संजय रोकडे

कहा जाता है कि संकट में समस्याओं से निपटने की असली परीक्षा होती है। इस लिहाज से देखें तो कोरोना महामारी के दौरान हमारी स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की बुरी तरह भद्द पिटी है। इलाज के लिए दवाओं, उपकरणों और आक्सीजन की कमी ने कई जानें ली हैं और सरकारी अमला इन त्रासदियों पर लीपापोती में लगा रहा है। आखिर सामान्य हालातों में स्वास्थ्य व्यवस्थाएं कैसी होनी चाहिए? उनमें कौन-सी, कितनी कमियां दिखाई देती हैं?

भारत की आत्मा भले ही गांवों में बसती हो, लेकिन आजादी के सात दशकों बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य जैसी बुनियादी और मूलभूत सुविधाओं का खासा अभाव है। आज जब कोरोना जैसी महामारी ने गांव में फैलकर ग्रामीणों को अपना शिकार बनाना शुरू किया है तो हम उनकी कुछ मदद करने की बजाय एक बेबस दर्शक बनकर ही रह गए है।

देश में ज्यादातर लोग कोरोना महामारी के संक्रमण के चलते बीमार हो रहे हैं और यह बात सिर्फ ठंड में होने वाले सर्दी-जुकाम जैसी नहीं है। कोरोना महामारी को लेकर भारत में हालत भयावह बन गए है। अमेरिका की ‘जॉन हॉपकिन्स युनिवर्सिटी’ द्वारा पिछले दिनों जारी आंकड़ों के अनुसार पूरी दुनिया में इस वायरस संक्रमण के कुल मामले बढ़कर 164,251,023 हो गए हैं और अब तक 3,404,990 लोगों की जान जा चुकी है।  

संसार में इस बीमारी से अमरीका के बाद दूसरा सर्वाधिक प्रभावित देश भारत है जहां 25 मार्च 2020 को जब लॉकडाउन लगा था तब कोरोना वायरस के 525 मामले सामने आए थे और 11 मौतें दर्ज हुई थी। जब लॉकडाउन 68 दिनों बाद 31 मई 2020 को खत्म हुआ तब भारत में 1,90,609 मामले दर्ज किए जा चुके थे और 5,408 मौतें हुई थी। आज यह कितना भयावह रूप ले चुका है सबके सामने है।

इस बीमारी में मरीजों को न तो शहर और न ही गांव में ठीक से उपचार मिल पा रहा है। शहरों में कुछ हद तक स्थिति को सामान्य कह सकते हैं पर गांवों में स्थिति बहुत ही खराब है। यहां बीमारी और समय पर उपचार नहीं मिलने के साथ ही गरीबी के चलते लोग बड़ी तादाद में मर रहे हैं।

आखिर गांव में इतनी विकराल स्थिति क्यों बनी? इसको जानने के लिए हमें केन्द्र व राज्य सरकारों की स्वास्थ्य नीति पर नजरें डालना होंगी। हालांकि भारत में स्वास्थ्य का जिम्मा राज्य सरकारों का है, लेकिन केन्द्र सरकार भी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। तो फिर केन्द्र और राज्य की सरकारें मिलकर मरीजों को लाशें बनने से क्यों नहीं रोक पाईं?

हमारे यहां स्वास्थ्य क्षेत्र की बदहाली का सबसे बड़ा कारण आबादी के लिहाज से स्वास्थ्य बजट की उपलब्धता नहीं होने को माना जा सकता है। हम अब भी स्वास्थ्य पर ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च करते हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले में भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। इस मद में मालदीव ‘जीडीपी’ का 9.4 फीसदी, भूटान 2.5 फीसदी, श्रीलंका 1.6 फीसदी और नेपाल 1.1 फीसदी खर्च करता है। दक्षिण-एशिया के 10 देशों की सूची में भारत सिर्फ बांग्लादेश से पहले, नीचे से दूसरे स्थान पर है।

भारत की तुलना में इलाज पर अपनी कुल आय का दस प्रतिशत से अधिक खर्च करने वाले देशों में ब्रिटेन भी शामिल है। वहां स्वास्थ्य पर ‘जीडीपी’ का 1. 6 फीसदी, अमेरिका में 4.8 फीसदी और चीन में 17.7 फीसदी खर्च किया जाता है।

केन्द्र सरकार ने सेहत को लेकर जिस तरह की उपेक्षा भरी नीति को अपना रखा है उस कारण देश में स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार ‘गरीबी रेखा’ के नीचे चले जाते हैं। जब हालात इतने विकट हैं तो सरकार को स्वास्थ्य बजट पर ‘जीडीपी’ का कम-से-कम तीन से चार फीसदी खर्च करना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है।

