75 वें गणतंत्र दिवस पर विशेष

प्रमोद भार्गव

संविधान की अवधारणा भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न एवं लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में स्थापित करती है। यही हमारा धर्मग्रंथ है। नागरिकों के आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय के साथ प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता को भी संविधान तय करता है। समानता का यह दृष्टिकोण सांप्रदायिक और जातीय भेद को खत्म कर रहा है।

आज का भारतीय गणतंत्र स्वतंत्रता के बाद पहली बार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पुनर्स्थापना के परिप्रेक्ष्य में मनाया जा रहा है। भारतीय संविधान के निर्माता भलीभांति जानते थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के आदर्श विवादों को समाधान की ओर ले जाते हैं। इसीलिए संविधान की मूल हस्तलिखित प्रति में राम-दरबार का चित्र लगाया गया था। यथा, राम विधान और संविधान दोनो हैं। संविधान की यही अवधारणा भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न एवं लोकतंत्रात्मक गणराज्य के रूप में स्थापित करती है। यही हमारा धर्मग्रंथ है। नागरिकों के आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय के साथ प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता को भी संविधान तय करता है। समानता का यह दृष्टिकोण सांप्रदायिक और जातीय भेद को खत्म कर रहा है।     

सनातन हिंदू संस्कृति ही अखंड भारत की संरचना का वह मूल गुण-धर्म है, जो इसे हजारों साल से एक रूप में पिरोये हुए है। इस एकरूपता को मजबूत करने की दृष्टि से भगवान परशुराम ने मध्यभारत से लेकर अरुणाचल प्रदेश के लोहित कुंड तक आतताइयों का सफाया कर अपना फरसा धोया, वहीं राम ने उत्तर से लेकर दक्षिण तक और कृष्ण ने पश्चिम से लेकर पूरब तक सनातन संस्कृति की स्थापना के लिए सामरिक यात्राएं कीं। अतएव समूचे आर्यावर्त में वैदिक, रामायण व महाभारतकालीन संस्कृति के प्रतीक चिन्ह मंदिरों से लेकर विविध भाषाओं के साहित्य में मिलते हैं।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इन्हीं स्थापनाओं ने ही दुनिया के गणतंत्रों में भारत को प्राचीनतम गणतंत्रों में स्थापित किया। यहां के मथुरा, पद्मावती और त्रिपुरी जैसे अनेक हिंदू राष्ट्र दो से तीन हजार साल पहले तक केंद्रीय सत्ता से अनुशासित लोकतांत्रिक गणराज्य थे। केंद्रीय मुद्रा का भी इनमें चलन था। लेकिन भक्ति, अतिरिक्त उदारता, सहिष्‍णुता, विदेशियों को शरण और वचनबद्धता जैसे भाव व आचरण कुछ ऐसे उदात्त गुणों वाले दोष रहे, जिनकी वजह से भारत विडंबनाओं और चुनौतियों के ऐसे देश में बदलता चला गया कि राजनीति के एक पक्ष ने इन्हीं कमजोरियों को सत्ता पर काबिज होने का पर्याय मान लिया। परंतु पिछले दस साल में न केवल देश व्यापी बल्कि विश्‍वव्‍यापी आश्‍चर्यजनक परिवर्तन देखने में आ रहे हैं।

बदलाव की चेतना मुगल काल में दिखाई दी थी। जब तुलसी, सूरदास और कबीर ने इस्लामिक आक्रांताओं का दमन और धर्म परिवर्तन के लिए दबाव से साक्षात्कार किया तो मध्यकाल के ये भक्तिकालीन कवि उद्वेलित हो उठो। रामचरित मानस सहित इन कवियों के अन्य रचना संसार ने आहत चेतना को ऊर्जा दी और स्वाभिमानी भारतीय इन आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्षरत दिखाई देने लगा।

भारतीय सनातन चेतना जगाने वाले इस साहित्य को वामपंथियों ने धर्म की अफीम बताकर नकारने की कोशिश भी की। परंतु इसी साहित्य से मिली चेतना की परंपरा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने में आई थी। इसीलिए इसे भारतीय स्वाभिमान की जागृति का संग्राम भी कहा जाता है। राजनीतिक दमन और आर्थिक शोषण के विरुद्ध लोक.चेतना का यह प्रबुद्ध अभियान था। यह चेतना उत्तरोतर ऐसी विस्तृत हुई कि समूची दुनिया में उपनिवेशवाद के विरुद्ध मुक्ति का स्वर मुखर हो गया। परिणामस्वरूप भारत की आजादी एशिया और अफ्रीका की भी आजादी लेकर आई।

भारत के स्वतंत्रता समर का यह एक वैश्विक आयाम था, जिसे कम ही रेखांकित किया गया है। इसके वनिस्पत फ्रांस की क्रांति की बात कही जाती है। निसंदेह इसमें समता, स्वतंत्रता एवं बंधुता के तत्व थे, लेकिन एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका की अवाम उपेक्षित थी। अमेरिका ने व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता और सुख के उद्देश्य की परिकल्पना तो की, परंतु उसमें स्त्रियां और हब्शी गुलाम बहिष्कृत रहे। मार्क्स और लेनिनवाद ने एक वैचारिक पैमाना तो दिया, किंतु वह अंततः तानाशाही साम्राज्यवाद का मुखौटा ही साबित हुआ। इस लिहाज से स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी के ही विचार थे, जो समग्रता में न केवल भारतीय हितों, बल्कि वैश्विक हितों की भी चिंता करते थे।

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