प्रसून लतांत

अनुपम मिश्र अपने देश की प्रकृति, धरोहर, जीवन और लोक ज्ञान के अनूठे पैरोकार थे। वे अपने जीवन और लेखन के कारण गांधीवादी, पर्यावरणविद और श्रेष्ठ गद्य लेखक के रूप में शुमार किए जा रहे हैं। अड़सठ साल का सफर पूरे करने वाले अनुपम मिश्र का जीवन साफ सुथरे समाज के लिए समर्पित रहा। कम साधनों में संतुष्टि रखने वाले अनुपम किसी सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं जुड़े थे।

19 दिसंबर : पुण्‍य स्‍मरण

अनुपम मिश्र असाधारण थे पर उनकी असाधारणता किसी को फुफकारती नहीं थी। उनके पास जाने वाला साधारण से साधारण व्यक्ति खुद को छोटा नहीं महसूस करता था बल्कि उनके संसर्ग में रहकर समृद्ध हो जाता था। हर कोई उनसे मिलकर उनके आत्मीय संसार का रहवासी हो जाता था। अनुपम मिश्र पुराने परिचितों को भूलने नहीं देते थे और नए आगंतुकों को जोड़ने में कभी उदासीनता नहीं दिखाते थे। अनुपम मिश्र सरल थे, सहज थे और सादगी पसंद थे। और सहज ही सभी के लिए सखा जैसे हो जाते थे। किसी को साथ देने का उनका उत्साह अनुपम था। वे जिस किसी से मिलते, खूब खुशी से मिलते और जाते समय विदा करने अपने कार्यालय से निकल कर मुख्य द्वार तक जाते। उनकी यह विनम्रता, भद्रता, उदारता और महानता हर किसी को भा जाती थी।

अनुपम मिश्र अपनी उपलब्धियों पर कभी व्यक्तिगत दावा नहीं करते थे। अपनी लिखी पुस्तकों और व्याख्यानों के अंशों के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाते थे बल्कि हर किसी को खुली छूट देते थे। देश और समाज के हित में हर किसी के साथ रहते थे। अनुपम मिश्र चाहे वह गांव का भोला-भाला किसान हो या हर का कोई मामूली आदमी वे उन्हें भी वही और उतना ही सम्मान देते थे, जो वे किसी कहे जाने वाले गणमान्य को देश सकते थे। वे अखबारों की सुर्खियों में नहीं रहते थे पर अपने सैकड़ों मित्रों के दिलों में रहते थे और आगे भी रहेंगे।

अड़सठ साल का सफर पूरे करने वाले अनुपम मिश्र का जीवन साफ सुथरे समाज के लिए समर्पित रहा। कम साधनों में संतुष्टि रखने वाले अनुपम मिश्र किसी सत्ता प्रतिष्ठान से नहीं जुड़े थे। वे ‘गांधी मार्ग’ के संपादक के रूप में गांधी शांति प्रतिष्ठान में काम में जुटे रहते थे। वहीं उनसे देश भर से लोग मिलने आते थे। वे समाज कर्म और पत्रकारों के बीच एकदम जाने पहचाने हुए थे। उन्होंने अपनी उपलब्धियों का न कभी दंभ पाला और न उनसे हस्तांतरित करने के लिए किसी से मोल मांगा। उनके विराट व्यक्तित्व से न कोई असहज होता और न कोई भयभीत होता। उन्हें कई समाज मिले पर इसके लिए न कोई लाबिंग की और न उसके प्रचार के भूखे रहे। उनके पास जाने पर लोगों को कुछ मिले या न मिले, पर अपनेपन से कुछ बातें जरूर मिलती, जो उनके मन में उजाला भर देती।

कैंसर के कारण दिवंगत हुए अनुपम मिश्र और भी जीते। जीने के लिए उनके पास उत्साह था और जीवन की कठिनाइयों को साध लेने की सूझ-बूझ भी थी। वे किसी पर बोझ नहीं थे और न किसी को बोझिल होने देते थे। वे हर अवसर को वरदान में बदल देते थे। श्रम से न कभी दूरी रखी और न कभी हेय नजरिए से देखा। वादे और समय के पक्के थे और अपना काम निपटने में कभी पीछे नहीं रहते थे।

सादगी बरतने वाले अनुपम मिश्र सभी को छोड़कर चले गए । उनके होने का मतलब कुछ लोग समझते थे, लेकिन अब उनके नहीं रहने पर उनकी जरूरत हर किसी को महसूस होगी। आजादी के बाद बहुत सी बातों, परंपराओं, व्यवहारों और तौर-तरीकों को घटिया कहकर नकारा जाता रहा,पर उन्हीं में से अनुपम मिश्र ऐसी बातें खोज कर लाते रहे, जो न केवल अद्भुत होती थीं बल्कि मौजूदा समस्याओं के समाधान के द्वार के ताले खोलने की कुंजी साबित हुईं और आगे भी होती रहेंगी। अनुपम मिश्र अपने दे के समृद्ध अतीत को सरल-सहज शैली और अनूठी भाषा में अपनी पुस्तकों, व्याख्यानों और वार्ताओं के जरिए जाहिर कर रहे थे, जो साफ माथे वाले समाज की वकालत थी। जिस लोक ज्ञान को नई सभ्यता को ओढ़ने-बिछाने वाले और हरी संस्कृति में रचे-बसे लोगों ने हाशिए पर रख दिया है, उन्हें अनुपम मिश्र ने पूरे सम्मान और विनम्रता के साथ न केवल अपनाया बल्कि पुस्तकों के रूप में देश के कोने-कोने तक पहुंचाया भी।

