एस. गिरिधर

कोविड योद्धाओं ने जब काम शुरू किया तो उन्हें अन्दाज़ा नहीं था कि यह कब ख़त्म होगा। हर गुज़रते हफ्‍़ते के साथ यह साफ़ होता गया कि यह संकट उनकी कल्पना से कहीं ज़्यादा लम्बा है। देखते-देखते सितम्बर आ गया, कोविड मामले अपने चरम पर थे और योद्धा अभी भी जंग के मैदान में। हवा में तैरते, अपने सहकर्मी की साँस में बहते, किसी चीज़ में चिपके या थकी भौंहों पर टिके पसीने में घुले एक अदृश्य दुश्मन के सामने वे आसान शिकार की तरह खड़े थे।

एस. गिरिधर

अगर कोई सौ मीटर दौड़ के कुछ ओलम्पिक चैम्पियनों का नाम पूछे तो हम बिना अटके बोल्ट, लूईस, ओवन्स का नाम गिना देते हैं। ज़्यादा दिलचस्पी रखने वाले शायद वेलेरी बोर्ज़ोव का नाम भी जोड़े दें। लेकिन अगर कोई पिछले साठ वर्षों के किसी मैराथन गोल्ड मेडलिस्ट का नाम पूछ ले तो हम बग़लें झाँकने लगेंगे। आख़िर क्या वजह है कि दृढ़ निश्चयी, देर तक टिके रहने की अद्भुत क्षमता से लैस, ताक़त और ऊर्जा के नमूने मैराथन धावक छोटी रेस के धावकों जितने प्रसिद्ध नहीं होते? लेकिन अब यह स्थिति बदलेगी क्योंकि 2020 के मैराथन धावकों यानी कोविड योद्धाओं ने हमें इनकी अहमियत को समझा दिया है।

2020 के शुरुआती दौर में जब कोरोना का हमला हुआ तब हमारे सामने न सिर्फ़ एक चिकित्सकीय चुनौती खड़ी हो गई बल्कि एक मानवीय संकट भी पैदा हुआ। हमारी आँखों के सामने हमारे करोड़ों भाई-बहनों के पैरों तले की ज़मीन ही मानो खिसक गई। उनको अगले वक़्त की रोटी कहाँ से मिलेगी, उनको सिर छिपाने को छत कब मिलेगी, या वे अपने घर को दोबारा देख भी सकेंगे कि नहीं? ऐसे दौर में पूरे देश में हज़ारों वॉलंटियर अपनी परवाह किए बिना राहत कार्यों में जुट गए।

कोविड-19 पहले की किसी भी आपदा से अलग है। भूकम्प, तूफ़ान, बाढ़ या बलवे एक छोटे इलाक़े या समय में सीमित होते हैं। राहतकर्मी और वॉलंटियर पूरी ताक़त के साथ ऐसे पीड़ितों की मदद के लिए ख़ुद को झोंक देते हैं जिन्होंने शायद अपना परिवार, सम्पत्ति या आजीविका खो दी हो। लेकिन यह कुछ दिनों या हफ़्तों की बात होती है। जैसे-जैसे सामान्य हालात बहाल होते हैं और पीड़ित सँभलने लगते हैं, राहत योद्धा अपनी ज़िन्दगियों में और परिवारों के पास वापस लौट जाते हैं।

लेकिन महामारी ऐसा मौक़ा नहीं देती। कोविड योद्धाओं ने जब काम शुरू किया तो उन्हें अन्दाज़ा नहीं था कि यह कब ख़त्म होगा। हर गुज़रते हफ्‍़ते के साथ यह साफ़ होता गया कि यह संकट उनकी कल्पना से कहीं ज़्यादा लम्बा है। देखते-देखते सितम्बर आ गया, कोविड मामले अपने चरम पर थे और योद्धा अभी भी जंग के मैदान में। हवा में तैरते, अपने सहकर्मी की साँस में बहते, किसी चीज़ में चिपके या थकी भौंहों पर टिके पसीने में घुले एक अदृश्य दुश्मन के सामने वे आसान शिकार की तरह खड़े थे।

बीता साल एक ऐसे मैराथन की तरह रहा है जिसका अन्त दिखाई नहीं देता। एक मशहूर गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट ने अपने व्यस्त दिन के बारे में मुझे बताया था। उन्होंने अपनी बेटी को कई दिनों से देखा भी नहीं था। और अपने पति के साथ गुज़ारने को मिले चन्द मिनटों में उनकी ऑंखें बस इतना ही पूछ सकती थीं, ‘क्या तुम ठीक हो?’ नवम्बर में मुझे उन्होंने लिखा, ‘मेरा रुटीन अभी भी वैसा ही है, और अब मैं थक गई हूँ। अपने ख़ाली समय के कुछ घण्टे मैं हमारी गौशाला में अपनी गायों को खिलाते और दुलारते हुए बिताती हूँ।’