आज भी भारत की 70 फीसद आबादी इलाज के लिए निजी क्षेत्र पर निर्भर है। निजी अस्पतालों पर आश्रित रहने का मामला तभी खत्म होगा जब सरकार स्वास्थ्य बजट पर अधिक खर्च करे। केन्द्र सरकार को विदेशों से आयात होने वाली मेडिकल उपकरणों, दवाओं आदि की कीमतों को कम करने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि मरीजों को सस्ता इलाज मिले।

भाजपा ने 2019 के आम चुनाव के अपने घोषणापत्र (संकल्प पत्र) में वादा किया था कि इस बार वह स्वास्थ्य बजट को न केवल बढ़ाएगी, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना ‘आयुष्मान भारत योजना’ (पीएमजेएवाई) को अगले चरण तक ले जाएगी। इसके लिए ‘हेल्थ फॉर ऑल’ का नारा भी दिया गया था। कोरोना काल में सबसे अहम मानी जाने वाली इस योजना की कैसी धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, ये सबके सामने है। कई निजी अस्पताल इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, जबकि सरकारें बड़े-बड़े, फुल पेज के विज्ञापन निकाल कर मरीजों और उनके परिजनों से यह दावा कर रही हैं कि सबको पांच लाख तक का इलाज निशुल्क मिलेगा।

सरकार आवाम को वाकई में स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना चाहती है तो सबसे पहले इस सरकार को बुनियादी स्वास्थ्य के ढांचे को मजबूत करने की आवश्यकता है। बीते साल आई ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के आंकड़े सरकार की नीति और नियत को खुलकर सामने रख देते हैं। इसके मुताबिक भारत में स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च का 67.78 प्रतिशत लोगों की जेब से ही निकलता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 17.3 प्रतिशत ही है। रिपोर्ट में यह तक कहा गया है कि आधे भारतीयों की आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच ही नहीं है।

‘डब्ल्यूएचओ’ की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में लगभग 23 करोड़ लोगों को 2007 से 2015 के दौरान अपनी आय का 10 फीसदी से अधिक पैसा इलाज पर खर्च करना पड़ा था। यह संख्या ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त आबादी से भी अधिक था। इन आंकड़ों से साफ अंदाजा लगा सकते हैं कि सरकार भारत के आमजन के स्वास्थ्य के प्रति कितनी बेपरवाह है।

ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य बदहाली की गंभीर समस्याओं के साथ ही वहां डॉक्टर, अनिवार्य स्टॉफ और आवश्यक सुविधाओं पर बात करें तो पता चलता है कि बदहाली चहुंओर पसरी है। स्वास्थ्य मामलों के जानकारों की मानें तो सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य के ढांचे के नाम पर अस्पतालों और हेल्थ सेंटरों की इमारतें तो खड़ी कर दी हैं, लेकिन इनको क्रियाशील बनाने के लिए मानव संसाधनों की खासी कमी है।

सर्व-विदित है कि भारत में डॉक्टरों की भारी कमी है। इस कमी के चलते ग्रामीण अंचल में कोरोना महामारी के कारण संकट की स्थिति निर्मित हो गई थी। भारत में कोरोना ने महामारी का रूप ले लिया था और हमारे पास इलाज के लिए प्रर्याप्त डॉक्टर तक नहीं थे। देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर डॉक्टरों की करीब 41.32 फीसदी की कमी है। यानी सरकार की तरफ से कुल 158,417 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 65,467 अब भी खाली हैं।

इस संबंध में ‘जन स्वास्थ्य अभियान’ के राष्ट्रीय सहसंयोजक अमूल्य निधि का कहना है कि इस कोरोना काल ने भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी है, लेकिन दुर्भाग्य ये है कि आज भी स्वास्थ्य विभाग के मंत्री और अधिकारी इस बात को समझने को तैयार नही हैं कि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था ने ही इस देश की जनता को संभाल कर रखा  हैं।

अमूल्य कहते हैं कि अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाया जाए। स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने की बजाय उनका समुदायीकरण किया जाना चाहिए। देश की मौजूदा लोक केंद्रीत स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ावा दिया जाए।

सरकारें यदि स्वास्थ्य बदहाली को वाकई में खुशहाली में बदलना चाहती हैं तो सहकारिता आंदोलन के प्रयासों से सीख लेकर निजी अस्पतालों पर एक मजबूत निगरानी तंत्र को खड़ा किया जाए, ताकि बीमार को समय पर सरल, सहज और सस्ता इलाज मिल सके। (सप्रेस)

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