कुमार सिद्धार्थ

दीया निहायत सात्विक, सौम्य, शांत और स्निग्ध रोशनी का संचार करता है। दीये की लौ साधना तथा समर्पण की मिसाल है। उसकी सत्ता शाश्वत है। अंधेरी रात जलती दीपमाला निराशा पर आशा का ध्वज फहराती है, दुख से हर्ष की ओर ले जाने की मनुष्य की अहम जरूरत की पूर्ति करती है।

दीपावली आभा और शोभा, उल्लास और आनंद, सौंदर्य और शृंगार, मिठास और उजास, स्वच्छता और सद्भावना का एक ऐसा अलौकिक पर्व है जो हमारी लौकिक परंपरा को सदियों से दीप्त किए हुए है। यह त्योहार मात्र भौतिक दीपों का सम्मिलन नहीं है वरन् इसमें भारत के इतिहास और संस्कृति के तमाम रेशमी सूत्र पुंजीभूत हो उठते हैं। इस दिन मनुष्य अंधकार को चुनौती देता है। और उसके इस संकल्प अभियान के सैनिक होते हैं नन्हें- नन्हें दीपों की अगणित झिलमिल कतारों ज्योति की ध्वजा थामे हुए मिट्टी के ये दीये।  

दीया निहायत सात्विक, सौम्य, शांत और स्निग्ध रोशनी का संचार करता है। दीये की लौ साधना तथा समर्पण की मिसाल है। उसकी सत्ता शाश्वत है। अंधेरी रात जलती दीपमाला निराशा पर आशा का ध्वज फहराती है, दुख से हर्ष की ओर ले जाने की मनुष्य की अहम जरूरत की पूर्ति करती है।  

दीपावली एक विराट सहजता का पर्व है। इसी सहजता में डूबकर हमारा लोकजीवन तरोताजा होता है, जिंदगी के अर्थों को नया विस्तार देता है। एक ऐसे समय में जब हमारे जीवन के भौतिक उपकरण बदलते जा रहे हैं, मिट्टी के दीये की सत्ता अभी भी धूमिल नही हुई हैं। बिजली के चमकदार लट्टुओं और लड़ियों के सतरंगी उजाले के बीच भी दीये ने अपनी पहचान नहीं खोई है। पूजा मिट्टी के दीये की ही होती है चाहे वह सोने की थाल में ही क्यों न सजाया जाए। दीये की एक खूबी यह भी है कि वह मनुष्य का पथ प्रदर्शक ही नहीं, सहयात्री और साक्षी भी है। यह पूजा से लेकर प्रतीक्षा और अर्चना से अभ्यर्थना तक मनुष्य का हर पड़ाव पर साथ देता है। मंदिर और मशान, उत्सव और मातम, महल और झोपड़ी, मजार और समाधि यानी जीवन के हर सोपान पर, हर मोड़ पर दीये की उपस्थिति अनिवार्य है।  

एक दीप से दूसरे दीप का जलना दरअसल एक मनुष्य के ह़ृदय का दूसरे मनुष्य के हृदय से जुड़ने की प्रक्रिया का ही  रूपांतरण है। त्योहारों का काम ही जोड़ना और सामुदायिक भावना को परवान चढ़ाना है। जो लोग त्योहार पर समरस नहीं होते, जिनकी धमनियों में हर्ष की हिलोरें नहीं उठतीं तो समझिए उनके जीवन रक्त में कहीं से कोई मिलावट आ गई है। सामुदायिक स्मृतियों से कटने वाले अंततः जमीनी सच्चाइयों से भी कट जाते हैं।  

अब दीवाली से फटाखों का शोर और प्रदूषण जुड़ गया है। आतिशबाजी के बगैर अब उसकी कल्पना ही नहीं की सकती। ऐसे पर्व वैभव सम्‍पन्‍न व्‍यक्तियों के लिए शान शौकत और अपनी विलासिता प्रदर्शित करने का उत्‍सव भर है। हर दीवाली पर यह तर्क सुनने को मिलता है दीपावली पर करोड़ रुपए आतिशबाजियों में निरर्थक फूंक दिए गए है। जितने पैसे दीवाली में स्वाहा कर दिए जाते हैं, उससे इतने अस्पताल या स्कूल बन सकते हैं, गांवों में इतने कुएं खुद सकते हैं। घोर प्रदूषण से मुक्ति पाई जा सकती थी।  

गाँवों की सौंधी मिट्टी से लेकर शहरों की मलिन बस्तियों का चेहरा अगर किसी दिन नई चमक से खिलता है, तो वह दीवाली ही है। यह एक ऐसा अनुपम त्योहार है जब मनुष्य ही नहीं मवेशी भी शृंगारित होता है तथा वाहनों से लेकर गोबर तक की पूजा की जाती है। स्पष्ट है कि प्रकृति के चराचर से जुड़ा ऐसा त्योहार सिर्फ भारत में ही संभव है जिसकी संस्कृति में सबको बाँध लेने की असीम क्षमता है।  

क्या हम चाहेंगे कि हमारे समाज में अपने त्योहार मनाने की जो ऊर्जा बची है, जो जीवंतता बाकी है, वह भी जाती रहे? मगर इसके साथ ही यह भी याद रखना जरूरी है कि दीपावली के दिन दीया हर घर में जलना चाहिए, त्योहार के दिन कोई भूखा नहीं सोए यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इतना भी हो जाए तो हमारे सामाजिक सरोकारों को एक नया अर्थ मिल सकता है। दीवाली का एक ही संदेश है और वह यह कि हमें अपने जीवन, समाज और राष्ट्र के अंधेरे पहलुओं को दूर करते हुए उजाले की तरफ बढ़ना है।  

दीप से दीप जलाने का जो क्रम सदियों से जारी है उसे  निरंतर विस्तार देकर ही हम एक अच्छे समाज और एक अच्‍छे राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। वैभव और अहंकार के प्रदर्शन के बीच दीया विनम्र किन्तु दृढ़ आस्‍था का पर्याय है। सबसे ज्यादा आज हमें इसी भावना की जरूरत है। आइए, हम सब मिलकर इस कामना करें कि दीपावली सबके लिये समृद्धिशाली और सुखदायी हो।  

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