महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ के कुलपति को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत की नियुक्ति से नाराज 9 ट्रस्ट्रियों ने विद्यापीठ से इस्तीफा दे दिया। आचार्य देवव्रत की नियुक्ति को वह विद्यापीठ और गाँधी मूल्यों के खिलाफ मान रहे हैं। चार पेज का सामूहिक पत्र जारी कर ट्रस्टीयों ने विद्यापीठ के ”महान परम्परा” को कायम रखने की मांग की।

गुजरात विद्यापीठ अपनी स्थापना के 101 वर्ष पूरे कर 102वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है। गुजरात विद्यापीठों में यह परंपरा रही है कि केवल गांधीवादियों को कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया है। लेकिन गुजरात विद्यापीठ की वर्तमान कुलाधिपति इलाबेन भट्ट के इस्तीफे के बाद ट्रस्टियों के गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत को कुलपति बनाने के फैसले से गांधीवादियों में भारी नाराजगी दिख रही है। जिसके चलते गुजरात विद्यापीठ बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के 22 ट्रस्टियों में से 9 ट्रस्टियों ने आज इस्तीफा दे दिया।

गुजरात विद्यापीठ के कुलपति इलाबेन भट्ट के खराब स्वास्थ्य के कारण इस्तीफा देने के बाद नए कुलपति का चुनाव करने के लिए 4 अक्टूबर, 2022 को गुजरात विद्यापीठ के 22 ट्रस्टियों की एक बैठक आयोजित की गई थी। जिसमें गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत का नाम कुलपति पद के लिए प्रस्तावित किया गया था। आचार्य देवव्रत के समर्थन में न्यासी मंडल के 13 न्यासियों ने मतदान किया जबकि 9 न्यासियों ने उनके विरुद्ध मतदान किया।

आचार्य देवव्रत के नामांकन का विरोध करने वाले ट्रस्टियों ने आचार्य देवव्रत के गांधीवादी होने पर भी सवाल उठाए। बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज की इस बैठक के बाद आचार्य देवव्रत को गुजरात विद्यापीठ का चांसलर बनने के लिए आमंत्रित किया गया।

12 अक्टूबर 2022 को आचार्य देवव्रत ने गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति बनने का निमंत्रण स्वीकार किया। फिर गुजरात विद्यापीठ के ऐसे जल्दबाजी में लिए गए फैसले से नाराज 9 ट्रस्टियों ने गुजरात विद्यापीठ के 102वें स्थापना दिवस की पूर्व संध्या पर इस्तीफा दे दिया। गुजरात विद्यापीठ के नवीन कुलपति के चयन पर असहमत न्यासीगणों में नरसिंहभाई हठीला, सुदर्शन आयंगर, अनामिक शाह, मंदाबेन परीख, नीता हार्डिकर, उत्तमभाई परमार, माइकल मांजगांवकर, चैतन्य भट्ट, कपिल शाह उल्‍लेखनीय है।

आज नौ न्यासियों द्वारा जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि पिछले पांच वर्षों में राज्य सत्ता की भूमिका निर्णायक रूप से बदली है। नौकरशाही की लालफीताशाही दखलंदाजी के चलते विशेष उद्देश्य से स्थापित विद्यापीठ के साथ निजी विश्वविद्यालयों सरीखा व्यवहार किया गया एवं एकतरफा तरीके से संस्थान पर शासन के संकुचित नियम लागू कर दिए गए। न्यासी मानते हैं कि विद्यापीठ के प्रबंधन में कुछ कमियाँ हो सकती हैं एवं निर्देशों में अस्पष्टता के चलते या सरकारी नियमों की व्याख्या के चलते सरकारी अनुदान की शर्तों की हमेशा अनुपालना न की गई हो, नियमों से परे जा कर पदोन्नति दी गई हो इत्यादि। विद्यापीठ के वर्तमान प्रशासन ने सरकार के साथ संवाद स्थापित कर के अधिकारियों को यह समझाने का भरसक प्रयास किया है कि पुराने प्रशासन द्वारा किये गए गलत निर्णयों को असंवेदनशील तरीके से पलटने से कर्मचारियों की आजीविका एवं संतुष्टि पर बुरा असर पड़ सकता है। विद्यापीठ द्वारा सम्बंधित अधिकारियों को लिखे गए 150 से अधिक पत्र अनुतरित हैं। इस बीच कुलनायक (Vice Chancellor) की नियुक्ति पर विवाद खड़ा कर दिया गया और संस्थान को मानित विश्वविद्यालय का दर्जा वापस लेने और अनुदान रोकने के लिए नोटिस जारी किए गए.. हमारी नज़र में ये कदम स्पष्ट रूप से दुर्भावनापूर्ण, अनुचित और गैर-अनुपातिक हैं।

