विवेकानंद माथने

दुनिया के अधिकांश देशों में राज-काज चलाने के लिए सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्रणाली लोकतंत्र मानी जाती है, लेकिन क्या वह अपने घोषित उद्देश्यों के मुताबिक अमल में लाई जा रही है? क्या हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणाली कारगर साबित हुई है? क्या हैं, उसके अनुभव?

किसी तंत्र को सफल तभी माना जा सकता है, जब वह अपने निर्माण के उद्देश्य की ओर अग्रसर हो। निःसंदेह लोकतंत्र राजतंत्र से बेहतर है, लेकिन वह आदर्श समाज व्यवस्था के उद्देश्य से उतना ही दूर है, जितना कि राजतंत्र। जिस उद्देश्य के लिये लोकतंत्र स्वीकार किया गया था, उस उद्देश्य को साधना लोकतंत्र में संभव नहीं हुआ। न्याय आधारित व्यवस्था, समता-मूलक समाज और बंधुता प्रदान करने में आज का लोकतंत्र पूर्णतः असफल रहा है।

आदर्श तंत्र उसे ही कहा जा सकता है, जहां नीति-निर्धारण में लोगों की भागीदारी हो, जहां समता, न्याय और बंधुता के लिये नीतियां बनाई जाती हों, अभिव्यक्ति की आजादी हो, जीने के अधिकार सुरक्षित हों, सभी के पास आहार, कपडा और मकान हो, जहां राजा के खिलाफ अभिव्यक्ति राजद्रोह नहीं हो, बल्कि राजा गलत काम करे तो उसके विरुद्ध भी शिकायत की जा सके। ऐसे तंत्र को ही आदर्श माना जा सकता है, लेकिन मौजूदा लोकतंत्र इस आदर्श पर खरा नहीं उतर सका है।

राजतंत्र की तरह लोकतंत्र में भी लोगों के संवैधानिक अधिकार, मौलिक अधिकार सुरक्षित नहीं हैं। लोगों की ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘जीने के अधिकार’ पर लगातार प्रहार किया जा रहा है और उन्हें अन्याय, शोषण, अत्याचार, राज्य-प्रायोजित हिंसा का सामना करना पड रहा है। राजतंत्र की जगह लोकतंत्र आने पर भी समाज की स्थितियों में कोई फर्क नहीं पडा है। आम समाज राजतंत्र में भी कष्ट में था और लोकतंत्र में भी कष्ट में है।

लोकतंत्र में राजाओं की जगह जन-प्रतिनिधि जरुर आये हैं, लेकिन उनकी नीतियों में कोई अंतर नहीं है। लोकतंत्र में वे सभी दोष दिखाई दे रहे हैं, जो राजतंत्र में थे। लोकतंत्र में भी राज्य का नियंत्रण सैन्य शासन द्वारा ही किया जा रहा है। जनता पर उसी प्रकार से अन्याय, अत्याचार हो रहा है, जैसा कि हमने अन्यायी राजा के राज के बारे में पढा-सुना है।

ऐसा माना गया था कि लोकतंत्र में राजवंश की जगह लोगों के द्वारा और लोगों में से प्रतिनिधि चुनकर जायेंगे तो वे लोगों के हित में बेहतर नीतियां बनाऐंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। आज संसद में कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के लिये अधिकांश नीतियां बनाई जाती हैं। इसीलिये लोकतंत्र ना लोगों का है, ना लोगों के लिये है। जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, वह कारपोरेट के धन पर पोषित, कारपोरेट्स द्वारा संचालित, कारपोरेट के लिये काम करने वाला तंत्र बन गया है।

जो राजतंत्र के लिये संभव नहीं हुआ वह लोकतांत्रिक देशों ने कर दिखाया है। दुनिया की लूट में लोकतांत्रिक देश सबसे आगे हैं, क्योंकि लोकतांत्रिक देशों में पूंजीपतियों के लिये लूट की नीतियां लागू करना राजतंत्र से ज्यादा आसान होता है। राजतंत्र की तुलना में लोकतंत्र ने साम्राज्यवाद को अधिक मजबूत किया है। लोकतंत्र की सिफारिश करने वाले इंग्लैंड ने पूरी दुनिया में अपना साम्राज्य फैलाया था। आज अमेरिका नव-साम्राज्यवाद बढाने में अग्रसर है। लोकतांत्रिक देशों में पूंजीपतियों की संख्या और अमीरी-गरीबी की खाई लगातार बढती जा रही है।

कारपोरेट राज के लिये अनुकूल नीतियां बनाना लोकतंत्र में जितना आसान है, उतना राजतंत्र में कभी नहीं था। लोकतंत्र में सरकारें कारपोरेट घरानों के सामने ‘रेड-कारपेट’ बिछाकर आत्मसमर्पण कर रही हैं, जबकि राजतंत्र में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के खिलाफ कई राजाओं ने अपनी जान दांव पर लगाकर संघर्ष किया था। इस दृष्टि से लोकतंत्र से राजतंत्र बेहतर माना जाना जा सकता है।

लोकतंत्र हो या राजतंत्र, किस देश की सत्ता में कौन रहेगा यह कारपोरेट दुनिया ही तय करती है। कारपोरेट्स उन्हें सत्ता में बिठाना चाहते हैं, जो उनकी गुलामी करने के लिये, देश की लूट कराने के लिये तैयार हों। कारपोरेट्स उन्हीं को धन उपलब्ध कराते हैं, मीडिया द्वारा उन्हीं के अनुकूल जनमत पैदा करते हैं और चुनाव में धांधलियां करके ऐसे लोगों को सत्ता में पहुंचाते हैं। उन्हें तब तक सत्ता में बनाये रखा जाता है, जब तक लूट के लिये उनका उपयोग हो सके। राजतंत्र और लोकतंत्र, दोनों पूंजीपतियों द्वारा ही चलाये जाते हैं।

