सुरेश भाई

धार्मिक, सामरिक और प्राकृतिक महत्व के पहाडी शहर जोशीमठ और उसके आसपास लगातार उभरती और बढती दरारों ने एक बार फिर हमारे विकास-प्रेमी योजनाकारों को चेतावनी दी है। वे चाहें तो अपनी आत्महंता योजनाओं पर पुनर्विचार कर सकते हैं।

प्रभावित लोग और वैज्ञानिक बता रहे हैं कि हिमालय में आ रही आपदाओं का एक प्रमुख कारण सुरंग आधारित परियोजनाएं और बड़े-बड़े निर्माण कार्य हैं, क्योंकि इन परियोजनाओं के निर्माण के समय भूगर्भीय हलचल पैदा करने वाले भारी विस्फोटों का प्रयोग कर सुरंगें खोदी जाती हैं। इससे ऊपर बसे गांवों के मकानों में दरारें आ रही हैं, जलस्रोत सूखने लगे हैं। इस तरह की विकट स्थिति जोशीमठ जैसे भू-धंसाव में दिखाई दे रही है। अन्य स्थानों पर भी यही स्थिति पैदा हो रही है।

इसको बहुत देर से समझने के बाद ही तो जोशीमठ में निर्माणाधीन सुरंग आधारित ‘तपोवन-विष्णुगाड़ जलविद्युत परियोजना’ एवं ‘ऑल वेदर रोड’ के लिए बन रहे हेलंग, मारवाड़ी-बाईपास को रोकने की मांग की गई है। पहाड़ की भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करते हुए यहां पर बहुमंजिला इमारतें भी बन रही हैं। पर्यटन के नाम पर भारी संख्या में लोग जमा हो जाते हैं, जिसका प्रभाव दूरगामी होता है। इस दौरान जोशीमठ में आई सैकड़ों दरारों के अध्ययन के लिए अलग-अलग वैज्ञानिक संस्थानों की समितियां बनाई गई हैं। बहुत लंबे समय से कहा जा रहा है कि टिहरी बांध के जलाशय के चारों ओर के गांवों में भी दरारें पड़ रही हैं, जिसके कारण दर्जनों गांव 42 वर्ग किमी के बांध जलाशय की तरफ धंस रहे हैं। इसका सत्यापन करने के लिए फरवरी 2023 के प्रथम सप्ताह में एक ‘संयुक्त विशेषज्ञ समिति’ ने प्रभावित गांवों का भ्रमण किया है, जिसकी रिपोर्ट भविष्य में आएगी।

बांध जलाशय के चारों ओर के गांव टिहरी, उत्तरकाशी जिले के भिलंगना, प्रतापनगर, चिन्यालीसौड़ ब्लॉक में पड़ते हैं। इस बीच प्रभावित गांव के लोगों ने समिति के सदस्यों को घरों और गांव की धरती पर जगह-जगह आ रही उन दरारों को दिखाया है जहां पर भविष्य में निवास करना मुश्किल हो सकता है। इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए पौड़ी-गढ़वाल के जिलाधिकारी की अध्यक्षता में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल-लाइन हेतु खोदी जा रही सुरंग के ऊपर तीस से अधिक गांव में दरारों के अध्ययन के लिए समिति बनाई गई है। इसके लिए लोग दो-तीन वर्षों से चिल्ला रहे थे, लेकिन जोशीमठ के बाद यहां सरकार जागृत हुई है। इसकी रिपोर्ट तो न जाने कब आएगी, लेकिन दरारों के सत्यापन के लिए सरकारी अधिकारियों को प्रभावित गांव में जाना पड़ रहा है।

अनेकों सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाएं हैं, जिनके ऊपर बसे हुए गांवों में दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। सन् 2008 में ‘‘ऊर्जा प्रदेश की उजड़ती नदियां और उजडते लोग’’ नामक एक  शोध-पुस्तिका के माध्यम से चेताया गया था कि सुरंग बांधों के कारण ढालदार पहाड़ियों और चोटी पर बसे हुए गांव असुरक्षित हो सकते हैं। इसके बाद उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सन् 2010;  केदारनाथ (2013); ऋषिगंगा (2021); जोशीमठ (2023); जैसी बड़ी आपदाएं आ चुकी हैं। विशेषज्ञों ने जब इसका अध्ययन किया तो बताया कि इन आपदाओं का प्रमुख कारण सुरंग आधारित परियोजनाएं भी हैं। इसमें स्वतंत्र विशेषज्ञों की राय सबसे अधिक है।

उत्तराखंड में कुल बिजली खपत लगभग 2500 मेगावॉट है। यहां पर कार्य कर रही जलविद्युत परियोजनाओं में ढकरानी बांध परियोजना (84 मेगावॉट), छिब्बरो (240 मेगावॉट), खोडरी (120 मेगावॉट), कुलाल (30 मेगावॉट), खारा (72 मेगावॉट), चीला (144 मेगावॉट), मनेरी-भाली प्रथम (90 मेगावॉट), मनेरी-भाली द्वितीय (304 मेगावॉट), रामगंगा-कौलागढ़ (98 मेगावॉट), गुनसोला हाइड्रोपावर (3 मेगावॉट), भिलंगना हाइड्रोपावर प्रथम (24 मेगावॉट), भिलंगना द्वितीय (22 मेगावॉट), टिहरी बांध परियोजना (2000 मेगावॉट), धौलीगंगा-पिथौरागढ़ (280 मेगावॉट), विष्णुप्रयाग जलविद्युत (400 मेगावॉट), श्रीनगर जलविद्युत (330 मेगावॉट), खटीमा-शारदा प्रोजेक्ट (41 मेगावॉट), टनकपुर-शारदा (120 मेगावॉट), मसूरी-गलोगी (1000 मेगावॉट), भीमगोड़ा बैराज (30 मेगावॉट) परियोजनाएं शामिल हैं।