अनुपम मिश्र की पुस्तकों में ‘आज भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूंदे’ और ‘साफ माथे का समाज’ अच्छी खासी चर्चित रही। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई ‘आज भी खरे हैं तालाब’। विभिन्न भाषाओं में अनुदित इस पुस्तक की लाखों प्रतियां छप व वितरित हो चुकी हैं। इंडिया टुडे ने देश की 30 महत्वपूर्ण पुस्तकों की सूची में इसे शामिल किया है। इस पुस्तक की खासियत यह है कि इसमें पाठक केवल रस का आस्वाद नहीं लेता, कर्म में  प्रवृत्त भी होता है। हिंदी में किताबों की बिक्री नहीं होने का रोना रोने वालों के लिए यह किताब एक उदाहरण है। यह पुस्तक अपने आप में खुद नायक है। इस पुस्तक के चमत्कार के दर्जनों अनुकरणीय किस्से हैं, जिनको इसके पाठकों ने अपने श्रम और सूझ-बूझ से गढ़े हैं और अनुपम मिश्र के प्रति आभारी भी हैं। हिंदी में पहली बार जब यह छपी तो दूसरी भाषाओं में अनुवाद करने वाले खुद व खुद आगे बढ़कर आए। और इस तरह यह पुस्तक अकेली हिंदी की थाती नहीं रह गई है। इस पुस्तक की बिक्री से दस लाख रुपए की आय हुई, जिसे अनुपम मिश्र ने गांधी शांति प्रतिष्ठान को सौंप दिया। यह पुस्तक 19 भाषाओं में 40 संस्करणों में छप चुकी है।

इस पुस्तक के बारे में प्रभाष जोशी की राय को भी देखें-‘यह संपादित नहीं है। सीधे अनुपम ने लिखी है- नाम कहीं अंदर है छोटा सा लेकिन हिंदी की चोटी के विद्वान ऐसी सीधी,सरल, आत्मीय और हर वाक्य में एक बात कहने वाली हिंदी तो जरा वहन कर बताएं। जानकारी की तो बात ही नहीं कर रहा हूं। अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में लाकर देखा है। सम्मान से समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोकर रखा है। कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता था, लेकिन भारतीय इंजीनियर नहीं, पर्यावरणविद नहीं, शोधक विद्वान भारत के समाज और तालाब से उसके सरोकार व मर्म को समझने वाला विनम्र भारतीय। ऐसी जानकारी हिंदी में ही नहीं, अंग्रेजी और किसी भारतीय भाषा में आपको तालाब पर मिलेगी। तालाब पानी का इंतजाम करने का कर्म है तो इस देश के सभी लोगों ने किया ही, पर उनके ज्ञान और उनके समर्पण को व्यक्त करने वाली एक यही किताब है।’

पर्यावरण और जल संरक्षण प्रबंधन पर महत्वपूर्ण लेखन के कारण देश के पांच प्रमुख पर्यावरणविदों में एक माने जाने वाले अनुपम मिश्र वास्तव में आदर्श गांधीवादी पत्रकार की तरह ताउम्र काम करते रहे। वे अपने समय के यशस्‍वी संपादक भी रहे जिसकी बानगी गांधी मार्ग के विभिन्न अंकों में देखी जा सकती है। जनसत्ता के संस्थापक संपादक रहे स्व. प्रभाष जोशी और श्रवण गर्ग के साथ चंबल के डाकुओं के समर्पण पर लेखन करने वाले अनुपम मिश्र आंदोलनों पर लिखने वाले पत्रकार के रूप में चर्चित हुए। उन्होंने चिपको आंदोलन पर ऐसी रपट लिखी, जो दिनमान में छपने के बाद चिपको शब्द प्रचलित हो गया। अनुपम मिश्र प्रज्ञानीति में काम करने के बाद फ्रीलांसर हो गए। फिर कभी प्रोफेनल पत्रकार बनने की दिशा में कदम नहीं बढ़ाया। उन्होंने पर्यावरण के काम में रुचि रखने वाली संस्थाओं का सर्वे किया। जिसे वे देश भर की संस्थाओं और उनको लाने वाले साथियों के संपर्क में आए। इनमें से कई साथी उनके मार्गदर्शन में और सहयोग से कहां से कहां पहुंच गए। अनुपम मिश्र अनेक संघर्षशील पत्रकारों के अभिभावक थे और मार्गदर्शक भी।

अपने कवि पिता भवानी प्रसाद मिश्र और कृषि विज्ञानी बनवारीलालजी से प्रभावित अनुपम मिश्र के लिए गांधी, गोखले और राजेंद्र प्रसाद की प्रवृतियां अनुकूल थीं। उन्होंने वास्तव में इन महान पुरुषों की तरह न केवल जीया बल्कि उनके त्याग और महानता को अपने लेखन का विय भी बनाया। वे अपने देश की प्रकृति, धरोहर, जीवन और लोक ज्ञान के अनूठे पैरोकार थे। अनुपम मिश्र अपने जीवन और लेखन के कारण गांधीवादी, पर्यावरणविद और श्रेष्ठ गद्य लेखक के रूप में शुमार किए जा रहे हैं। लेकिन इसी के साथ उन्होंने ‘गांधी वांग्मय’ के सौ खंडों के डिजीटल करने के दौरान की गई गड़बड़ियों को भी दुरुस्त और संरक्षित कराया, नहीं तो दुनिया गांधीजी की बहुत सी हकीकतों को जानने से वंचित रह जाती। (सप्रेस)

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