भारत में आजादी के समय जितने राजा थे, उससे अधिक आज जन-प्रतिनिधि हैं। इन जन-प्रतिनिधियों की ऐय्याशी और जीवन किसी राजा से कम नहीं है। आज के जन-प्रतिनिधि राजाओं से ज्यादा सुख-सुविधाऐं भोगते हैं। जनता की गाढी कमाई को अपनी ऐय्याशी पर खर्च करने के अलावा ये जन-प्रतिनिधि जनता के लिये कुछ करते दिखाई नहीं देते। राजाओं को अपने निर्णय के परिणाम भुगतने पड़ते थे, जान की जोखिम उठानी पड़ती थी, लेकिन लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधियों की अपने निर्णयों के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं है।

लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का नया तरीका आरुढ हुआ है। भारत में पार्टियों को धन प्राप्त करने के लिये सभी पार्टियों की सहमति से ‘चुनावी बॉन्ड’ लाये गये हैं। ‘चुनावी बॉन्ड’ की गोपनीयता के कारण किस पार्टी को, किससे, कितना धन मिला है, इसके बारे में लोगों को किसी प्रकार की जानकारी नहीं होती। धन के लिये पार्टियां पूंजीपतियों से लिखित, अलिखित समझौते करती हैं। जो पार्टी पूंजीपतियों को जितना लाभ पहुंचाती है, उतना ही अधिक धन प्राप्त करती है। कंपनियां लूट का एक हिस्सा कमीशन के रुप में ‘चुनावी बॉन्ड’ की मार्फत देती हैं। चुनावी प्रतिस्पर्धा ने लोकतंत्र को कमीशन-खोर और बिकाऊ बना दिया है।

कहा जाता था कि लोकतंत्र बहुमत के सिद्धांत पर काम करता है, जहां बहुमत का राज होगा और अल्पमत का आदर होगा, लेकिन यह सच नहीं है। आज भारत में 90 करोड़ मतदाता हैं। उसमें से लगभग 60 प्रतिशत यानि लगभग 54 करोड़ मतदाता वोट देते हैं। जिसे 30-35 प्रतिशत याने 15-20 करोड़ वोट मिलते हैं, वह सत्ता प्राप्त करता है। यानि कि 135 करोड़ जनसंख्या के देश में 90 करोड़ मतदाताओं में से 20 करोड़ वोट प्राप्त करने वाले लोग राज करते हैं। लोकतंत्र में अल्पमत बहुमत पर राज करता है।

लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया भी दोषपूर्ण है। ऐसा दिखाई देता है कि चुनाव द्वारा मतदाता अपना प्रतिनिधि चुनकर भेजते हैं, लेकिन यह सच नहीं है। लोकतंत्र में उम्मीदवारी पार्टियां तय करती हैं। मतदाता पांच साल के लिये एक बार मत देकर उनमें से एक को चुनते हैं। वह मत भी मतदाता का नहीं होता। चुनावों में धर्म, जाति, रंग, क्षेत्रीय अस्मिता के आधार पर समाज में भेद पैदा किया जाता है, माध्यमों द्वारा झूठ फैलाकर माहौल बनाया जाता है, जनमानस प्रभावित कर मतदाता का मत बनाया जाता है और चुनाव जीता जाता है। ऐसे जन-प्रतिनिधियों की स्वतंत्र आवाज नहीं होती, उन्हें पार्टी के अनुसार ही भूमिका रखनी होती है और पार्टियां लोगों के प्रति नहीं, कंपनियों के प्रति वफादारी निभाती हैं।

चुनाव जीतने के लिये पार्टियां कंपनियों को नियुक्त करती हैं। चुनावी मुद्दे, कार्यकर्ता प्रशिक्षण के साथ-साथ जातिगत समीकरण, समाज में भेद पैदा करने वाले संवेदनशील मुद्दों की तलाश कर वोट के लिये समाज को बांटने का काम कंपनियां करती हैं। धर्म, संप्रदाय, जाति, रंग, आहार, पहनावा, क्षेत्रीय अस्मिता आदि पर विवाद खडा किया जाता है। उनके लिये प्रसार-माध्यमों द्वारा जनमत पैदा किया जाता है। हिंसा फैलाई जाती है। पार्टियों और उनके नेताओं की झूठी ब्रांडिंग की जाती है। उम्मीदवार तय करने से लेकर उन्हें जिताने तक, सब कुछ कंपनियां करती हैं। लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया का व्यवसाय के रुप में उभरना लोकतंत्र का पराभव है।

लोकतंत्र के नाम पर एक ऐसी व्यवस्था बनाई गई है जहां झूठ, हिंसा, विद्वेष, भेदभाव, प्रतिस्पर्धा, प्रतिशोध के कारण समाज और देश बंटता जा रहा है, जहां देश और समाज की भलाई का कोई रास्ता नजर नहीं आता। लोकतंत्र में न्याय आधारित व्यवस्था की कोई उम्मीद नहीं रख सकते। लोकतंत्र आदर्श व्यवस्था निर्माण का उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुआ है। लोकतंत्र पराभूत हुआ है। अब न्याय आधारित व्यवस्था के लिये हमें एक नये तंत्र की खोज करना जरुरी है। (सप्रेस)

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