इनमें से एक दर्जन से अधिक निर्माणाधीन एवं कार्यरत योजनाएं 2013 और 2021 की आपदा में ध्वस्त हो चुकी हैं। इनकी संख्या रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी में सबसे अधिक हैं।  केदारनाथ-आपदा के समय 24 जलविद्युत परियोजनाएं ऐसी थीं जिनके कारण मंदाकिनी, भागीरथी, अलकनंदा, पिंडर में आई बाढ़ के कारण जान-माल का अधिक-से-अधिक नुकसान हुआ था। सन 1991 के गढ़वाल भूकंप के कारण भी मनेरी-भाली (प्रथम) की सुरंग के ऊपर बसे जामक गांव में दर्जनों लोग मारे गए थे। उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने के लिए लगभग सभी नदियों पर श्रंखलाबद्ध, सुरंग आधारित 600 परियोजनाओं को चिन्हित किया गया है। इनकी  क्षमता लगभग 80 हजार मेगावाट है। सूत्रों के अनुसार राज्य में लगभग 244 छोटी-बड़ी परियोजनाओं पर काम करने की योजना है जिनकी कुल क्षमता 20 हजार मेगावाट से अधिक है।

दर्जनों परियोजनाएं ‘उरेडा’ द्वारा भी तैयार की गई है। यदि 244 परियोजनाएं उत्तराखंड में बन गईं तो इनसे लगभग 1000 किलोमीटर से अधिक लंबी सुरंगों का निर्माण अलग-अलग परियोजनाओं में किया जाएगा जिनके ऊपर हजारों गांव आएंगे। इससे लगभग 25 लाख आबादी प्रभावित हो सकती है। इसी तरह ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेललाइन 126 किलोमीटर में 70 प्रतिशत से अधिक का निर्माण सुरंग से हो रहा है और इसके ऊपर 4 दर्जन से अधिक ऐसे गांव हैं, जहां लोगों के घरों और खेतों में दरारें आ चुकी हैं, जलस्रोत सूख रहे हैं, भू-धंसाव और भूस्खलन की समस्या पैदा हो गई है। प्रस्तावित गंगोत्री रेललाइन, जिसकी लंबाई लगभग 120 किलोमीटर है, का अधिकांश हिस्सा सुरंग के अंदर होगा और इसके ऊपर भी सैकड़ों गांव आएंगे। ‘ऑल वेदर रोड’ के निर्माण के कारण उत्तराखंड के दर्जनों गांवों के मकानों में दरारें आ गई हैं और नीचे से जबरदस्त भूस्खलन हो रहा है।

भविष्य में यदि यह विनाश नहीं रोका और उत्तराखंड में कुल प्रस्तावित व निर्माणाधीन 600 जलविद्युत परियोजनाओं पर काम करना शुरू किया तो समझ लीजिए कि यहां से लाखों लोगों को अपने गांवों में ही रहना मुश्किल हो जाएगा। लगभग 5 हजार से अधिक गांव सुरंगों के ऊपर आ सकते हैं। इन विषम परिस्थितियों के बावजूद गत वर्ष 22 दिसंबर को उत्तराखंड के प्रमुख सचिव ने सचिवालय में एक बैठक करके बताया कि 17-21 अप्रैल 2023 को देहरादून में सुरंग निर्माण से जुड़े हुए 600 विशेषज्ञों की एक संगोष्ठी करेंगे। ताज्जुब इस बात का है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्करसिंह धामी हिमालय के इस संवेदनशील इलाके में सुरंग आधारित परियोजनाओं को संचालित करने के लिए उत्साहित हैं और आगामी अप्रैल में विशेषज्ञों को बुलाया जा रहा है। जानकारी है कि केंद्रीय राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी भी इसी दौरान मसूरी के लिए प्रस्तावित टनल का उद्घाटन करेंगे, ताकि सुरंगों के निर्माण का सपना पूरा हो सके।

हम भूल नहीं सकते जब सन् 2009 में गंगा के उद्गम में लोहारी-नागपाला, पाला-मनेरी और भैरवघाटी परियोजनाओं को रोकने के लिए अनशन हुआ था तो भाजपा और आरएसएस के लोगों ने ही केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर परियोजना रोकने के लिए दबाव बनाया था। सुषमा स्वराज ने संसद में उत्तराखंड में बड़े बांधों के खिलाफ बहुत शानदार वक्तव्य दिया था। जिस पर कांग्रेस ने विचार करके परियोजनाओं को रोक दिया था। लेकिन आज जब केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकारें हैं तो वे इन विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने की बजाय बड़े स्तर पर बढ़ावा दे रही हैं। वर्तमान में भी उदाहरण हैं, जब कांग्रेस के लोग भाजपा को जोशीमठ में सुरंग आधारित परियोजना और चौड़ी सड़क निर्माण को रोकने की बात कर रहे हैं तो वह सुन क्यों नहीं रही है? इससे सवाल खड़ा होता है कि क्या लोग वोट इसलिए देते हैं कि उनकी बर्बादी पर विचार ही न हो? हिमालय में इस तरह की परियोजनाएं पर्यावरण संकट खड़ा कर रही हैं। विकल्प है, बड़े निर्माण रोककर छोटे-छोटे कार्यों के द्वारा यहां की धरती व लोगों को आपदा से बचाया जाए। (सप्रेस)

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