बयान में आगे कहा गया है कि हमारे संज्ञान में आया है कि कुलपति के चयन के संबंध में पहले चंद अधिकारियों के माध्यम से अनुचित मांग रखी गई थीं. “चयनित व्यक्ति एक निश्चित धर्म से संबंधित नहीं होना चाहिए, एक चिह्नित व्यक्ति का विरोधी नहीं होना चाहिए से लेकर अंततः मंत्री और पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा यह कहा गया कि “अगर अमुक व्यक्ति का चयन किया जाता है, तभी विद्यापीठ की समस्याओं की सुनवाई की जायेगी.” ऐसे दबाव का कोई निश्चित सबूत नहीं हो सकता। इस प्रकार मौखिक सौदेबाजी द्वारा संस्थान की स्वायत्तता को कमजोर करने का प्रयास किया गया। विद्यापीठ के 102 साल के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना थी। परिणामस्वरूप कुलपति के चयन जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर निर्णय सर्वसम्मति के बजाय जल्दबाजी में बेहद खंडित मतदान के आधार पर लिया गया। निश्चित तौर पर यह अभूतपूर्व घटना टाली जा सकती थी।

सरकार का यह कदम गुजरात विद्यापीठ के अस्तित्व के मूल उद्देश्य एवं लक्ष्यों के विपरीत है एवं इस के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाता है। यह कदम न केवल सत्ता का अनैतिक प्रयोग है अपितु लोकतंत्र विरोधी और किसी भी सभ्य समाज की सरकार के लिए शर्मनाक है। हम इसकी कड़े से कड़े शब्दों में निंदा करते हैं।

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ लोकनीति एक नितांत आवश्यक शर्त है। इस घटनाक्रम के माध्यम से सरकार ने गांधी दर्शन के आधार पर चलने वाली छोटी-बड़ी संस्थाओं पर कब्जा करके इतिहास को मिटाने एवं बदलने की अपनी मंशा को स्पष्ट कर दिया है।

सरकार के इस कदम में शामिल न्यासियों और कर्मचारियों ने दुनिया के सामने गुजरात विद्यापीठ को क्षोभजनक स्थिति में डाल दिया है। उन्हें कई प्रश्नों के उत्तर देने होंगे। क्या उन्होंने गांधीवादी विचारों को छोड़ा दिया है? गांधीजी के विचार प्राकृतिक खेती, पशुपालन या प्राकृतिक उपचार तक सीमित नहीं हैं। ये सब तो इसके कार्यक्रम हैं। गांधीवादी विचारों का वास्तविक सार तो सत्य और अहिंसा के मार्ग में “नो सर” कहने के साहस में निहित है, अंतर-धार्मिक समानता, लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण, नागरिक स्वतंत्रता, संस्थागत स्वायतता के पक्ष में और सरकार की जी हजूरी के खिलाफ अथक प्रयास करने में है। इन मूल्यों के बिना गांधी अधूरे हैं। हमें उम्मीद है कि डर, प्रलोभन या मृग तृष्णा की चाह में उन्होंने जो गलती की है, उसके लिए उन्हें निश्चित रूप से प्रायश्चित होगा। ऐसा नहीं है कि न्यासियों को कर्मचारियों के हितों की चिंता नहीं है। जब सरकार ने अपनी जिम्मदारी से पीछे हट गई तो विद्यापीठ ने अपने संसाधनों से करोड़ों रुपए का खर्च कर के यह सुनिश्चित किया है कि वेतन भुगतान में गतिरोध न हो। तीन सालों से यही स्थिति चल रही है। ऐसा मानना मूर्खता होगी कि सरकार की पसंद के कुलपति बिठाने से विद्यापीठ में सब कुछ ठीक हो जाएगा।

हम स्पष्ट रूप से मानते हैं कि कुलपति का चयन जल्दबाजी में, राजनीतिक दबाव, भय और धमकी के चलते, उचित प्रक्रिया एवं संवाद को दरकिनार कर के तथा पद के लिए अन्य योग्य व्यक्तियों पर विचार किए बिना किया गया है। हमारा मानना है कि यह निर्णय संस्था की आत्मा को दरकिनार कर के मात्र इस के शरीर को बचाने के लिए लिया गया है, एवं इस प्रक्रिया में तात्कालिक लाभ के लिए मूल्यों एवं सिद्धांतों की बली चढ़ा दी गई है।

चयनित कुलपति अपने चयन की परिस्थितियों को अच्छी तरह से जानते हैं। उनका चयन न न्यासी मंडल की सहज इच्छा से हुआ और न ही सर्वानुमति से हुआ है। यह अभद्र राजनीतिक दबाव में किया गया है। यह गांधी जी के सिद्धांतों, तरीकों एवं व्यवहार के पूरी तरह विरुद्ध है इसलिए हम नव चयनित कुलपति से नम्रतापूर्वक पूछना चाहते हैं कि ऐसा चयन आपके लिए गर्व का विषय कैसे हो सकता है?

अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण करते हुए हम सामूहिक रूप से यह निर्णय लेते हैं कि अब हमारे लिए संस्था के वर्तमान प्रबंधन के साथ सहयात्रा करना असंभव है। इस लिए हमारे लिए न्यासी मण्डल के सदस्य के रूप में त्यागपत्र देना ही उचित होगा।

इस अवसर पर हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमें निडर बनाएं ताकि हम गांधी द्वारा दिखाए रास्ते पर चल पाने का साहस कर पायें, मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा पाया है, सच्चाई की खोज कर के संयम के साथ जनता को सूचित करे। ईश्वर देश के नागरिकों को विवेक दे कि वे तथ्य एवं मिथक में फर्क कर सकें। ईश्वर देश में लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करने वालों को सशक्त बनाए एवं सत्ता को सदबुद्धि दे। सत्ता हमेशा नहीं रहती।

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