनटीपीसी’ ने कोयला खरीदा था। हालांकि आस्ट्रेलिया के पर्यावरणविद् इस अनुबंध का विरोध कर रहे हैं।

सन् 2019 तक यूरोप केवल 20 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से करता था, शेष जरूरतों की आपूर्ति गैस से होती थी, इसलिए अनेक यूरोपीय देशों ने 2025 तक अधिकतर ताप-विद्युतघरों को बंद करने की परियोजनाओं पर काम करना शुरू कर दिया था। अब रूस से गैस की आपूर्ति बंद हो जाने के कारण इटली, जर्मनी, नीदरलैंड और ऑस्ट्रिया ने कोयले से बिजली उत्पादन जारी रखने का फैसला ले लिया है। इन फैसलों के चलते ‘अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी’ को कहना पड़ा था कि 2022-23 में यूरोपीय देशों में कोयले से बिजली का उत्पादन 7 से 10 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है, जबकि पूरी दुनिया में कोयले की खपत आठ अरब टन हो जाएगी। कोयले की इतनी ही खपत 2013 तक होती थी। साफ है, कोयले की खपत बिजली उत्पादन के लिए बढ़ेगी तो कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा और धरती के तापमान में वृद्धि भी होगी।   

इन बदलते हालातों में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ‘ग्रीन हाउस गैसों’ के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में 43 प्रतिशत कमी लानी होगी। ‘इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेन्ज’ (आईपीसीसी) ने 1850-1900 की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रेखांकित किया है। इसे ही बढ़ते ‘औसत वैश्विक तापमान’ की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है।

कार्बन उत्सर्जन की दर नहीं घटी और तापमान बढ गया तो असमय अकाल, सूखा, बाढ़ और जंगल में आग की घटनाओं का सामना निरंतर करते रहना पड़ेगा। बढ़ते तापमान का असर केवल धरती पर होगा, ऐसा नहीं है। समुद्र का तापमान भी इससे बढ़ेगा और कई शहरों के अस्तित्व के लिए समुद्र संकट बन जाएगा। इसी सिलसिले में जलवायु परिवर्तन से संबंधित ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ की ‘अंतर-सरकारी समिति’ की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सभी देश यदि जलवायु बदलाव के सिलसिले में हुई ‘क्योटो-संधि’ का पालन करते हैं, तब भी वैश्विक ‘ग्रीन हाउस गैस’ उत्सर्जन में 2010 के स्तर की तुलना में 2030 तक 10.6 प्रतिशत तक की वृद्धि होगी। नतीजतन तापमान बढने की आशंका बढ़ गई है।

शर्म-अल-शेख में शिखर सम्मेलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि इसमें रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने और रूस द्वारा बंद कर दी गई गैस प्रदायगी को फिर से चालू करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। तय है, बंद पड़े कोयले से चलने वाले विद्युत तापघर शुरू हो गए तो पृथ्वी को आग का गोला बनने से रोकना मुश्किल होगा? (सप्रेस) 

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