पहली क़तार में खड़ी आशा कर्मियों की तरफ़ तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता। ये सबसे ज़रूरी सेवाएँ मुहैया कराती हैं जिनके बग़ैर देश रुक जाएगा। हर रोज़ देश में कोई झाड़ू लगाता है, सफ़ाई करता है। उनके हाथ ब्लीचिंग पाउडर से कटे-फटे होते हैं और उनके चेहरे पर घिसे हुए पुराने मास्क होते हैं जो वे हमेशा पहने रहते हैं। हमारे काम की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे एक सहकर्मी ने अपनी प्रस्तुति को आशा कर्मियों के नाम समर्पित किया। उन्होंने कहा कि आशा कर्मी बस इतना चाहते हैं कि ऊँचे पद पर बैठा कोई व्यक्ति कहे कि उनका काम कितना मूल्यवान है; उनसे पूछे कि उनके पास पूरे सुरक्षा उपकरण हैं या नहीं और वे अपना ख़याल रख रही हैं या नहीं। ऐसी ही एक कर्मी ने उनको बताया, ‘साहब, काश हमें भी इस युद्ध के योद्धा की तरह देखा जाता’।

वे लाखों मज़दूर जो श्रमिक ट्रेनों से घर पहुँचे, उनको ट्रेन में खाना मिल सका क्योंकि वॉलंटियरों ने यह सुनिश्चित किया कि कोई भूखा न रहे। एक संस्था ने, जिसके साथ हमने काम किया, खाने के पैकेट के साथ खजूर का पाउच रख दिया क्योंकि खजूर से ताक़त मिलती है। यह छोटी-सी पहल सफ़र कर रहे प्रवासियों के प्रति एक गहरे सरोकार और संवेदना का प्रतीक थी। प्रशासन में भी निःस्वार्थ काम कर रहे लोगों की कमी नहीं थी। श्रमिक ट्रेनों के संचालन के पूरे 40 दिन तक रात दो बजे घर पहुँचने वाले एक अधिकारी ने एक दिन परेशान होकर मुझे फ़ोन किया क्योंकि वे कोविड-पॉजिटिव हो गए थे और अब कुछ दिन वे फ़ील्ड में काम नहीं कर सकते थे। जैसे ही डॉक्टरों ने बताया कि वे ठीक हो गए हैं, वे वापस मैदान में कूद पड़े।

सामाजिक विकास के क्षेत्र में सक्रिय एनजीओ में काम कर रहे अनगिनत वॉलंटियरों ने इस जंग में शामिल होने के लिए ख़ुद को रातों-रात तैयार किया। पहले कुछ हफ़्ते जोश से भरे हुए थे। लेकिन मैराथन महज़ जोश से नहीं जीता जा सकता। दस महीनों बाद आज भी उनमें से कई अग्रिम पंक्ति में ही तैनात हैं — वे लोगों को समझा रहे हैं कि सावधानी में ढिलाई न करें, मास्क पहनना न छोड़ें, सामाजिक दूरी का पालन करें। अभी यह सब छोड़ने का समय नहीं आया है क्योंकि महामारी ख़त्म नहीं हुई है और टीका अभी महीनों दूर है। इनमें से कई योद्धाओं को इनकी संस्थाओं या राहत कार्य को फ़ण्ड कर रही संस्थाओं से मामूली पगार मिलती है। और कितने तो ऐसे हैं जो बिना कुछ लिए ही इस फ़ौज में शामिल हैं। उनको कहीं से पैसा नहीं मिलता और उनके परिवारों को आजीविका के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। ये योद्धा कब तक टिके रहेंगे? अक्टूबर तक यह साफ़ हो गया था कि इनमें से कइयों की आर्थिक हालत नाज़ुक हो गई है। सात महीनों में उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह निचोड़ दिया था और अब वे खोखले हो चुके थे। क्या जब हमें टीके लग जाएँगे तब हम इनको याद रखेंगे?

महामारी ने इन योद्धाओं की परीक्षा कई तरह से ली है। दूसरों की ज़िन्दगी बचाते हुए क्या वे अपनों की जान को जोखिम में डाल रहे हैं? चेन्नई की बाढ़ में जो नायक बेहिचक कन्धेभर पानी में घुसकर लोगों को बचा रहे थे, वे इस महामारी के राहत कार्यों में हिचकते हुए शामिल हुए क्योंकि उनके घर पर बुज़ुर्ग माँ-बाप हैं जिनको और कई बीमारियाँ हैं। और ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो अपने परिवार को बताए बिना काम कर रहे हैं!

वे कभी नहीं कहेंगे, मगर अब हमारे योद्धा थक रहे हैं। बावजूद इसके वे मैदान में चौकस डटे हुए हैं।

एस. गिरिधर अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के चीफ़ ऑपरेटिंग ऑफ़िसर हैं।

[block rendering halted]

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें